मूवी की शुरुआत में विजू खोटे को श्रद्धांजली भी दी गई है.
# 99 का फेर
सुधीर एक कैरेक्टर आर्टिस्ट था. फ़िलहाल बूढा है. इसलिए एक्टिंग छोड़ी हुई है. एक्टिंग छोड़ने का कारण एक स्कैंडल भी है. एक इंटरव्यू के दौरान उसे पता चलता है कि वो आज तक 499 मूवीज़ कर चुका है. यूं वो राउंड फिगर के वास्ते फिर से एक्टिंग में उतरना चाहता है. सुधीर एक लड़की का पिता और एक लड़की का नाना भी है. लेकिन रहता अकेले ही है. बावज़ूद इसके कि बेटी और पोती दोनों ही उसके लिए केयरिंग हैं. प्रेम सुधीर भी उनसे करता है, लेकिन वर्क लाइफ बैलेंस नहीं बना पाता और यूं दोनों को दिक करता आया है. कर रहा है.

क्या सुधीर 99 के फेर से बाहर निकल पाता है? क्या उसकी लाइफ का तराजू, रील और रियल लाइफ के पालों में बैलेंस बना पाता है? उत्तर है, हां भी और नहीं भी. कैसे और क्यूं? उत्तर है, मूवी देखिए.
# एक्टिंग में सब इक्कीस
सुधीर का किरदार निभाने वाले संजय मिश्रा को एक्टिंग करने की एक्टिंग करनी थी. ये थोड़ा मुश्किल काम है. क्यूंकि आप बुरी एक्टिंग तो खैर कर ही नहीं सकते, लेकिन आपको परफेक्ट एक्टिंग करने से भी बचना है. ये एक तलवार की धार पर चलने सा है, और ये कैसे किया जाता है, जानने के लिए आपको ‘कामयाब’ का वो सीन देखना होगा जिसमें संजय मिश्रा की उंगलियां तलवार की धार पर चल रही हैं. लिटररी. और सीन खत्म होने के बाद उनका कूल होकर कहना- ओके करते हैं.

दीपक डोबरियाल, दिनेश गुलाटी बने हैं. कास्टिंग डायरेक्टर. प्रफेशनल नज़र आते हैं. इसलिए कामयाब भी हैं. उनका रोल महत्वपूर्ण था और उनकी एक्टिंग बेहतरीन. मूवी में जब पहली बार सुधीर और दिनेश मिलते हैं, उस सीन को देखकर क्लियर हो जाता है कि लगता है कि दीपक डोबरियाल कितने नेचुरल हैं.
# दर्शकों से कनेक्शन
मूवी की कुल जमा फील ‘हार्ट ब्रेकिंग’ है. एक पॉज़िटिव सी उदासी सेवेंटी एमएम में छाई रहती है. कई जगह लगता है कि काश मूवी का किरदार ये कर लेता, तो ऐसा नहीं होता. या ये नहीं करता, तो ऐसा हो जाता. और जब किसी मूवी में दर्शकों को ऐसा लगे तो वहीं पर मूवी सफल हो जाती है. क्यूंकि इससे सिद्ध होता है कि दर्शक किरदारों से रिलेट कर पाते हैं.
हालांकि ‘कामयाब’ में दर्शक किरदारों से रिलेट तो कर पाते हैं लेकिन उनके इमोशंस से कम कनेक्ट कर पाते हैं. जैसे वो सीन जब सुधीर अपनी पड़ोस की लड़की के साथ बैठा हुआ अपनी बीवी को मिस कर रहा होता है. या वो सीन जब अपनी 500वीं मूवी के पहले सीन में सुधीर को दो दर्ज़न से ज़्यादा रिटेक देने पड़ते हैं. इन सब सीन्स के इमोशन कोशेंट का घड़ा तो बहुत बड़ा था लेकिन था ये आधा भरा. मतलब ये कि इन सब सीन्स में काफी पोटेंशियल था, पर ये उतने इमोशनल हो न सके.

हो सकता है कि दर्शकों को मूवी का क्लाइमेक्स कुछ अधूरा लगे, या लगे उसमें कुछ मिसिंग है. लेकिन इस मूवी पर ऐसा ही क्लाईमैक्स फबता. एक सर्कल पूरा करता हुआ. साथ ही इतनी नेचुरल मूवी की अगर एंडिंग थोड़ा सा हाई हो जाता तो वो एंडिंग ऑर्गनिक नहीं लगती. रियल नहीं लगती.
मूवी की शुरुआत एक टीवी प्रोग्राम से होती है. मूवी स्टार्स की बायोग्राफी पर बेस्ड. इसे देखते हुए आपको वो सारे प्रोग्राम याद आ जाते हैं, जो आपने देखे हैं. किसी एक्टर के बारे में जानने के लिए. ये बहुत रियल लगता है. सुधीर के इंटरव्यू के दौरान कैमरामेन अपने मोबाइल पर लगा रहता है. ये भी बहुत रियल लगता है. हमने देखा है तजुर्बा करके. डायरेक्टर हार्दिक मेहता का मूवी को रियल रखने का आग्रह इसे कलात्मक बना ले गया है. उन्हें इस सबके लिए रिसर्च भी काफी करनी पड़ी होगी. हालांकि ये मूवी, एक सेल्फ रेफरेंस लगती है तो कुछ चीज़ें टेक्निकल स्तर पर आसान हो गई होंगी.
# एक डायलॉग का करियर
विजू खोटे का एक डायलॉग था- गलती से मिस्टेक हो गया. ऐसे ही ए के हंगल का एक डायलॉग था- इतना सन्नाटा क्यूं है भाई? खुद संजय मिश्रा का एक डायलॉग है- धोंडू जस्ट चिल. अच्छा है कि सिर्फ एक डायलॉग से ये सारे कैरेक्टर आर्टिस्ट पहचान में आ जाते हैं. लेकिन बुरा ये है कि ज्यादातर कैरेक्टर आर्टिस्ट के पास सैकड़ों फ़िल्में कर चुकने के बावज़ूद, एक हिट डायलॉग से ज़्यादा कुछ नहीं होता. याद कीजिए, ‘अतिथि कब जाओगे’ के वो सीन्स, जिसमें विजू खोटे से कई बार, इरिटेशन की हद तक, पूछा जाता है- कितने आदमी थे?
पता नहीं इसने ह्यूमर कितना क्रियेट किया, लेकिन डीप डाउन आपको उदास ज़रूर कर गया. यही हाल ‘कामयाब’ में- एंजॉइंग लाइफ और ऑप्शन क्या है!’ डायलॉग का है.

‘कामयाब’ मूवी में एक और डायलॉग है-
ओम पुरी की जगह खाली है, परेश चले गए पॉलिटिक्स में, नसीर भाई लगे हैं थिएटर में, अनुपम लगे रहते हैं ट्विटर में...ये जितना चुटिला है उतना ही मूवी को अपनी सेंट्रल थीम पर फोकस्ड रखता है. यूं इस मूवी के डायलॉग्स की अच्छी बात ये है कि वो रियलिस्टिक होते हुए भी हिटिंग हैं. कभी सटायर, कभी इमोशन और कभी ह्यूमर पैदा करते हैं.
'कामयाब' मूवी में म्यूज़िक और लिरिक्स अगर वैल्यू एडिशन नहीं करते, तो कहानी की लय में व्यवधान भी नहीं बनते.
मूवी के प्रोडक्शन वाले खाने में रेड चिलीज़ लिखा है. शाहरुख़-गौरी की प्रोडक्शन कंपनी. हालांकि वो इस मूवी में शुरुआत से नहीं जुड़े थे. जैसे 'पीपली लाइव' से आमिर खान बाद में जुड़े. छोटे बजट की मूवीज़ का बज़ बनाने के लिए ये एक अच्छी प्रेक्टिस है.

# देखें ही देखें
इसके पहले भी कैरेक्टर आर्टिस्ट्स को सेंटर में रखकर ‘मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं’ और ‘ओम शांति ओम’ जैसी फ़िल्में बनी हैं. लेकिन ऐसा नहीं था कि वे फ़िल्में सिर्फ कैरेक्टर आर्टिस्ट के स्ट्रगल को ही पोट्रे कर रही हों. 'कामयाब' इस मुहाज़ पर एक रेयर फिल्म साबित होती है. इसलिए बिना कोई कन्फ्यूजन पाले देख सकते हैं. देख ही डालिए.
वीडियो देखें:
गिप्पी ग्रेवाल ने बताया कैसे करते हैं, इंटरनेशनल सोशल मीडिया स्टार्स के साथ कोलैबरेशन-