हम लोग सब कुछ कितना नाप-तौलकर करते हैं न! सुबह नहाते समय साबुन लगाकर कितना पानी डालना है. सिग्नल ग्रीन होने से कितने सेकेंड पहले बढ़ जाना है. ऑफिस में कितना खुलकर हंसना है. फेसबुक पर कितना बताना है, कितना छिपाना है. उससे बातें करते हुए कितनी बातें कल के लिए बचा लेनी हैं. टीवी की वॉल्यूम 20 पर ही रखनी है या 21 पर ही. सब कुछ.
शॉर्ट फिल्म रिव्यू: एक हिजड़े की प्रेम कहानी
12 मिनट की इस फिल्म में जो मज़ा है न...

मैं भी ऐसे ही करता हूं. मैं तो इसका भी हिसाब रखता हूं कि फुटपाथ पर लूले-लंगड़े को भीख देनी है और सही-सलामत को नहीं देनी है. पर इतनी नाप-तौल के चक्कर में परसों एक गलती हो गई. मैं भाभी के साथ गाड़ी में बैठा था. सिग्नल रेड था. तभी साड़ी पहने एक काया खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई. मैंने तुरंत चेहरा ऐसे बना लिया, जैसे धन नाम की वस्तु इस दुनिया में होती ही नहीं है.
भाभी बोलीं, 'कुछ खुल्ले पड़े हैं?' मैंने एक नोट निकाली, भाभी को थमाई, उन्होंने उसे दे दी.

सांकेतिक तस्वीर
उसने पूरे इत्मिनान से नोट खोंसी और फिर खिड़की से दोनों हाथ अंदर डालकर भाभी के सिर पर रख दिए. वो हाथ खाली नहीं थे. उनसे कुछ टपक रहा था. और बाहों-बाहों तक इतना टपक रहा था कि मैं ललचा गया. मैंने होंठ भींचकर खुद को याद दिलाया कि ये तो वो हैं, जो मेरी हिसाब-किताब की डायरी में 'हां' वाली लिस्ट में आते हैं. पैसे देने के लिए मैंने भाभी के कहने का इंतज़ार क्यों किया.
नैनो सेकेंड्स में ये लड़ाई चल ही रही थी कि तभी उसके एक हाथ ने मुझे आगे बढ़ने का इशारा किया. मैंने आगे खिसककर सिर झुकाया और अब वो हाथ मेरे सिर पर थे.
फिर वो काया चली गई. मैं उसका चेहरा नहीं देख पाया.
अगले कई मिनटों तक मैं और भाभी हिजड़ों के बारे में बातें करते रहे कि इनकी ज़िंदगी कितनी मुश्किल होती है. इनकी पैसे कमाने की मशक्कत, इनकी रहने की जगहें, इनके अंतिम संस्कार का तरीका... हम इन्हें इंसान मानते ही कहां हैं. जानवर तक नहीं समझते. हमारे लिए ये एग्ज़िस्ट ही नहीं करते हैं. मैं भी ऐसे बातें छौंक रहा था, जैसे वकील होता, तो अभी उनका केस लड़ने लगता. किरानेवाला होता, तो उन्हें मुफ्त में राशन दे आता. ट्रैफिक पर उनकी संख्या ज़्यादा न होती, तो उन्हें गले लगा आता.
पर बिना कहे पैसे न निकालने की टीस बनी रही. ज़्यादा हिसाब लगाने का एक नुकसान ये है कि नुकसान देर तक याद रहता है.

फिल्म में जब वो पहली बार दिखती है
आज यूट्यूब पर एक शॉर्ट फिल्म देखी. नाम है वजूद. जैसे ही ये चेहरा दिखा, ऊपरी होंठ और नाक के बीच पड़ती शिकन ने बता दिया कि ये हिजड़ा है. ये शब्द दूसरी बार लिखने से पहले मैं इसे इंग्लिश में ट्रांसजेंडर लिखकर सॉफेस्टिकेटेड बना सकता था, पर फिल्म के नाम ने मुझे रोक लिया. 'हिजड़ा' को गंदा हिजड़ों ने थोड़ी न बनाया है.
पर ये फिल्म अच्छे-गंदे के बारे में नहीं है. ये अच्छे-गंदे की लड़ाई कभी किसी नतीजे पर कहां पहुंचती है. फिल्म तो प्यार के बारे में है, जो खुद में मुकाम है. प्यार की चाहत के बारे में है, जो हम सबमें होती है. हमें कोई लाख समझा ले कि हम किसी के प्यार के काबिल नहीं हैं, पर हम नहीं मानते. हम खुद को लाख समझा लें कि शायद हम उस एक के काबिल नहीं हैं, पर हम कहां मानते. चाहत तो लगी रहती है. जलती रहती है. फिर कोई मर्द हो, औरत हो या हिजड़ा हो.

शॉर्ट फिल्म का एक स्क्रीनशॉट
उसे भी चाहत लगी हुई है. वो रोज़ एक ऑटोवाले को देखती है. रोज़ मन ही मन उससे बातें करती है. अपनी कहती है, उसकी सुनती है. वो जो नहीं भी कहता है, वो भी सुनती है. वो जब ऑटो साफ करते-करते स्माइल करता है, वो भी स्माइल कर देती है. जब ऑटोवाला उसे ताकते हुए पकड़ लेता है, तो वो झटके से पलट जाती है. जब चेहरे से हाथ हटाती है, तो तुरंत याद आता है... हंसती रहे वो हंसती रहे... हया की लाली खिलती रहे. पता नहीं गुलज़ार और रहमान वजह थे या उसकी हया.

चोरी-चोरी... ताका-झांकी
पर उसकी बाइजी बहुत कठोर हैं. कहती हैं कि सिर्फ तुझे ही थोड़ी न कोई चाहिए, जो ज़िंदगीभर तेरे साथ रहे. हम सबको भी चाहिए था, लेकिन कोई नहीं आता. तू हिजड़ा है हिजड़ा... और हिजड़ा आज भी एक गाली है.
बाइजी जब 'आज भी' कहती हैं, तो उनकी कठोरता पर दया आ जाती है. 'आज भी...' यानी उम्मीद है कि शायद किसी दिन उनकी ज़मात गाली नहीं रहेगी. होगा ही.

बाईजी उतना ही करती हैं, जितना गुरू लोगों ने बताया होता है
पर किसी के आने, न आने के चक्कर में क्या चाहना छोड़ दें! ये रिस्क का... 50-50 चांसेस का कॉन्सेप्ट ही गलत है. गणित के अलावा और कौन सी भाषा है, जो कहती हो कि + और - हमेशा माइनस ही होंगे. + भी तो हो सकते हैं. होते ही हैं. पर - होने के डर से क्या अपना वजूद छोड़ दें!
माना कि सड़क चलते सबकी आंखें घूरती हैं, माना कि ट्रेन में हाथ छू भर जाने से लोग बिदक जाते हैं, माना कि लोग तालियां सुनते ही डर जाते हैं, माना कि लोग आज भी इंसान नहीं समझते हैं, तो क्या वो चाहना छोड़ दें? क्या इंसान होने की पहली सीढ़ी ही तोड़ दें, जो प्यार करना और प्यार देना सिखाती है.
नहीं. हमें प्यार करना है. हमें अपना वजूद बनाए रखना है. मैं भी तो उस दिन हार मान चुका था कि ये हाथ मेरे सिर पर नहीं आएंगे. पर आए. उसे भी तो लगता था कि कोई उसका साथ देने नहीं आएगा. पर कोई तो उसे समंदर से किनारे पर लाने के लिए हाथ बढ़ाता है. कोई तो बढ़ाएगा ही. इंतज़ार करने में क्या हर्ज है? हिजड़ा होने में क्या हर्ज है?
फिल्म के आखिर में वो लड़का सही कहता है कि हिजड़ा होने का खूबसूरती से क्या वास्ता! खूबसूरती तो अपने आप में एक स्वीकरोक्ति है.

कोई तो आएगा. कोई तो हमेशा आता है.
मैं वकील नहीं हूं. किरानेवाला नहीं हूं. सड़क पर लोगों को गले लगाता नहीं चलता हूं. मैं कलम बेचता हूं. बिना कहे पैसे न निकालने की वो टीस अब कुछ जाती सी लग रही है.
आप फिल्म देखिए:
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