रामाधीर सिंह के लहज़े में कहें तो जब तक दुनिया है, 'भूतिया' सिनेमा बनता रहेगा. कैसा लगा मेरा वर्ड प्ले! जानकारी के लिए बता दें, सिर्फ़ हम लोग ही वर्ड प्ले नहीं करते. सनीमा वाले भी करते हैं. इसी भूतिया शब्द क्रीड़ा से गुज़रकर एक फ़िल्म का नाम पड़ा 'फ़ोन भूत'. सही पकड़े हैं, बूथ नहीं भूत. और अब ये फ़िल्म सिनेमाघरों में रिलीज़ हो चुकी है. कैसी है ये हॉरर कॉमेडी, 'कम बडी'; बताते हैं.
मूवी रिव्यू: फोन भूत
कुल मिलाकर फन फ़िल्म है, पर अति के चक्कर में अनफनी भी हो गई है.

मेजर और गुल्लू, हॉरर फैन. तमाम भूतिया फ़िल्मों के पोस्टर्स से सज़ा हुआ उनका घर. सैकड़ो भूतिया अवशेष जमा कर रखे हैं. भूत उनको डराते नहीं, रोमांचित करते हैं. ऐसी ही एक रोमांचित करने वाली हॉरर पार्टी ऑर्गेनाइज़ करते हैं. वहां उनको मिलती है रागिनी द भूत. जिसे सिर्फ़ मेजर-गुल्लू ही देख सकते हैं. रागिनी देती है बिजनेस आइडिया. वो ठुकराते हैं. पर पिताओं का कर्ज़ उन्हें उस आइडिया की ओर लौटने पर मजबूर करता है. ये बिजनेस होता है भटकती आत्माओं को मोक्ष दिलाने का. धंधा चल निकलता है. पर उनके इस धंधे से कोई प्रभावित होता है. इसके बाद शुरू होता है मिनी भूतिया युद्ध. यही है फ़िल्म की कहानी. और भी कुछ-कुछ एलिमेंट्स हैं. पर वो जानने के लिए आपको फ़िल्म देखनी पड़ेगी.
कॉमेडी कई तरीकों की होती है. उनमें से कुछ तरीकों को यहां इस्तेमाल किया गया है. संवाद से उपजने वाली और सिचुएशन ने उपजने वाली कॉमेडी और इसमें लगाया गया है हॉरर का तड़का. आप सोच रहे होंगे सही वाक्य होना चाहिए, हॉरर में कॉमेडी का तड़का है. पर यही मैं आपसे अलग सोच रहा हूं. इस फ़िल्म में पहले आती है कॉमेडी, फिर आता है हॉरर. हालांकि ये फ़िल्म की कोई बड़ी समस्या नहीं है. गुरमीत सिंह ने इसे फनी बनाने के चक्कर में गानों की अति कर दी है. वो गाने बुरे नहीं हैं. पर बात-बात पर गाने का आ धमकना बुरा है. फ़िल्म का पहला भाग बहुत तेज़ भागता है. आपको कुछ पता नहीं चलता. चुटकी बजाते ही काम तमाम. पर दूसरा भाग खींचा गया है. रागिनी की बैक स्टोरी वाला सीक्वेंस ना होता तो अच्छा था. ये तो नमूना है, इसके अलावा भी सेकंड हाफ़ में कई ऐसी चीज़ें हैं, जो जबरदस्ती फ़नी बनाने के लिए ठूंसी हुई लगती हैं. चोटी वाली डायन का सीक्वेंस ही ले लीजिए. कहने का मन करता है, अब मान जाइए डायरेक्टर साहब.
अभी गानों के अति की ही बात की थी. इसके अलावा वर्ड प्ले और पीजेस की भरमार है. पहले-पहल आपको वर्ड प्ले फनी लगता है. पर आखिर तक आते-आते अच्छे लग रहे पीजे झेलाऊ हो जाते हैं. कुछ उदाहरण दे देता हूं, वरना आपलोग मुझे झूठा कहेंगे. जब चिकनी चुड़ैल भागते-भागते लाहौर पहुंच जाती है, तो कहती है 'लाहौर विलाकुवत'. एक भूत होता है, लालटेन गुडमैन. वो कुछ ज्ञान की बात बताकर जाता है. उस पर गुल्लू कहता है: 'ट्रूली इनलालटेन्ड'. ऐसे ही वर्ड प्ले और पीजे सुनकर आप कहने को मजबूर हो जाते हैं. मैंने डायलॉग सुने नहीं, झेले. बड़े बुजुर्ग कह गए ही हैं किसी चीज़ की आति अच्छी नहीं होती. पर दूसरी ओर कई डायलॉग मस्त व्यंग्य भी छौंकते हैं.
जैसे एक जगह गुल्लू जो कि साउथ इंडिया का है, अपने पापा से कहता है कि हम अब भूत कैप्चरिंग का काम करेंगे. तो उसके साउथ इंडियन पिता कहते हैं: बूथ कैप्चरिंग इज़ फ़ॉर नॉर्थ इंडियंस. फ़िल्म में एक चीज़ और अच्छी लगती है. वो है कि ये करेन्ट पॉप कल्चर के कई एलिमेंट्स उठाती है. चाहे वो मीम हों, ऐड्स हों या फिर किसी दूसरी फ़िल्म का क्रॉस ओवर. आज के बहुत से रेफ़्रेंसेस इस्तेमाल हुए हैं. आइएएस वाइएएस बनो, छोटी बच्ची हो क्या, तंजानिया के वो चार लोग जो कंधों पर ताबूत उठाए डांस करते रहते हैं. इन सबमें अच्छी बात ये है कि सभी चीजें सहज लगती हैं. कुछ जबरन नहीं लगता.
इस फ़िल्म में केयू मोहनन की सिनेमैटोग्राफी पर अलग से बात होनी चाहिए. बहुत कमाल का कैमरा वर्क और लाइटिंग है. 'किन्ना सोणा लगता है तू' का फिल्मांकन बहुत सुंदर है. कई पीओवी शॉट्स एकदम ऐप्ट हैं. चाहे इस गाने में हो या फिर जब सीट पर बैठा गुल्लू कुछ पीकर अचानक गिर जाता है, उस समय मेजर के कैमरे का पीओवी. ऐसे ही जब रागिनी का एक्सीडेंट होता है, वो बोनट पर पड़ी है कैमरा बोनट से होता हुआ ऊपर की ओर स्ट्रीट लाइट तक चला जाता है. कई ड्रीम सीक्वेन्सेज में मनन अश्विन मेहता की एडिटिंग भी अद्भुत है. चाहे टैबलेट खा लेने के बाद वाला सीक्वेंस हो या फिर नाइन्टीज के गाने वाला सीक्वेंस. मैंने बहुत दिनों बाद किसी भारतीय फ़िल्म में इतने सधे हुए विजुअल इफेक्ट्स देखे. कहीं पर भी आंखों को चुभने वाले VFX नहीं हैं. पूरी तरह से परिस्थितियों को जस्टीफाई करते हैं. टेक्निकल डिपार्टमेंट में बहुत बढ़िया काम हुआ है. चाहे साउन्ड एफेक्ट्स में फ़ोली का काम हो, डीआई का काम हो या फिर बीजीएम. मज़ा आ गया. अब हर तारीफ़ के लिए उदाहरण दे पाना संभव नहीं है मित्रो. इसके लिए फ़िल्म देखकर आइए.
मेजर के रोल में सिद्धांत चतुर्वेदी ने जो चाहिए था, बस वही किया है. ना ही कम ना ही ज़्यादा. चूंकि उनका कैरेक्टर ऐसा है, जो संवाद के साथ देह भाषा से भी कॉमेडी करता है. उनके साथ ओवर ऐक्टिंग का खतरा था. पर उन्होंने बहुत सधे तरीके से मेजर के किरदार को अंजाम तक पहुंचाया है. गुल्लू के रोल में ईशान खट्टर का काम खट से दिल पर लगता है. वो कॉमेडी भी करते हैं, उसी के साथ मासूम भी लगते हैं. दोनों में एफर्टलेस. कटरीना कैफ ने ठीक ऐक्टिंग की है. सबसे अच्छी बात है, इस फ़िल्म में वो बस शो पीस नहीं हैं. उनको ठीकठाक स्क्रीनटाइम मिला है, जिसको उन्होंने सही भुनाया है. जैकी श्रॉफ ने भी तांत्रिक के किरदार में एक अनुभवी अभिनेता के जैसे काम किया है. ऐसा ही आप शीबा चड्ढा के लिए भी कह सकते हैं. चिकनी चुड़ैल के रोल में उन्होंने एक्स्प्रेशन के साथ जो खेला है, वो देखकर सुख मिलता है.
कुल मिलाकर फन फ़िल्म है. पर अति के चक्कर में अनफनी भी हो गई है. क्लाइमैक्स पर और काम करने की ज़रूरत थी. वीकेंड पर एक बार जाकर देख सकते हैं. पर भयंकर वर्ड प्ले और झेलाऊ पीजे के लिए तैयार होकर जाइएगा.
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