प्राइम वीडियो पर जूही चावला की कमबैक सीरीज़ 'हश हश' 22 सितंबर से स्ट्रीम होने लगी है. देखते हैं क्या है इसके अंदर? कैसी है सीरीज़?
वेब सीरीज़ रिव्यू: हश हश
इस सीरीज़ को जूही चावला का कमबैक कहकर प्रचारित किया गया. पर ये उनका बहुत हल्क़ा कमबैक है.


गुरुग्राम में एक अमीरों की सोसाइटी हैं. उनका बाहरी दुनिया से मतलब ना के बराबर है. सोसाइटी अपर क्लास में ही उठती बैठती है. वहीं रहती हैं ईशी संघमित्रा. वो एक लॉबियीस्ट हैं. उनकी बड़े-बड़े लोगों से जान पहचान है. उनके पचड़े भी बड़े हैं. उनका जीवन एक रहस्य है. ईशी की तीन दोस्त हैं डॉली, साइबा और ज़ायरा. उनकी लाइफ की भी अपनी समस्याएं हैं. डॉली अपनी सास से परेशान है. पति शराब के नशे में डूबा रहता है. साइबा अपना पत्रकारिता का पेशा छोड़ चुकी है. अपने बच्चों में व्यस्त है. ज़ायरा एक सफल फैशन डिजाइनर है. वो अपने पति से अलग हो चुकी है. उसकी लाइफ में भी कोई ख़ास शांति नहीं है. उसकी असिस्टेंट मेहर ही उसकी लंका लगाने में लगी हुई है. इन परेशानियों के बावजूद सबकुछ ठीक चल रहा होता है. पर अचानक एक के बाद एक दो मौतें उनकी ज़िंदगी बदल देती हैं. फिर इन्वेस्टिगेशन के लिए सीन में एंट्री होती है इंस्पेक्टर गीता की. जैसे-जैसे सीरीज़ आगे बढ़ती है, कहानी की कई परतें खुलती हैं. तमाम किरदार जुड़ते चले जाते हैं. अंत तक इतने किरदार हो जाते हैं कि नाम याद रखना कठिन हो जाता है. पर डायरेक्टर तनुजा चंद्रा, कोपल नैथानी और आशीष पांडे ने इस पज़ल्ड कहानी को सरल रखने की कोशिश की है. तनुजा ने सात में से चार, कोपल ने दो और आशीष ने 'हश हश' का एक एपिसोड डायरेक्ट किया है. लिखाई का क्रेडिट चार लोगों में बंटा है, शिखा शर्मा, आशीष मेहता, तनुजा चंद्रा और जूही चतुर्वेदी.
'हश हश' क्राइम थ्रिलर टाइप्स बिहेव करने की कोशिश करती है. कुछ मामलों में ख़ुद को इन्वेस्टिगेटिव ड्रामा भी प्रूव करना चाहती है. पर ढंग से कुछ बन नहीं पाती. दोस्ती, प्रेम, राजनीति और रिश्तों के तामझाम को भी समेटने की कोशिश करती है. यहां कुछ हद तक सफल होती है. हर किरदार की पर्सलन लाइफ की समस्याओं को ढंग से पर्दे पर पेश करती है. पर।कई सवाल भी छोड़ जाती है. ईशी इतनी बड़ी शख्सियत कैसे बन गई. उसकी पूरी कहानी नदारद है. सीरीज़ का लगभग हर एपिसोड फ्लैशबैक से शुरू होता है और उसमें घटित घटनाओं या किसी डायलॉग को वर्तमान से जोड़ता है. जो अच्छा लगता है. कई मामलों में सीरीज़ अतार्किक भी होती है. खासकर पुलिस इन्वेस्टिगेशन में. इस हिस्से को और ढंग से एक्सप्लोर करने की ज़रूरत थी.
शुरू के तीन एपिसोड सही गति से चलते हैं. उसके बाद सीरीज़ खुद को किसी चोटिल पैर की तरह ज़मीन पर घसीटती है. पांचवें एपिसोड के अंत में फिर से खुद के नाम 'हश हश' को थोड़ा बहुत जस्टीफाई करने की कोशिश करती है. आख़िरी एपिसोड में सबकुछ जल्दी-जल्दी रिवील कर देना चाहती है. पर एंड में ख़ुद को रोक लेती है और दूसरे सीज़न की गुंजाइश छोड़कर विदा लेती है. इसके डायलॉग्स जूही चतुर्वेदी ने लिखे हैं. कुछ-कुछ डायलॉग्स बहुत अच्छे बन पड़े हैं. उनमें विट है और साथ ही साथ मेसेज भी. पर प्रीची कहीं से नहीं लगते. जैसे: ‘दुःखी होने के लिए कोई छोड़े ही पैदा होता है. अगर वो दुःखी है, तो खुश रहना उसकी रिसपॉन्सिबिलिटी है.’ या फिर मर्दवादी सोच को एक्सपोज करता ये डायलॉग: ‘एक औरत को अपने हसबैंड, नहीं तो फादर, नहीं तो बेटे, इस तीनों में से किसी एक का कंधा पकड़कर रखना होता है. ताक़त उनकी अपनी नहीं हमसे आती है.’
इस सीरीज़ को जूही चावला का कमबैक कहकर प्रचारित किया गया. पर ये उनका बहुत हल्क़ा कमबैक है. हालांकि वो कहानी की एंकर हैं. फिर भी उनको स्क्रीन टाइम बहुत कम मिला है. उनकी एक्टिंग भी ओके-ओके है. उनकी दोस्त बनी सोहा अली खान ने भी कुछ ख़ास काम नहीं किया है. हां, कृतिका कामरा और शहाना गोस्वामी ने बढ़िया काम किया है. इसमें आयशा झुलका भी हैं. पर उनका काम भी एवरेज है. फ़िल्म में जिसका काम सबसे बेहतर है, वो हैं करिश्मा तन्ना. उन्होंने बहुत शानदार काम किया है. वो इस सीरीज़ की हासिल हैं. बाक़ी के जितने ऐक्टर्स हैं उन्होंने अपने हिस्से का ठीक काम किया है. जैसे कि पहले भी बताया था कि नए-नए किरदार इंट्रोड्यूज होते रहते हैं. अंत में भी एक जावेद ज़ाफ़री का किरदार दस्तक देता है. जो सम्भव है अगले सीज़न की भूमिका है. जावेद ज़ाफ़री अंत में एक शेर बोलते हैं:
रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई
तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई
यही इस सीरीज़ के बारे में भी कहा जा सकता है. थोड़ा बेहतर एंडिंग की उम्मीद थी. बाक़ी प्राइम पर है, मन करे देख लीजिए. नहीं भी देखेंगे तो कुछ ख़ास मिस नहीं होगा.