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इमामदस्ता : जब रोहित शेट्टी की 'गोलमाल' से मिल जाए 'जाने भी दो यारों' (फ़िल्म रिव्यू)

नवोदित फिल्ममेकर रिज़वान सिद्दीकी की प्रभावशाली movie IMAMDASTA देश के चुनिंदा सिनेमाघरों में लगी है. ये एक satire black comedy है और Jaane Bhi Do Yaaro की धारा से आती है. पढ़ें इस अंडरडॉग मूवी का हमारा रिव्यू.

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फ़िल्म का मि. बीन नुमा पात्र जां निसार अख़्तर/अहमद एक विचित्र मनस्थिति का धनी है. उसे समझ पाना किसी के बस का नहीं.

 रेटिंग - 3.5 स्टार 

"इमामदस्ता" एक ऐसी फ़िल्म है मानो रोहित शेट्टी की "गोलमाल", कुंदन शाह की "जाने भी दो यारों" से भेंट कर रही हो.

पहली बार के फिल्ममेकर रिज़वान सिद्दीकी ने इसकी कहानी, स्क्रीनप्ले और चुटीले डायलॉग लिखे हैं. वे ही इसके डायरेक्टर भी हैं.

ये दो लड़कों की कहानी है. मनोज (राकेश शर्मा) और फिरोज़-उल्ला (सहर्ष कुमार शुक्ला). पहला वाला निंफोमेनियाक (कामुक क्रीड़ाओं का प्रेमी) बेरोज़गार है. दूसरा पत्रकार है और उसूलों के चलते बेरोजगार है. उनके साथ आगे क्या क्या होता है, ये हम देखते हैं. कहानी से हंसी के एक और लहर आ टकराती है जब दो संदिग्ध से लगने वाले लोग उनके यहां मेहमान बनकर आ जाते हैं.  

इसमें जां निसार अहमद/अख़्तर का रोल करने वाले अभिनेता (जयशंकर पांडे) तो नगीना हैं. न जाने कहां छुपे थे. वो "मेक जोक ऑफ" के फनी एनिमेटेड वीडियो से निकले कोई पात्र लगते हैं.

ये चैपलिन का एक कमाल का वेरिएशन लिए पात्र है जो स को श बोलता है. सर को शर.
 
कितने सुंदर संवाद है. एक सीन में जां निसार अख़्तर अपने मेज़बान युवकों से पूछता है - "ज़रा सी नील है क्या? वो सफेद कपड़े हैं न, खिलखिला उठते हैं नील से." वो अपनी चड्डी को सुखाकर जैसे सर्फ की गंध सूंघता है, वो अद्भुत है.

इन दोनों की खातिरदारी में मनोज और उल्ला कैसे एक-एक रुपये के मोहताज होते हैं, उनकी ये तंगहाली कभी कोई फिल्म इतने सच्चे अर्थों में दिखा न पाई.

"इमामदस्ता" एक टिपिकल कॉमेडी है. इसमें ब्लैक ह्यूमर के भी स्पर्श हैं. कहीं कहीं ये नाशर्मसारी के साथ अल्हड़ और वयस्क होती है, कहीं कहीं ये मैसेज भी देती है.

इसका पत्रकार पात्र उल्ला तेज़ाब उगलता है. तंग रहता है कि समाज प्रगति क्यों नहीं करता. समाज धर्मांधता में क्यों फसा है.

ये फिल्म मीडिया की आलोचना भी करती है. हर धर्म के बाबा लोगों की भी. समाज की विभिन्न बातों पर व्यंग्य से इसका स्क्रीनप्ले भरा है. 

हिंदी और अवधी भाषा इसमें प्रमुखता से है. उत्तर प्रदेश के लिंगो को कमाल से पकड़ती है, जिससे बॉलीवुड की करोड़ बजटी फिल्में अछूती रहती हैं. इस फिल्म का स्थानीय तत्व एक विरली बात है.

इसकी वो विचित्र कॉमेडी कामयाब रहती है, जिसकी फ़िराक़ में अक्सर साजिद-फरहाद (एंटरटेनमेंट, हाउसफुल 3, हाउसफुल 4) की जोड़ी रही है. तमाम सदिच्छा के बावजूद वे इसमें कामयाब नहीं हो पाए.  

इस फिल्म के सामने कुछ स्थितियां हैं जिनके चलते वो मुख्यधारा की आम हिंदी फिल्मों से थोड़ा कमतर दिखती है.

पहला तो इसके डायरेक्टर-राइटर रिज़वान की पहली फीचर फिल्म है. दूसरा, इसमें कोई स्टार या स्टार-एक्टर नहीं है. सब नए चेहरे हैं. प्रोडक्शन के लिए इसने सीमित संसाधनों में अपनी कहानी कही है. इसमें पूरी तरह स्थानीय संसाधनों का इस्तेमाल किया गया है. इन सब कारणों से फिल्म की प्रोडक्शन वैल्यू में एक तरह का डिसएडवांटेज रहता है लेकिन इसके बावजूद ये आपको ज्यों हंसाती जाती है और अंत तक इंगेजिंग बनी रहती है, वो अनूठी उपलब्धि है.

थोड़ा उल्टी-पॉटी ह्यूमर है, गली मुहल्ले वाला अनसेंसर्ड ह्यूमर है, लेकिन ये वर्क करता है. जैसे मनोज बाजपेयी की "सात उचक्के" (डायरेक्टर संजीव शर्मा) में करता है.

फ़िल्म में इतनी हंसी है कि एक सीन में एक पेशेंट को उल्टी-दस्त लग रही होती है. आधी रात को डॉक्टर के पास ले जाते हैं. उसकी और उसके साथियों की हरकतें ऐसी होती हैं कि डॉक्टर भी हंसने लगता है. लगता है वो सीन में अपने किरदार में नहीं, असल में हंसी रोक नहीं पाता.

थोड़ा कम जज करते हुए, कम निर्मम होते हुए, कुछ ओपननेस के साथ देखें तो ये "इमामदस्ता" कूटकर मजा-मसाला ज़रूर देगा.    

("इमामदस्ता" 16 फरवरी को देश के कुछ सिनेमाघरों में रिलीज हुई है. आगे ओटीटी पर आएगी.)

Film: Imamdasta । Director: Rizwan Siddiqui । Cast: Saharsh Kumar Shukla, Rakesh Sharma, Jayshankar Pandey, Raju Pandey, Sandeep Yadav, J. P. Pandey, Abhijeet Sarkar । Run Time: 2h 22m