पिछले कुछ वक़्त में हमने ऐसी फिल्में देखी हैं जहां सेंसिबिलिटी को तवज्जो दी गई है. जहां औरत को मात्र एक चमकीली ड्रेस पहनाकर "ये दिल तेरी आंखों में डूबा, बन जा मेरी तू महबूबा" सुनने के लिए नहीं रखा जाता. औरत एक प्रॉपर कैरेक्टर होती है और कई बार तो कहानी भी उसी के इर्द गिर्द घूमती है. इस फ़िल्म में तो टाइटल भी इसी फ़ीमेल कैरेक्टर के नाम पर रखा है. सुलु यानी सुलोचना.

सुलोचना = सुलु
बात करते हैं कॉमेडी की. आम हिन्दुस्तानी जनता को जो कॉमेडी परोसी जा रही है उसमें सबसे बड़ा नाम जो आता है वो है कपिल शर्म (पढ़ें शर्मा) के शो का. कपिल शर्मा का शो यानी मोटे लोगों का मज़ाक उड़ाने वाला शो, लड़कियों का मज़ाक उड़ाने वाला शो, वो शो जहां लड़की को गोभी जैसे मुंह वाली कह दो तो टीआरपी छलांग मार देती है. ऐसे समय में कॉमेडी के लिए भी 'तुम्हारी सुलु' इस मामले में एक अच्छा उदाहरण बन सकती है कि फ़िल्म में हंसाने के लिए किस तरह की चीज़ें इस्तेमाल हों. यहां बिना डबल मीनिंग बातों के, बिना किसी की बे-इज्ज़ती किए अच्छी और बहुत ही लॉजिकल कॉमेडी देखने को मिलती है.
फ़िल्म में बहुत सी बातों को छूने की कोशिश की गई है. यहां बात सिर्फ़ फेमिनिज्म के झंडे को बुलंद कर देने भर पे नहीं रुक जाती. यहां उस झंडे के बुलंद हो जाने पर सोशल स्ट्रक्चर में आने वाली समस्या और उसके समाधान को दिखाया गया है. और ये ही इस फ़िल्म की जान है. एक महिला के रातों-रात सशक्त बन जाने से एक समस्या का हल तो निकलता है लेकिन वो कई और समस्याओं को जन्म देता है. ये सब कुछ एक रूबिक्स क्यूब जैसा होता है. अभी तक क्यूब में सब कुछ अस्त व्यस्त था. लेकिन आप जैसे ही एक भी पीस को इधर-उधर करते हैं, सारे क्यूब की दशा बदल जाती है. आप लाख इससे इनकार करें या लाख इस पर अपनी असहमति और आपत्ति दर्ज करवा लें लेकिन सच्चाई यही है. इसलिए हर मूव के साथ क्यूब पर असर पड़ता जाता है और अंत में आपको सब कुछ अपनी सही जगह पर लाने के लिए बेपनाह मेहनत करनी पड़ती है. इसमें आप इमोशनली भी खर्च होते हैं और भयानक मेहनत लगती है.

विद्या बालन ने सुलोचना का किरदार निभाया है.
मुंबई के विरार में रहने वाले, मात्र 40 हज़ार की कमाई पर पल रहे तीन पेटों के सेट-अप को फ़िल्म में लगभग परफेक्शन के साथ दिखाया है. ऐसा नहीं लगता है कि हम इस परिवार से पहली दफ़ा मिल रहे हैं. और इस बात का ख़ास ख़याल रखा गया है कि ये एक सूरज बड़जात्या की फ़िल्म से निकला हुआ आदर्श परिवार नहीं है जहां हर ख़ुशी के मौके पर एक साढ़े बारह मिनट लम्बा गाना देखने को मिले. इस परिवार में भरपूर खामियां हैं. आप खुद को इस परिवार का हिस्सा मानने लगते हैं. वो परिवार जिसे सुलु और अशोक मिलकर चला रहे हैं.
विद्या बालन यानी सुलु. सुलु यानी सुलोचना. एकदम टॉपम-टॉप काम. इससे ज़्यादा कुछ नहीं. इससे कम कुछ नहीं. सुलोचना यानी फ़िल्म का हीरो. पौने तीन घंटे में न जाने क्या-क्या सिखा देती है. मानव कौल यानी अशोक. कपड़े की फैक्ट्री में काम करने वाला आदमी जो वैसा बाप कतई नहीं है जिसके घर आते ही घर में एक अदृश्य प्रेतात्मा होने जैसा अहसास होता है. वो अपनी पत्नी को खुश रखने की भरपूर कोशिश कर रहा है लेकिन साथ साथ अपने काम की जगह से झिड़कियां भी खा रहा है जो उसके गुस्से की वजह बनती जा रही हैं. मानव कौल अपने काम में एकदम फिट बैठे दिखे. उनकी जगह किसी और का होना आप इमेजिन ही नहीं कर सकते.

विद्या बालन और मानव कौल
फ़िल्म के दौरान सुलु एक बात खूब कहती है - "मैं कर सकती है." फ़िल्म इसी एक वाक्य को ध्यान में रखकर बनाई भी गई है. डायरेक्टर सुरेश त्रिवेणी ने बड़े करीने से कहानी को आगे बढ़ाया है. कहीं पर भी वो आपाधापी में नहीं दिखे और न ही कहीं वो किसी एक चीज को बहुत तसल्ली से दिखाने के मूड में रहे. सब कुछ एकदम आराम से. बेहद स्मूथ. कुछ तालियां इस फ़िल्म के आर्ट डिपार्टमेंट के लिए पीटी जानी चाहिए जिसने एक मिडल क्लास घर को स्क्रीन पर एकदम सटीक सेटिंग में दिखाया है.
तुम्हारी सुलु एक बहुत ज़रूरी फ़िल्म है. इसके टिकट पर पैस खर्च किया जाना चाहिए. आस पास जो मिले, उसे पकड़ के ये पिच्चर दिखाई जाए. सुलु मस्त है.
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