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सनी देओल की 'अर्जुन' के किस्से, जिसकी कहानी टॉयलेट पेपर और बाथरूम की दीवारों पर लिखी गई

इसी फिल्म ने सनी देओल को एक्शन हीरो बनाया. फिल्म के एक कालजयी सीन को बनाने में एक हज़ार जूनियर आर्टिस्ट और दो हज़ार छाते लगे थे. उसके पीछे की कहानी जानिए.

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'अर्जुन' ने सनी देओल को एक्शन हीरो बना दिया था.

साल 1982 में दिलीप कुमार-अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘शक्ति’ आई थी. उसके बाद सलीम-जावेद की जोड़ी ने अलग होने का फैसला कर लिया. जावेद अख्तर ने एक दिन सलीम खान से कहा कि अलग काम करना चाहता हूं. जावेद उन्हें दरवाज़े तक छोड़ने आए. ये वही रात थी जब सलीम ने कड़वाहट के साथ कहा था, “अभी इतना बूढ़ा नहीं हुआ कि अकेले न चल सकूं”. खैर इन दोनों राइटर्स की जोड़ी भले ही अलग-अलग काम करने लगी. लेकिन इन्होंने साथ मिलकर जो रचा वो कहीं गायब नहीं होने वाला था. इनकी रचनाओं में से सबसे पॉपुलर था – द एंग्री यंग मैन. अस्सी के दशक में अमिताभ वो इंटेंस, गुस्सैल लड़के नहीं रहे जिसके जिगर में सदा एक आग दहकती थी. 

इस दशक को अपना नया ‘विजय’ मिलने वाला था. ‘अर्जुन’ के रूप में. साल 1985 में ये फिल्म रिलीज़ हुई. लिखा था जावेद अख्तर ने. देखते वक्त आपको अर्जुन में ‘दीवार’ के दोनों भाई मिलेंगे. पढ़ा-लिखा है, नौकरी चाहिए. पढ़ाई के कागज़ पूरे हैं, बस उनके बीच दबा रेफ्रेंस का पर्चा नहीं. दूसरी ओर उसे उसके पिता ने निराश किया है. वो पिता. जो ज़रूरत पड़ने पर आगे नहीं आते. सच बोलने की हिम्मत नहीं रख पाते. उन नेताओं ने उसके साथ बुरा किया, जिन्होंने कभी राष्ट्र-निर्माण के सपने दिखलाए थे. अर्जुन मालवनकर इन दोनों दिशाओं का संगम था. ‘अर्जुन’ ऐसे समाज और ऐसी व्यवस्था का रूपक था, जो सोशलिज़्म के मानकों पर खरा नहीं उतर पाया. न ही कैपिटलिज़्म को ठीक से अपना सका. 

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जावेद अख्तर ने ऐंग्री यंग मैन को नई आवाज़ दी.  

‘अर्जुन’ को बनाया था राहुल रवैल ने. यही वो फिल्म थी, जिसने सनी देओल को एक्शन हीरो बनाया. ऐसा एक्शन हीरो, जिसे आंतरिक हिंसा दर्शाने के लिए चीखने-चिल्लाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. ‘अर्जुन’ वो फिल्म थी, जिसके बाद रीमेक्स की बाढ़ आ गई. आज भी हिंदी फिल्मों में इसकी छाप देखी जा सकती है. फिल्म के छाते वाले सीन पर इम्तियाज़ अली के अंदर का फैनबॉय फुदककर बाहर आने लगता है. समय के बढ़ते चक्र ने ‘अर्जुन’ के साथ इंसाफ ही किया. फिल्म ने अपनी कल्ट किस्म की जगह बना ली. इसके बनने की कहानी भी किसी फिल्म से कम नहीं थी. इसमें दाऊद इब्राहीम था, टॉयलेट पेपर पर लिखी कहानी थी, एक ऐसा गाना था जिसकी वजह से फिल्म बनी, साथ ही था एक गुजराती थिएटर कलाकार जो आज तक हम सबको एंटरटेन करता आ रहा है. ‘अर्जुन’ के सुने-अनसुने किस्सों से थोड़ा और रूबरू होते हैं. 

# पहले गाना आया, फिल्म बाद में बनी 

राहुल रवैल ने सनी देओल की पहली फिल्म ‘बेताब’ बनाई थी. उसे भी जावेद अख्तर ने ही लिखा था. प्रोड्यूसर थे करीम मोरानी. करीम ‘बेताब’ पर हो रहे काम से खुश थे. वो अपनी अगली फिल्म भी इसी टीम के साथ बनाना चाहते थे. राहुल रवैल और जावेद अख्तर को हरी झंडी मिल चुकी थी. उन्होंने एक कहानी पर काम करना शुरू कर दिया. जावेद उस पॉइंट तक फिल्मों के लिए गाने भी लिखने लगे थे. उन्होंने इस कहानी के लिए एक गाना लिखा – ‘ममैया केरो केरो’. दरअसल ये एक ब्राजील के पुराने गाने से प्रेरित था. उस गाने का नाम था - Mamãe Eu Quero. राहुल रवैल को गाना पसंद आया. आर डी बर्मन को म्यूज़िक बनाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. 

गाना बनकर रेडी हुआ. इसे गाया था शैलेन्द्र सिंह ने. सभी गाने पर एक मत थे कि ये फिल्म में खूब जंचेगा. जावेद अख्तर उस दौरान एक ड्रामा कहानी रच रहे थे. प्लान था कि लीड रोल में ऋषि कपूर को लिया जाएगा. ऋषि और राहुल बचपन के दोस्त थे. साथ ही राहुल ने उनके पिता राज कपूर को असिस्ट भी किया था. जावेद अख्तर भले ही इस कहानी पर काम कर रहे थे. लेकिन वो इससे संतुष्ट नहीं थे. राहुल की कल्पना में भी ये कहानी पन्नों से पर्दे तक दमदार तो नहीं ही लग रही थी. दोनों ने इसे डिब्बे में बंद करना सही समझा. दोनों नई कहानी पर काम करना चाहते थे. खर्चा उठाने वाले प्रोड्यूसर तक अपडेट पहुंचा दिया गया. 

करीम को कोई समस्या नहीं थी. बस उनकी एक शर्त थी. फिल्म कोई भी हो, उसमे ‘ममैया केरो केरो’ गाना रखना ही होगा. राहुल और जावेद अख्तर को इस शर्त पर ऐतराज़ नहीं था. बस वो एक ऐसी दुनिया तक पहुंचना चाह रहे थे, जिसमें ये गाना फिट हो सके. उन्हें ऐसी कहानी मिली. लेकिन उसके हीरो ऋषि कपूर नहीं हो सकते थे. उन्हें विनम्रतापूर्वक मना कर दिया गया. 

# जब जावेद अख्तर ने टॉयलेट पेपर पर फिल्म लिख डाली 

राहुल रवैल और जावेद अख्तर को पता था कि उन्हें कैसी कहानी नहीं बनानी है. असली स्ट्रगल अब शुरू होने वाला था. वो अपनी कहानी ढूंढने की कोशिश कर रहे थे. राहुल बताते हैं कि उन लोगों ने छह महीनों तक आइडियाज़ पर काम किया. लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकला. एक बार जावेद अख्तर और राहुल रवैल काम करने के लिए लोनावाला गए. वहां फरियास होटल बुक कर लिया गया. वहां पहुंचकर भी कोई जादू नहीं घटा. एक महीने सिर खपाने के बाद भी कहानी नहीं मिली. 

जावेद अख्तर की लिखी फिल्म ‘सागर’ की शूटिंग शुरू होनी थी. उन्होंने सुझाया कि अब इस काम से ब्रेक लिया जाए. शूटिंग पर जाते हैं. लौटकर कहानी खोजने के काम पर नए सिरे से काम शुरू किया जाएगा. राहुल रवैल को भी इस सुझाव से दिक्कत नहीं थी. दोनों ने होटल में घंटों चर्चा में स्वाहा कर दिए. लेकिन उनकी कहानी पहुंची इतवार के अखबार में सिमटकर. एक सुबह राहुल और जावेद अख्तर नाश्ता कर रहे थे. तब जावेद ने उन्हें टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे आर्टिकल के बारे में बताया. ये आर्टिकल बॉम्बे में बढ़ रहे यंग क्रिमिनल्स पर था. इसमें दाऊद इब्राहीम और पठान गैंग से जुड़े लोगों के नाम था. आर्टिकल में बताया गया कि कैसे ये लोग एक समय पर छोटे-मोटे क्रिमिनल थे. चोरी-चकारी करते. लेकिन नेताओं ने अपने फायदे के लिए इन्हें खतरनाक गैंगस्टर बना दिया. दोनों ने आर्टिकल पढ़ा. प्याले में रखी चाय ठंडी पड़ चुकी थी. फिज़िक्स के नियमानुसार दिन ढलने को आया. दोनों अपने-अपने कमरों में जाकर सो गए. 

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‘अर्जुन’ के सेट पर सनी देओल, राहुल रवैल और डिम्पल कपाड़िया. 

तभी देर रात किसी ने राहुल रवैल का दरवाज़ा खटखटाया. सामने जावेद अख्तर थे. उस वक्त घड़ी की सुई कहां घूमी हुई थी, इसे लेकर अलग-अलग वर्ज़न मिलते हैं. राहुल ने एक जगह बताया कि सुबह के 4:30 बजे थे. कहीं ये समय रात के तीन बजे थे, तो कहीं रात के डेढ़ बजे. हालांकि इसके आगे जो हुआ, उसका सिर्फ एक ही वर्ज़न पढ़ने को मिलता है. देर रात जावेद अख्तर उनके पास आए. उन्हें अपने कमरे में बुलाया. कहा, 

मैं आपको एक कहानी सुनाना चाहता हूं. आप बस सुनिएगा. रिएक्ट मत कीजिएगा.

अगले दो से तीन घंटे राहुल रवैल सिर्फ सुनते रहे. जावेद अख्तर ने पहले सीन से लेकर आखिरी तक की कहानी उन्हें सुना डाली थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इस आदमी ने दो घंटे में पूरी फिल्म कैसे लिख डाली. ‘अर्जुन’ का आइडिया जावेद को सुबह पढे आर्टिकल से ही आया था. ऐसा जवान लड़का, जिसका नेताओं ने अपने हिसाब से फायदा उठाया. ये कहानी पूरी तरह से उनके दिमाग में जमी बैठी थी. बस लिखने के लिए जगह नहीं थी. ये कागज़ों के चिथड़ों पर लिखी गई, तो कभी टॉयलेट पेपर पर. तो कभी बाथरूम की दीवारों पर. राहुल बताते हैं कि जावेद अख्तर ने कहानी को हर मुमकिन जगह लिख डाला था. दोनों होटल के सफाई कर्मचारियों का काम बढ़ाने के बाद पुख्ता कहानी लेकर बॉम्बे लौट रहे थे.      

# एक हज़ार आदमी, दो हज़ार छाते और एक आइकॉनिक सीन

ज़ाकिर खान ने कहा था कि बादल बहुत इम्पॉर्टेंट है. शायद उस वक्त उनका पेट भरा हुआ होगा. वरना कहते कि खाना बहुत इम्पॉर्टेंट है. चाहे दिल्ली के छोले-भटूरे हों या मुंबई का वडा पाव. इस किस्से की शुरुआत होती है एक मशहूर डायरेक्टर और उसके वडा पाव प्रेम से. राज कपूर अपनी अधिकांश फिल्में पुणे में शूट किया करते थे. रहते थे वो चेंबूर में. वहां से पुणे जाने का सीधा रास्ता था. लेकिन वो विक्टोरिया टर्मिनस से डेक्कन क्वीन ट्रेन पकड़ते. वजह थी ट्रेन में मिलने वाला वडा पाव. ये ट्रेन पकड़ने की सॉलिड वजह थी. 

एक बार वो इसी ट्रेन से पुणे जा रहे थे. साथ में थे उनके असिस्टेंट राहुल रवैल. मॉनसून का समय था. ज़ोर की बारिश हो रही थी. ट्रेन एक जगह रुकी. राहुल की नज़र खिड़की से बाहर पड़ी. छाते से छाते टकरा रहे थे. इतने सारे छाते थे कि उन्हें पकड़ने वालों के चेहरे तक नहीं दिख रहे थे. ये इमेज उनके दिमाग में छप गई. ‘अर्जुन’ का एक क्रांतिकारी सीन यहीं से निकलने वाला था. लेकिन सिर्फ इसी सीन से नहीं. ‘अर्जुन’ के छाते वाले आइकॉनिक सीन को बनाने में एक और घटना का हाथ था. राहुल बताते हैं कि वो एक बार अपनी पत्नी के साथ बाहर जा रहे थे. तभी उन्होंने रास्ते में भयावह दृश्य देखा. एक आदमी हाथ में तलवार लिए किसी के पीछे दौड़ा जा रहा था. जैसे उसकी आंखों में खून सवार हो. 

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इस सीन को आगे चलकर डायरेक्टर्स ने अपने-अपने ढंग से ट्रिब्यूट दिया. 

राहुल ने इन दोनों यादों को ‘अर्जुन’ के क्लासिक सीन में उतार दिया. अर्जुन के दोस्त मोहन को मारने के लिए गुंडे आते हैं. बरसात का दिन है. मोहन उनसे जान बचाकर भाग रहा है. भीड़ को चीरते हुए. मोहन और गुंडों के अलावा किसी का चेहरा नज़र नहीं आता. सब ने काले छातों से खुद को ढक रखा है. ‘अर्जुन’ की अधिकांश शूटिंग स्टूडियो में ही हुई थी. इस सीन के लिए एक हज़ार जूनियर आर्टिस्ट्स लाए गए थे. उनके हाथ में दो-दो छाते थमा दिए. एक्टर्स को एक हज़ार जूनियर आर्टिस्ट्स और दो हज़ार छातों को चीरते हुए गुज़रना था. फिल्म में ये जितना आसान दिखा, उतना शूट करने में नहीं था. कभी छातों के कोनों से एक्टर्स की आंख में चोट लग रही थी, तो कभी तलवार से छाते कट जा रहे थे. तीन मिनट का ये सीन शूट करने में दो दिन लग गए.   

राहुल रवैल ने आठ कैमरों का इस्तेमाल कर ये सीन शूट किया. एडिट टेबल पर 126 शॉट्स थे. अपने गुरु राज कपूर को ये सीन दिखाया. उन्होंने बता दिया कि इसे सात कैमरों से शूट किया गया है. ये बात सही थी क्योंकि शूटिंग वाले दिन आठवां कैमरा खराब पड़ गया था.       

 # जब बड़ा राजन हत्याकांड लोगों ने दो बार देखा 

‘अर्जुन’ की कहानी सिर्फ सनी देओल के कैरेक्टर तक सीमित नहीं थी. हम अर्जुन के दोस्तों से भी मिलते हैं. उन्हीं में से एक था चंदर. उसका रोल किया था राजा बुंदेला ने. चंदर के घर की आर्थिक स्थिति बुरी तरह चरमरा चुकी है. ऊपर से ढूंढने पर भी नौकरी नहीं. उसे एक नेता के ज़रिए काम मिलता है. कोर्ट में जाना है. एक नेवल कैडेट की यूनिफॉर्म में. वहां अन्नू की पेशी है. उसे गोलियों से भून डालना है. चंदर यही करता भी है. उसके साथ आगे क्या होता है, ये बताने की ज़रूरत नहीं. 

10 मई 1985 को जब ‘अर्जुन’ रिलीज़ हुई तब ये सीन लोगों को काफी जाना-पहचाना लगा. कुछ ऐसा ही दो साल पहले घट चुका था. कुख्यात गैंगस्टर बड़ा राजन की कोर्ट में पेशी थी. तारीख थी 21 सितंबर 1983. पठान गैंग ने एक हत्यारे को नेवल कैडेट यूनिफॉर्म में भेजा. वो एक मोटी किताब में बंदूक छिपाकर घात लगाए बैठा था. जैसे ही बड़ा राजन को लाया गया, हत्यारे ने कोर्ट के बाहर ही उसके शरीर में गोलियां उतार दी. इसी सीन को बाद में ‘अर्जुन’ में जगह मिली. 

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‘अर्जुन’ के गानों की कैसेट का पोस्टर.  

‘अर्जुन’ सिर्फ सनी देओल और राहुल रवैल के लिए ही मील का पत्थर नहीं बनी. फिल्म के शुरुआती क्रेडिट्स में एक नाम था, जिससे आज हम सभी परिचित हैं. ‘इंट्रोड्यूसिंग परेश रावल एज़ अन्नू’. परेश ओरिजनली कास्ट का हिस्सा नहीं थे. सब किरदार फाइनल हो चुके थे लेकिन अन्नू के लिए कोई नहीं मिला. शूटिंग भी शुरू हो गई. तब भी अन्नू की जगह खाली थी. इस पॉइंट पर करीम मोरानी ने राहुल को परेश के बारे में बताया. उन्होंने हाल ही में परेश का प्ले देखा था. दोनों पुराने दोस्त भी थे. राहुल परेश से मिले. फटाफट स्क्रीन टेस्ट, ऑडिशन हुआ. परेश ने अगले ही पल खुद को कैमरे के सामने पाया. 

‘अर्जुन’ ने उस समय के लड़कों के लिए नई दुनिया खोलकर रख दी. वही लड़के आज अनुराग कश्यप और इम्तियाज़ अली के नाम से जाने जाते हैं. रिलीज़ के 33 साल बाद आज भी ‘अर्जुन’ का सब्जेक्ट रेलेवेंट है. उसे बनाया फ्रेश ढंग से गया है. तभी वो किसी भी पल डेटेड महसूस नहीं होती.   
 

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