मोटा-मोटी कहानी
जिस तरह से तुम्बाड शुरू होती है, उससे ऐसा लगता है जैसे किसी को भी नहीं पता कि आगे क्या होने वाला. सभी हमारे साथ ही उस कहानी से रूबरू होते हैं. साल 1918 और भारत गुलाम है. दंतकथाओं का दौर है, जिसका एक सिरा प्राचीन देवी से होकर गुज़रता है. वही जिनकी कोख से करोड़ों देवी-देवताओं का जन्म हुआ है. देवी का सबसे ज़्यादा स्नेह उनके बड़े बेटे हस्तर पर था. लेकिन हस्तर लालची था, वो अपनी मां की संपत्ति सोना और अन्न से प्रेम करता था. अपने इस लालच की वजह से उसे बाकी देवताओं का शाप झेलना पड़ा था. अब वो अपनी मां की कोख में ही रहता है. फिर उसका चुराया हुआ सोना कहां हैं? तुम्बाड में एक ब्राह्मण परिवार कई पीढ़ियों से ये ढूंढने की कोशिश कर रहा है.
दूसरी ओर एक डरी हुई मां है. उसके दो बच्चे हैं, जो हमारे-आपकी तरह उसके इस डर के पीछे की वजह खोजने की कोशिश कर रहे हैं. इनमें से एक का नाम विनायक है, जो डापुट (कम उम्र में ज़्यादा चालाक) है. वो हस्तर की कहानी पता लगाता है. बचपन में मां की कसम के बाद गांव छोड़ देने के बाद विनायक जवानी में वापस लौटता है. गड़ा सोना ढूंढने. वो ये खजाना ढूंढने को लेकर बिलकुल जुनूनी हो जाता है. इस कड़ी में उसका लालच इतना बढ़ जाता है कि उसे मौत का डर भी नहीं रहता है. उसे लगता है कि उसके पास सिर्फ एक ही गुण है- लालच. शुरुआत में खंडहर और शापित हवेली में अकेले घुसने पर आप विनायक के लिए डरते हैं. लेकिन फिल्म के आखिर में आप हस्तर के लिए डरने लगते हैं. क्योंकि उससे लड़ने और जीतने के चक्कर में विनायक उससे ज़्यादा खतरनाक बन जाता है.

उस खंडहरनुमा हवेली के मालिक सरकार के पास से अपनी मां के बाहर आने का इंतज़ार करते विनायक और उसका छोटा भाई सदाशिव.
फिल्म की शुरुआत में ही महात्मा गांधी की कही एक बात स्क्रीन पर लिखी आती है-
धरती के पास सभी की जरूरतों को पूरा करने लिए पर्याप्त संसाधन हैं, किंतु किसी के लालच के लिए नहीं.इसके बाद आपको ये तो पता चल जाता है कि ये कहानी कहां खत्म होगी, लेकिन ये नहीं पता होता कि आपको इस सन्नाटे में छोड़कर खत्म होगी. बिखरी हुई चीज़ों को ऐसे जोड़कर खत्म होगी.
कलाकारों का काम
विनायक बने सोहम साह. सोहम जितनी बार भी परदे पर दिखते हैं, आपको अपनी आगोश में रखते हैं. उनका किरदार इस बनी बनाई कहानी का हिस्सा नहीं है, बल्कि वही उस कहानी को खोलकर खुद भी देखता है और हमें भी दिखाता है. इसलिए वो मुख्य किरदार बन जाता है. उनका ओवरऑल अपीयरेंस बहुत इंप्रेस करता है. अब तक छोटे रोल्स (सिमरन और शिप ऑफ थिसियस) में नज़र आए सोहम ने इस मौके का हर लम्हा कैश किया है. वो कोई भी चीज़ करते हैं, वो उनकी आंखों में दिखती है. चाहे वो चालच हो, क्रूरता हो, हवस हो या गुरूर. कुछ सीन्स में तो ऐसा लगता है कि उन्होंने विनायक नाम का एक चोला ओढ़ लिया, जिसके भीतर से सोहम दिखना बंद हो गया है.
जैसे फिल्म का एक सीन है- एक बूढ़ी महिला है, जिसे हस्तर का शाप है. वो सड़ चुकी है, उसके शरीर पर पेड़ निकल आए हैं लेकिन शरीर से बाहर लटका धूल-धूसरित उसका दिल अब भी धड़क रहा है. बचपन में उसके हाथों मौत से बचा विनायक, अब उससे खजाने का पता पूछ रहा है. जब वो बूढ़ी खजाने का पता बता देती है, जिस तक पहुंचना बहुत मुश्किल है, तो विनायक बड़ी भयानक हंसी हंसता है. उस वक्त आप कुर्सी के कोने में बैठे होते हैं और आपके शरीर के सारे रोएं खड़े होते हैं.

सोहम इस फिल्म के लीड एक्टर के साथ साथ प्रोड्यूसर भी हैं.
अनिता मालशे ने विनायक की पत्नी का किरदार निभाया है. उनका किरदार तब के दौर में महिलाओं के ट्रीटमेंट के बारे में काफी कुछ बताता है. हालांकि उनके करने के लिए ज़्यादा कुछ है नहीं. सोहम के बाद सबसे ज़्यादा नोटिस में मोहम्मद समाद आते हैं, जिन्होंने विनायक के बेटे का रोल किया है. इसमें उसके पापा की झलक और भूख दिखती है. फिल्म के क्लाइमैक्स वाले सीन्स में ये बच्चा जैसे सोहम पर सवार होने की फिराक में रहता है.

मो. समाद इससे पहले फिल्म 'हरामखोर' में नज़र आ चुके हैं.
तो डराती कैसे है ये फिल्म?
फिल्म में डराने के लिए भूत को कैमरे के सामने लाकर खड़ा करना अब ओल्ड फैशंड हो गया है. ऐसा ये फिल्म साबित करती है. मुझे नहीं याद कि इस फिल्म के किसी भी सीन में हस्तर ने कैमरे की आंखों में देखा है. आपको इस फिल्म का माहौल डराता है. विनायक डराता है. उसका लालच डराता है. कुछ होने को है वाला फील डराता है. पंकज कुमार का कैमरा डराता है. इस सब में फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर बहुत बड़ा रोल प्ले करता है. वो हमारा ध्यान खींचकर उस चीज़ पर ले जाता है, जो होने ही नहीं वाला है. ये फिल्म का सबसे सरप्राइज़िंग एलिमेंट है.
बाकी टेक्निकल इलाके
इनके बारे में ज़्यादा तो नहीं पता लेकिन स्क्रीन से होकर गुज़रने वाला हर दूसरा फ्रेम लैपटॉप का बैकग्राउंड फोटो लगाने का मन करता है. कुछ सीन्स में कैमरा ऊपर से आता है और माहौल की भयावहता में इज़ाफा करके चला जाता है. फिर कुछ सीन्स किसी पेंटिंग जैसे लगते हैं. जैसे फिल्म के एक सीन में विनायक उस खंडहर में बने एक झूले पर बैठा होता है.

फिल्म के कई हिस्सों को एक बार शूट करने के बाद स्क्रैप करके दोबारा शूट किया गया है.
अगले कुछ ही मिनटों बाद उस झूले की रस्सी टूटी होती है और आस-पास सिर्फ सन्नाटा होता है. वीरान पड़ चुके उस गांव में दूर-दूर तक कुछ नज़र नहीं आता फिर एक आदमी हाथ में छाता लिए चलता दिखाई देता है. इन सीन्स से फिल्म को देखने का अनुभव बहुत रिच और रिफ्रेशिंग होता जाता है. जिस लंबाई में तुम्बाड की जटिल कहानी घटती है, वो सबसे अच्छी बात है. ये फिल्म कुल 1 घंटे 43 मिनट की है. लेकिन अपना असर काफी समय तक बनाए रखती है.

फिल्म में पहले नवाजुद्दीन सिद्दीकी को लिया गया था. बाद में उन्हें हटाकर सोहम को विनायक के किरदार के लिए कास्ट कर लिया गया.
फिल्म देखने का फील और एक्सपीरियंस
आप इसे देखने से पहले इसके बारे में इतना कुछ सुन चुके होते हैं कि एक्साइटमेंट चरम पर रहती है. लेकिन थोड़ी ही देर में आप इतने ठंडे पड़ जाते हैं कि कुर्सी में जम जाने जैसा महसूस होता है. और ये थिएटर का एसी नहीं, सामने चल रही फिल्म करती है. पहले कंफ्यूज़ करती है और फिर एक-एक कर धागे खोलने शुरू करती है. अंत में इसी खुले धागे में आपको बांधकर चली जाती है. आप इंटरवल में फ्री में मिल रहा पॉपकॉर्न और समोसे सिर्फ (प्रेस शोज़ में) इसलिए छोड़ देते हैं कि कहीं इसका एक सीन आपसे न मिस हो जाए. माहौल में बिखराव की वजह से ही ये फिल्म आपको बांध पाती है. यहां जो जैसा है, वैसा है. अलग से जोड़-घटाव करने की गलती नहीं की गई है. फिल्म में विनायक का एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर वाला सबप्लॉट जबरदस्ती फिल्म का हिस्सा बना रहता है और आगे जाकर किसी चीज़ में मदद नहीं करता. एक सीन को छोड़कर बाकी फिल्म में उसके होने या नहीं होने से कोई फर्क नहीं पड़ता.
'बाहुबली' और 'पद्मावत' की भव्यता के सामने इसे रखना ज्यादती होगा. लेकिन ये कहना बिलकुल गलत नहीं होगा कि 'तुम्बाड' इस भीड़ में भी अपनी एक अलग लीक बनाती है और बिना भटके उसी पर चलती है. नैतिकता की मात्रा इसमें थोड़ी ज़्यादा है लेकिन इतनी नहीं कि ओवरऑल फिल्म पर भारी प़ड़ जाए.
देखने, नहीं देखने का फैसला पूरी तरह से अपनी जेब के हिसाब से करिए लेकिन देख आना बेहतर ऑप्शन रहेगा.
वीडियो देखें: फिल्म रिव्यू: अंधाधुन