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फ़िल्म रिव्यू : बरेली की बर्फ़ी

"अगर शकल देख के लड़कियां शादी करतीं न, तो हिंदुस्तान में आधे लड़के कुंवारे होते."

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फोटो - thelallantop

"हमाई बिट्टी रात-रात भर बाहर रहती है. लड़की है कोई चुड़ैल थोड़ी है."

फ़िल्म बरेली की बर्फ़ी. राजकुमार राव, आयुष्मान खुराना, कृति सेनन, सीमा पाहवा और पंकज त्रिपाठी की मिलीभगत. अश्विनी ऐयर तिवारी का डायरेक्शन. पिछले हफ़्ते आई टॉयलेट के बाद अब बर्फ़ी आई है.

छोटे शहर की छोटी सी कहानी. ऐसी कहानी जिससे दो-चार लोगों से ज़्यादा किसी की ज़िन्दगी पर कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला था. एक बाप है. मिठाई की दुकान जिसका व्यवसाय है. अपनी बेटी बिट्टी को लड़के की तरह नहीं लौंडे की तरह पाला है. यही बात मां को खाए जा रही है क्यूंकि बिट्टी की शादी नहीं हो पा रही है. दो बार बात सगाई तक पहुंची लेकिन फिर मामला लटक गया. लड़की घर से भागने को होती है. स्टेशन पर किताब खरीदती है. लेखक से प्रेम हो जाता है. वापस घर आ जाती है. लेखक उसके शहर बरेली का जो था. सीन में आता है चिराग. आयुष्मान खुराना. उसी ने किताब छापी थी. कहता है कि मिलवायेगा विद्रोही से. विद्रोही यानी लेखक यानी राजकुमार राव. चिराग को बिट्टी पसंद है. बिट्टी को विद्रोही से मिलना है क्यूंकि उसके लिखे से ऐसा मालूम देता है कि वो है जो बिट्टी को समझता था. चिराग को विद्रोही को सीन से निकालना है. प्लानिंग करता है. इसी प्लानिंग को हकीक़त में बदलने की कहानी है 'बरेली की बर्फ़ी'.

फ़िल्म में आज के वक़्त के दिग्गज हैं. वो दिग्गज जिनपर 400-500 करोड़ की बारिश तो नहीं होती लेकिन उन्हें पसंद किया जाता है. उन्हें स्क्रीन पर देखकर अच्छा लगता है. सुकून रहता है कि सब कुछ ठीक चलेगा. आयुष्मान खुराना छोटे शहर के 'नॉर्मल' लड़के के रोल में बहुत सही बैठते हैं. इससे पहले उन्हें दम लगा के हईशा में ऐसे ही रोल में देखा गया था. उसके पहले विकी डोनर में भी दिल्ली के एक पंजाबी मोहल्ले के लड़के रोल के साथ उन्होंने फिल्मों में डेब्यू किया था और उन्हें उस रोल के लिए दबा के वाहवाही मिली थी.

ayushman khurana bareilly ki barfi

राजकुमार राव फ़िल्म के सेकंड हाफ़ में छाए रहते हैं. शुरुआत में उनकी एक झलक दिखती है लेकिन उनकी एंट्री फ़िल्म में बहुत बाद में होती है. लेकिन जब वो स्क्रीन पर होते हैं तो वही होते हैं. इस फ़िल्म के लिए उन्हें चुम्मा मिलना चाहिए.

Rajkumar Rao Bareilly ki barfi

पंकज त्रिपाठी के लिए बहुत सारे ऐक्टर की तरह गैंग्स ऑफ़ वासेपुर वरदान साबित हुई है. अब उन्हें खूब देखा जाने लगा है. हाल ही में आई गुड़गांव के बाद वो फिर से दिखाई दे रहे हैं. और क्या खूब दिखाई दे रहे हैं. एक सीधा-सादा बाप जो मुंह में पुड़िया भरे निचले जबड़े को उठाए आधे खुले मुंह से बात करता है. उसे बिना सिगरेट के टट्टी नहीं आती है.

pankaj tripathi bareilly ki barfi

और सीमा पाहवा. एकदम देसी मां. सेट हो चुकी हैं. आंखों देखी में जैसी गज़ब की थीं, वैसी ही. जब कहती हैं, "जाओ उधर सब काम करो. काहे हमारे सर पे नाच रहे हो?" तो लगता है अपनी ही मां ने बोला है. छोटे शहरों की मां ज़रा सा परेशान होती हैं तो खुद को पागल घोषित कर देती हैं. "अरे हम तो पगला जाएंगे अब, बताये दे रहे हैं." सीमा पाहवा वही मां हैं. बस बिटिया की सिगरेट पीने की आदत, रात-रात भर घूमने की आदत और उसकी शादी न हो पाने की वजह से परेशान हैं. उन्हें परेशान ही रहना चाहिए. परेशान होती हैं तो बहुत मज़ा आता है.

seema pahwa bareilly ki barfi

पिछले दिनों में एक अच्छी बात ये हुई है कि फ़िल्म में दिखाए जा रहे माहौल के साथ खिलवाड़ नहीं किया जाता है. शायद बरेली, लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, पटना, भागलपुर जैसी जगहों के लोगों के फ़िल्म इंडस्ट्री में पहुंच जाने का ये असर है. अब शायद ये समझ डेवेलप हो गई है कि छोटे शहर, शहर के लोग और आस पास के माहौल को कैसे और कैसा दिखाना है. ये बात टॉयलेट: एक प्रेम कथा में भी देखने को मिली थी. कम से कम मुझे ये सोच के सुकून मिलता है कि लखनऊ के नाम पर खालिस नखलऊ ही दिखाया जा रहा है. बस जहां विद्रोही जी ये कहते हैं "भइय्या ये लखनऊ है यहां बात-बात पर गोली चल जाती है." वहां दिल में एक हूक सी उठती है. लखनऊ में ये सब नहीं होता है बे! चिलचिलाती गरमी में उल्टी साइड से आती बाइक एक साहिबजादे की ऐक्टिवा में घुसने ही वाली थी. दोनों ने ब्रेक मारे. ऐक्टिवा वाला पान की पीक अन्दर गटक के बोला, "अमां बड़े भाई अभी तो खेल हो जाता. हमने संभाल लिया. एक काम करना, घर जाके शिकंजी पी लेना. पेल के लू चल्लई है." और आगे बढ़ गया. ये लखनऊ है. विद्या कसम.

इसके अलावा एक अच्छी बात ये है कि बहुत वक़्त के बात अच्छे गानों वाली फ़िल्म आई है. लल्लनटॉप के दोस्त पुनीत शर्मा का लिखा बैरागी गुनगुनाने का मन करता है. बाकी गाने भी मस्त हैं. अच्छी बात है कि अझेल नहीं हैं. साथ ही और भी अच्छी बात ये है कि फ़िल्म में गानों की मौजूदगी ज़बरदस्ती की नहीं है. गाना आता है और चला जाता है, असुविधा नहीं होती.


एक बात जो इस फ़िल्म में की गई है वो है कि एक छोटी समझ और मानसिकता वाले छोटे शहर के एक बाप को बाकी के बापों से अलग दिखाया है. वो अपनी इकलौती बेटी को बिटिया बनाकर नहीं रखता. वो परेशान होती है तो उससे बात करता है और चुपके से पूछ लेता है कि क्या वो सिगरेट पियेगी. मोहल्ले के किसी लड़के की बाइक पर लड़की को बैठे देखता है तो जानकारी कर लेता है कि लौंडा है कौन जो कौव्वे जैसा दिख रहा है. और जाते-जाते सौ का नोट थमाते हुए धीमे से कह देता है, "सीट पर पांव एक ही साइड करके बैठ जाया करो." बिट्टी आंखें दिखा देती है और बाप मुस्कुरा देता है. आप यहां सब कुछ समझ जाते हैं. साथ ही पंकज त्रिपाठी के प्यार में पड़ जाते हैं.


फ़िल्म मज़ेदार है. फ़िल्म स्पीड पकड़ने में 20 मिनट का टाइम लेती है लेकिन फिर मौज ही मौज रहती है. एक बार राजकुमार राव आ जाते हैं फिर कोई दिक्कत ही नहीं रहती. फ़िल्म सार्वभौमिक है. सभी के लिए है. दोस्तों के साथ जाओ चाहे मम्मी के साथ, मज़ा वही है. देख के आई जाए और झुमका छोड़ बरेली की बर्फ़ी ढूंढी जाए.

 

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