अरे बहुत हेल्दी हो गई हो आजकल. थोड़ा कंट्रोल करो.
मूवी रिव्यू: डबल एक्सएल
फ़िल्म कहीं-कहीं फिसलती है. स्लो भी होती है. पर अंत तक अपना मैसेज डिलीवर करने में क़ामयाब हो जाती है.

इसी हेल्दी और कंट्रोल की मानसिकता को ठेंगा दिखाती फ़िल्म 'डबल एक्सएल' सिनेमाघरों में 4 नवंबर को रिलीज़ हो रही है. इसमें हुमा कुरैशी और सोनाक्षी सिन्हा ने बॉडी शेमिंग के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की है. देखते हैं उनकी आवाज़ सही जगह पर हिट करती है या नहीं?
फ़िल्म ओपन होती है एक सपने से. शिखर धवन के साथ डांस करती मेरठ की लड़की राजश्री. उसे स्पोर्ट्स प्रेजेंटर बनना है. सपने में उसकी मां सेंध लगाती है. सपना टूटकर शादी के रास्ते पर बिखर जाता है. शादी के लिए लड़का भी रिजेक्ट करता है, कारण है उसका मोटापा. दूसरी ओर है दिल्ली में रह रही सायरा का सपना. उसे फैशन डिज़ाइनिंग का अपना ब्रांड लॉन्च करना है. उसका सपना भी टूटता है. जुड़ता है. फिर बिखरता है. पर इन सबमें उसका मोटापा इतना अहम रोल प्ले नहीं करता. पर मेकर्स जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं कि मोटापे की ही वज़ह से उसका बॉयफ्रैंड उसे चीट कर रहा है. पर ऐसा कुछ ख़ास है नहीं. फिर कुछ ऐसा होता है कि राजश्री और सायरा का सपना आपस में टकराता है. दोनों मिलकर एक दूसरे की मदद करती हैं. कारण है एक दूसरे के प्रति एम्पैथी. यही है फ़िल्म की कहानी.
बीच में कहीं-कहीं लगता है कि फ़िल्म अपने मुद्दे से भटक रही है. ड्रामे में ज़्यादा फंस रही है. जैसे सायरा और उसके बॉयफ्रैंड वाला सीक्वेंस. श्री और जोरावर के साथ राजश्री और सायरा का लव ऐंगल. एक जगह तो पूरा डेली सोप टाइप सीक्वेंस डाल दिया है. ऐसा लगता है नाइंटीज की कोई फ़िल्म देख रहे हों. पहले एक हीरो गाकर हीरोइन को लुभा रहा है. फिर उसके साथ दूसरा हीरो भी गाने लगता है. मैं हीरो शब्द बार-बार इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि ऐसा काम फ़िल्म का कोई आम किरदार नहीं कर सकता. हीरो ही कर सकता है. फ़िल्म के डायरेक्टर सतरम रमानी ठीकठाक फ़िल्म को मास अपीलिंग बनाने के चक्कर में थोड़ा बह गए हैं. जिस गाने की मैं बात कर रहा हूं, उसमें एक चीज़ अच्छी है. कैमरामैन श्री तमिलियन है और उनसे तमिल में ही गाना गवाया है. यानी एक हीरो हिंदी में गा रहा है, और दूसरा तमिल में. नाइस प्रयोग.
हुमा कुरैशी ने बहुत सही काम किया है. मेरठ के एक्सेंट से लेकर, राजश्री के अंदर के भाव उनके चेहरे पर दिखते हैं. उन्होंने छोटे शहर की प्रोग्रेसिव लड़की को एकदम स्क्रीन पर चांप दिया है. उनके एक्सप्रेशन बहुत ज़्यादा असली हैं. असली से मतलब उनके किरदार में कुछ भी फेक नहीं लगता. बस एक जगह वो अपना किरदार छोड़ती हैं. जब कपिल का इंटरव्यू लेने जा रही होती हैं और कहती हैं: 'सायरा चश्मा दे दो भई.' यहां वो राजश्री के बदले हुमा वाला एक्सेंट पकड़ लेती हैं. सोनाक्षी सिन्हा ने ऐक्टिंग थोड़ा ज़्यादा कर दी है. हमारे यहां कहते हैं, बालों में बहुत तेल लगा लिया है, चुचुआ रहे हैं. यानी इतना तेल हो गया है जैसे चू रहा हो. वैसा ही सोनाक्षी के साथ है. उनकी ऐक्टिंग चुचुआ रही थी. उनकी ऐक्टिंग के साथ दिक्कत है, जैसे उन्हें सब पहले से पता है. सामने वाले का डायलॉग उन्हें पता है, वो उसके अनुसार पहले से ही चेहरे पर माहौल बना लेती हैं. एक सीन है, जहां वो पार्टी में गई हैं. उनका फ़ोन बजता है, वो लपककर उठा लेती हैं. ऐसा दिखता है कि उन्हें पहले से पता था कि इस सीन में फोन बजेगा और मुझे उठाना है. हुमा की मां बनीं अल्का बडोला कौशल ने भी सोनाक्षी की तरह की ऐक्टिंग की है. उनका किरदार पहले से लाउड है. उन्होंने उसे और ज़्यादा लाउड बना दिया है. श्री के किरदार में घुली मासूमियत और चुटिलता दोनों को महत राघवेंद्र ने सही ढंग से निभाया है. जोरावर के रोल में ज़हीर इक़बाल अनियमित दिखे हैं. किसी सीन में अच्छे और किसी सीन में बुरे. जैसे गाने वाले सीक्वेंस में बुरे और इंट्रोडक्ट्री सीक्वेंस में अच्छे लगे हैं. मजमा लूटा है छोटे से रोल में, हुमा की दादी बनी शुभा खोटे ने. इसे आप कॉमिक टाइमिंग नहीं, विटी टाइमिंग का कमाल कह सकते हैं.
डायलॉग फ़िल्म के नरेटिव और आइडिया के साथ सामंजस्य बनाकर चलते हैं.
'जब तक किसी और के दुख से पाला न पड़े, अपना ही दुख अल्टीमेट लगता है'
'दुनिया ओवरसाइज्ड कुर्ते के पीछे भी चर्बी ढूंढ लेती है.'
'सिर्फ आपके पसंद के साइज में फिट नहीं आती तो मुझे कम सोणा मत समझो.'
ऐसे ही तमाम सीरियस डायलॉग. इसी के साथ कई चुटीले डायलॉग भी हैं, जिन्हें सुनकर आप हंसते भी हैं. साथ ही गिल्ट से भी भर जाते हैं. बैकग्राउंड म्यूजिक और अच्छा हो सकता था. नया नहीं है. सुना-सुना लगता है. कपड़ों के लॉन्च इवेंट के समय बजता गाना 'मनवा सपनों की शर्त लगावै' बहुत सुंदर है. और भी कई गाने कर्णप्रिय हैं.
कुल मिलाकर फ़िल्म ना ही अच्छी है, ना ही ख़राब. मध्यम मार्ग अपनाती है. उसी में आपको संतोष करना पड़ता है. मूवी ये दिखाती है, कि डबल एक्सएल होने के कारण महिलाओं के मन में समाज ने कूट-कूटकर इंसिक्योरिटीज़ और कमतर होने का भाव भर दिया है. फ़िल्म इन्हीं भावों की कम्बल कुटाई करती है. इस कम्बल कुटाई में कहीं-कहीं फिसलती है. स्लो भी होती है. पर अंत तक अपना मैसेज डिलीवर करने में क़ामयाब हो जाती है.
मूवी रिव्यू : Doctor G