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आतंक के खात्मे के लिए बने इन कानूनों का भी अपना ही आतंक है

संजय दत्त से लेकर वाजपेयी तक कितने ही लोग जेल यात्रा कर आए इन कानूनों के चलते.

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AFSPA के खिलाफ़ प्रदर्शन. इमेज सोर्स: EYEZINE.
एक वसीह मुल्क का निजाम चलाने के लिए एक व्यवस्थित क़ानून व्यवस्था का होना बेहद ज़रूरी है. लेकिन कई बार कुछ क़ानून इतने कड़े होते हैं कि उनको पूरी तरह कबूलना मुश्किल हो जाता है. ख़ास तौर से देश और देशवासियों की सुरक्षा को लेकर बनाए गए कानून. आज कुछ ऐसे ही कानूनों पर नज़र डालेंगे, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन की बॉर्डर-लाइन पर खड़े मिलते हैं. जिनके पक्ष और विपक्ष दोनों में बड़े ही दमदार तर्क सुनने को मिलते हैं. कुछ एक क़ानून तो आलोचना की कड़ी मार झेल कर भी चले जा रहे हैं. कुछ ख़त्म कर दिए गए. आइए देखते हैं ऐसे कुछ क़ानून और उनके प्रावधान.


टाडा - TADA (Terrorist and Disruptive Activities Prevention Act)

अभिनेता संजय दत्त को इसी क़ानून के तहत जेल जाना पड़ा था. ये कानून 1985 से लेकर 1995 तक चलन में था. 80 के दशक में पंजाब में उपजे विद्रोह के चलते इस एक्ट को लाया गया. ये पहला कानून था जो ख़ास तौर से आतंकवाद के खिलाफ़ बना था. इसमें तीन बार संशोधन भी हुए. लगातार होती आलोचना की वजह से इसे 1995 में ख़त्म कर दिया गया.
‘टाडा’ कई मामलों में मानवाधिकारों के उल्लंघन का टूल माना गया. पुलिस के हाथ जैसे असीमित ताकत लग गई थी. इस क़ानून के तहत पुलिस किसी को भी बिना आरोप-पत्र दाखिल किए साल भर तक हिरासत में रख सकती थी. ऐसे भी मामले सामने आए जिसमें पुलिस ने इस कानून का इस्तेमाल पैंसे ऐंठने के लिए किया. ऐसे इल्जाम लगते आए हैं कि कई बार तो पुलिस महज़ कानूनी पचड़ों से बचने के लिए अपराधों को ‘टाडा’ के तहत दर्ज कर देती थी.
'टाडा' के तहत काफी अरसा जेल में रहे संजय दत्त. इमेज सोर्स: Cineblitz.
'टाडा' के तहत काफी अरसा जेल में रहे संजय दत्त. इमेज सोर्स: Cineblitz.

‘टाडा’ की सबसे बड़ी आलोचना इसी वजह से होती थी कि ये ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ को क्रिमिनल एक्टिविटी में तब्दील कर देता था. किसी भी तरह के अलगाव की महज़ मांग भर करना इस क़ानून के तहत गिरफ्तारी का बायस बन जाता था. साल भर बिना ट्रायल के हिरासत तो अनफेयर था ही, इसके अलावा भी ऐसे प्रावधान थे जो नाइंसाफी की बॉर्डर लाइन पर मंडराते थे.
# जैसे आरोपी को 60 दिनों तक पुलिस कस्टडी में रखा जा सकता था. 60 दिन भारतीय पुलिस की मेहमान-नवाज़ी का मतलब है टॉर्चर की असीमित संभावना.
# आरोपी को ज्युडिशियल मजिस्ट्रेट के सामने नहीं बल्कि एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता था, जो कि एक पुलिस अफसर ही होता था. इस पर भी तुर्रा यह कि वो हाईकोर्ट को जवाबदेह नहीं होता था.
# पुलिस अफसर के आगे किया गया कन्फेशन भी आरोपी के खिलाफ़ सबूत के तौर पर मान्य था.
# बजाय इसके कि पुलिस आरोपी को गुनाहगार साबित करें, खुद को बेगुनाह साबित करने की ज़िम्मेदारी आरोपी के कंधों पर हुआ करती थी.
# इस एक्ट के सेक्शन 19 के तहत आरोपी सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में ही अपील कर सकता था.
‘टाडा’ के दस सालों में करीब 76,000 गिरफ्तारियां हुई. इनमें से 25 परसेंट केसेस में पुलिस ने ही केस वापस ले लिया. सिर्फ 35 परसेंट केस ट्रायल तक पहुंचे, जिनमें से 95 परसेंट केसेस में आरोपियों को बरी कर दिया गया. 2 परसेंट से भी कम लोगों को सज़ा हुई. लेकिन कई लोग इस कानून के चलते बरसों तक जेल में सड़ते रहे हैं.


पोटा - POTA (Prevention of Terrorism Act)

ये भी आतंकवाद-निरोधी क़ानून था जो 2001 में हुए संसद हमले के बाद वजूद में आया. याद कीजिए तो पोटा से पहले पोटो आया था. इसके नाम बदलने का उस समय मजाक भी उड़ा करता था. कई मामलों में ये कानून ‘टाडा’ का जुड़वां भाई था. ‘टाडा’ की ही तरह इसमें बिना चार्जशीट दाखिल किए किसी को भी 180 दिनों तक हिरासत में रखा जा सकता था. इसमें भी पुलिस अफसर के आगे किया गया कन्फेशन बतौर सबूत पेश किया जा सकता था.
इस कानून पर सबसे बड़ा आरोप राजनीतिक दुरुपयोग का लगा. कहा गया कि सरकार अपने प्रतिद्वंदियों से निपटने के लिए इसका इस्तेमाल करती है. कुंडा के बाहुबली राजा भैया और तमिलनाडु के कद्दावर नेता वाइको की ‘पोटा’ के अंडर गिरफ्तारी ने इन आरोपों को बल ही दिया. 2004 में यूपीए सरकार ने इस कानून को ख़त्म कर दिया.
एमडीएमके नेता 'वाइको' पोटा के तहत अंदर गए.
एमडीएमके नेता 'वाइको' पोटा के तहत अंदर गए.



यूएपीए - UAPA (Unlawful Activities Prevention Act)

इस तरह के कानून में ये एक्ट सबसे पुराना है. और सबसे ज़्यादा चलने वाला भी. 1967 में बना ये कानून कई सारे संशोधनों के बाद अब भी लागू है. इसके तहत जब भी देश की संप्रुभता और अखंडता पर ख़तरा मंडराने लगे, तो सरकार नागरिकों पर कुछ पाबंदियां आयद कर सकती हैं. कुछ गतिविधियों पर रोक लगा सकती है. या उन्हें मॉनिटर कर सकती है. गतिविधियां जैसे,
# एक जगह इकट्ठे होना या शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन.
# किसी भी संस्था या यूनियन का गठन.
# अभिव्यक्ति की आज़ादी.
इस क़ानून के तहत गिरफ्तार होने वालों में कम्युनिस्ट नेता कोबाड़ गांधी का नाम सबसे पहले आता है. उन्हें देशविरोधी भाषण देने के इल्ज़ाम में गिरफ्तार किया गया. दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर जी एन साईबाबा भी इसी क़ानून के तहत गिरफ्तार किए गए. 7 मार्च 2017 को उन्हें उम्रकैद की सज़ा हुई.
प्रोफ़ेसर जी एन साईबाबा. इमेज सोर्स: हिंदुस्तान टाइम्स.
प्रोफ़ेसर जी एन साईबाबा. इमेज सोर्स: हिंदुस्तान टाइम्स.



मीसा - MISA (Maintenance  of Internal Security Act)

इस विवादित क़ानून को 1971 में इंदिरा गांधी सरकार लाई थी. इसके चलते सुरक्षा एजंसियों को असीमित ताकत हासिल हुई थी. इस कानून के चलते किसी को भी अनिश्चित समय के लिए गिरफ्तार किया जा सकता था. बिना किसी वारंट के प्रॉपर्टी की तलाशी ली जा सकती थी. यहां तक कि प्रॉपर्टी को सीज तक किया जा सकता था.
1975 की इमरजेंसी के दौरान इस कानून का जम के नाजायज़ फायदा उठाया गया. हज़ारों लोगों को जेल में बंद कर दिया गया. कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने अपने विरोधियों को इस कानून के तहत बंद करवाया, जिनमें जनता पार्टी के कई सारे नेता थे.
आपातकाल के लगभग दो सालों में करीब 1 लाख लोगों को अरेस्ट किया गया, जिनमें पत्रकार, एक्टिविस्ट्स, छात्र और नेता शामिल थे. गिरफ्तार किए गए नेताओं में प्रमुख नाम थे अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, चंद्र शेखर, शरद यादव, जॉर्ज फर्नांडिस और लालू प्रसाद यादव.
लालू प्रसाद यादव ने तो इसके विरोध में अपनी बेटी का नाम ही मीसा रख दिया.
लालू यादव की सुपुत्री मीसा भारती. काले क़ानून के नाम पर नामकरण हुआ.
लालू यादव की सुपुत्री मीसा भारती. काले क़ानून के नाम पर नामकरण हुआ.

1977 में जब जनता ने इंदिरा सरकार को उखाड़ फेंका और जनता पार्टी सत्ता में आई तो इस काले कानून को निरस्त कर दिया गया.


अफ्स्पा – AFSPA (Armed Forces Special Powers Act)

पिछले कुछ सालों में ये कानून काफी ज़्यादा सुर्ख़ियों में रहा है. मणिपुर की इरोम शर्मिला ने इस क़ानून के खिलाफ लगभग 16 सालों तक भूख हड़ताल की. सन 2000 में असम राइफल्स के जवानों ने 10 लोगों पर गोली चला दी थी. उसी के खिलाफ़ इरोम का प्रोटेस्ट था. ये कानून 1958 में पास किया गया था. पहले-पहल सिर्फ पूर्वोत्तर के राज्य में तैनात सुरक्षा-बलों को इस क़ानून के विशेषाधिकार प्राप्त थे. अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड वगैरह. जुलाई 1990 के बाद इसे जम्मू-कश्मीर में भी लागू किया गया.
16 साल तक भूख हड़ताल पर रही इरोम शर्मिला.
16 साल तक भूख हड़ताल पर रही इरोम शर्मिला.

इस कानून के खिलाफ़ मानवाधिकार संगठन काफी मुखर रहे हैं. इस कानून के तहत आर्मी बिना वारंट किसी को भी अरेस्ट कर सकती है. किसी भी वाहन को जांच के लिए रोक सकती है. इसके अलावा सैन्य बल संपत्ति भी ज़ब्त कर सकता है.
कश्मीर में इसकी मौजूदगी के फायदे और नुकसान दोनों ही गिनाने वाले लोग बहुतायत में हैं. एक तरफ इसे काला कानून कह के इसे निरस्त करने की मांग उठती रहती है. वहीं दूसरी तरफ इसके समर्थकों का कहना है कि इसी की वजह से अशांत इलाकों में स्थिति काबू में रखने में सुरक्षा बलों को सफलता मिली है. इसे हटाना ख़तरनाक होगा.
बहरहाल अफ्स्पा अभी भी लागू है.


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