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मूवी रिव्यू: तोरबाज़

कैसी है कैंसर की खबर के बाद रिलीज़ हुई संजय दत्त की पहली फिल्म?

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मुश्किल वक्त में उम्मीद ढूंढने की कहानी है तोरबाज़. फोटो - फिल्म स्टिल
रिफ्यूजी कैम्प में रहने वाले बच्चे टेररिस्ट नहीं होते, बल्कि वो टेररिज़्म  का पहला शिकार होते हैं.

फिल्म की एलिवेटर पिच. यानी अगर एक लाइन में फिल्म को डिस्क्राइब करना हो, तो ये काम इस डायलॉग से किया जा सकता है. सुनने में इम्पैक्टफुल लगता है. और संजय दत्त की भारी-भरकम आवाज़ के साथ तो और भी जबर. पर क्या ये फिल्म इस डायलॉग के पीछे छिपे मैसेज के साथ इंसाफ कर पाती है. एक शब्द का जवाब है. नहीं. इस पर शिकायत और सवाल डायरेक्टर साहब से बनते हैं. बराबर बनते हैं. पर उससे पहले थोड़ा फिल्म के बारे में जान लेते हैं.
मेन कास्ट
संजय दत्त, नरगिस फाखरी, 'मेरी जंग' वाले अपने राहुल देव, और दर्ज़न भर नए चेहरे. बच्चों के रूप में. उनपर भी बात करेंगे. बनाई है गिरीश मलिक ने. उन्होंने ही भारती जाखड़ के साथ मिलकर इसे लिखा भी है. फिल्म की पेस ऐसी है मानो अपनी टांगें घसीटकर चल रही हो. ठीक वैसे ही, जैसे किसी बच्चे को उसके पहले दिन स्कूल ले जाया जाता है. एक और शिकायत डायरेक्टर साहब के नाम दर्ज.
नासीर, एक एक्स आर्मी ऑफिसर जो बच्चों को क्रिकेट सिखाता है.
नासिर, एक एक्स आर्मी ऑफिसर जो बच्चों को क्रिकेट सिखाता है.

फिल्म की कहानी
कहानी शुरू होती है एक बच्चे से. जो सुसाइड अटैक की तैयारी कर रहा है. जिहाद के रास्ते पर चलकर 'शहीद' होने की कसमें खा रहा है. 10 साल पहले का अफग़ानिस्तान. बताया जाता है कि 2007 से ही बच्चों को सुसाइड बॉम्बर्स की तरह यूज़ किया जा रहा है. कैसे आतंकी बच्चों पे घात लगाए बैठे रहते हैं. बिल्कुल एक बाज़ की तरह. मतलब लिटरली. एक सीन है. जहां एक तरफ बाज़ भेड़ों के झुंड पर नजर टिकाए बैठा है. किसी अकेले मेमने को ढूंढ रहा है. वहीं कुछ आतंकी खेल रहे बच्चों के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहे हैं. दोनों झपट्टा मारते हैं. बाज़ मेमने को लपक लेता है. आतंकियों के हाथ से बच्चे छूट जाते हैं.
नरगिस के किरदार का कैमरा टाइम इतना है कि अपने डायलॉग बोलते वक्त भी कैमरा दूसरे किरदारों पर रहता है.
नरगिस के किरदार का कैमरा टाइम इतना है कि उनके डायलॉग बोलते वक्त भी कैमरा दूसरे किरदारों पर रहता है.

एंट्री होती है आतंकियों के लीडर कज़ार की. जो बने हैं राहुल देव. खुद गिनती भूल चुके होंगे कि ये कौनसे नंबर वाला नेगेटिव किरदार है. कज़ार अपने देश में घुसी विदेशी ताकतों से खीज खाए बैठा है. एक ही मकसद है. इतने हमले करेगा कि अमेरिकन सोल्जर्स भाग खड़े हों. हमलों के लिए बच्चों को उठाने का काम भी चलता रहता है. फिर आते हैं नासिर साहब. यानी संजय दत्त. इंडियन आर्मी में डॉक्टर रह चुके हैं. काबुल लौटना है पर लौटना नहीं चाहते. यादें ही कुछ ऐसी जुड़ी हैं. अपनी बीवी और बच्चे को एक सुसाइड अटैक में खो बैठे थे. किसी तरह मन मारकर पहुंच ही जाते हैं. आयशा से मिलते हैं. लोकल अफग़ानी. रिफ्यूजी कैम्प के बच्चों के लिए एनजीओ चलाती है. जो किसी जमाने में नासिर की बीवी ने शुरू किया था. चाहती हैं कि वॉर के इमोशनल ट्रॉमा से इंजर्ड बच्चों को नई ज़िंदगी मिले. नासीर से मदद मांगती है. जो पहले तो हिचकिचाते हैं. फिर मान जाते हैं. इस कदर तक हिचकिचाते हैं कि वहां के बच्चों की शक्लें देखना पसंद नहीं करते. फिर एक छोटे से सीन से हृदय परिवर्तन. डायरेक्टर साहब, एक और शिकायत है. नोट कर लीजिए.
राहुल देव की ज़बान और आंखें, दोनों ने बड़िया काम किया है.
राहुल देव की ज़बान और आंखें, दोनों ने बड़िया काम किया है.

नासिर बच्चों को क्रिकेट की कोचिंग देना शुरू कर देता है. यहीं उसे बाज़ भी मिलता है. टैलेंटेड  प्लेयर है. नासिर का फेवरेट बन जाता है. पर यहां नासिर एक बात से अनजान है. कि बाज़ को सुसाइड बॉम्बर बनने की ट्रेनिंग मिली है. और वो सिर्फ नासिर का ही नहीं, बल्कि कज़ार का भी फेवरेट है. बच्चों की बेहतर ट्रेनिंग के लिए नासिर काबुल नेशनल टीम के कोच से मिलता है. चाहता है कि वो उन्हे सिखाए. कोच साफ मना कर देता है. कहता है कि ये बच्चे नाउम्मीद हैं. आगे नासिर क्या करता है? कज़ार और बाज़ क्या गुल खिलाते हैं? क्लाइमैक्स में ऐसा क्या होता है, जो दर्शकों को चकित कर देगा? ये सब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी.
बाज़, नासीर और कज़ार दोनों का फेवरेट है.
बाज़, नासीर और कज़ार दोनों का फेवरेट है.

कहना क्या चाहते हो?
नासिर को हीरो मानकर फिल्म मत देखिएगा. क्यूंकि कहानी है 'चिल्ड्रन ऑफ वॉर' की. वो बच्चे, जो जंग के किसी भी तरफ हो, नुकसान उन्हीं का होता है. फिल्म में ऐसे ही बच्चों की लाइफ को हील करना चाहा है. क्रिकेट के ज़रिए. खुद अफगानिस्तान की क्रिकेट टीम ऐसे हालात से गुज़री है. दुख इस बात का है कि ये प्रेरणा भी मेकर्स में एनर्जी नही भर पाई. इतना सेंसिटिव सब्जेक्ट, चाहते तो बहुत कुछ कर सकते थे. पर कर नहीं पाए. फिल्म ने अफग़ानिस्तान के पश्तून पठान और हज़ारा माइनॉरिटी के फर्क को भी छुआ. बस छुआ ही, ज़्यादा गहराई में नहीं उतरे.
मैच में वही सालों से चल आ रहा सस्पेंस है.
मैच में वही सालों से चला आ रहा सस्पेंस है.

फिल्मों की दुनिया में एक कहावत है. 'डिटेलिंग में खुदा बसता है'. और यहां डिटेलिंग में चूक हुई हैं. कई सारी. जैसे एक ही मैच को दो अलग-अलग मौकों पर लाइव मैच की तरह चलाया गया. आते हैं फिल्म के म्यूज़िक पर. गाने ऐसे कि स्किप किए जा सकते हैं. बैकग्राउंड म्यूज़िक की बात करेंगे, तो शिकायतों का टोकरा फिर खोलना पड़ेगा. काम ही ऐसा किया है. एक सीन हैं. जहां काबुल आने के बाद नासिर कब्रगाह जाता है. अपनी बीवी और बेटे को याद करने. नम आंखों के साथ अकेला खड़ा है. उसे देखकर उसके मन के खालीपन को भांपा जा सकता है. तभी  बैकग्राउंड में पियानो का म्यूज़िक बजने लगता है. और वो भी ऐसा कि सीन को ओवरपावर करने लगे. आप किरदार की मनोदशा समझना चाहते हो, उससे हमदर्दी जताना चाहते हो. पर ऐसा कुछ भी नहीं कर पाते. आपकी आंखें किरदार पर टिकी है, पर आपके कान म्यूज़िक के बोझ तले दब रहे हैं. जिस कारण पूरा सीन फ्लैट होकर गिरता है.
फिल्म के बच्चे फ्रेशनेस का एलीमेंट लाते हैं. नए चेहरे हैं और काफी प्रॉमिसिंग. इनमें से एक को स्पेशल मेंशन. रेहान शेख. जो फिल्म में छोटा सादिक़ बने हैं. इन्हे देखकर बीते जमाने के जूनियर महमूद की याद आ जाएगी.
अगर एक लाइन में फिल्म का सार समझना है तो यूं समझें. ‘शर्मा जी का वो बेटा, जिससे उम्मीदें बहुत थी, पर कुछ खास कर नहीं पाया’.