इसी कहानी पर एक फ़िल्म आई है. पंचलैट. प्रेम प्रकाश मोदी का डायरेक्शन. लीड में यानी गोधन और मुनरी के कैरेक्टर में अमितोष नागपाल और अनुराधा मुखर्जी. इसके अलावा फ़िल्म में यशपाल शर्मा, ब्रिजेन्द्र काला, राजेश शर्मा और पुनीत तिवारी हैं.

अमितोष और अनुराधा
बहुत कम मौके ऐसे होते हैं जब आप फ़िल्म देखने जाते हैं लेकिन आपको पूरी कहानी पहले से ही मालूम होती है. 'पंचलैट' वैसा ही एक केस है. ये इस फ़िल्म की कमज़ोरियों में से एक है. इसे काउंटर करने के लिए कहानी को समय में आगे-पीछे ले जाया जाता है लेकिन वो उतना असरदार नहीं साबित होता है.
मैं फ़िल्में देखता हूं. और मुझे नहीं लगता है कि हमारे आस-पास ऐसे लोग इतनी तादाद में मौजूद होंगे जो फिल्में नहीं देखते होंगे. हर किसी को इसका कीड़ा है. हम उस देश के वासी हैं जहां एक फ़िल्म आने वाले पांच-छह सालों के हेयरस्टाइल का ट्रेंड सेट कर देती है. 'पंचलैट' के पास ऐसा करने का स्कोप बहुत ही कम है. बीते वक़्त में फ़िल्में बहुत तेज़ी से बदली हैं. उनमें पेस बढ़ा है, 'ऐक्शन' बढ़ा है. 'पंचलैट' इसमें पीछे खड़ी मालूम देती है. फ़िल्म की धीमी रफ़्तार और रस-विहीन कैरेक्टर इसे हल्का कर देते हैं. इसकी वजह - फ़िल्म में दिखाया गया समय. एक महाशय हैं फ़िल्म इंडस्ट्री में. उन्हें शेक्सपियर ने एबीसीडी सिखाई थी. तबसे वो शेक्सपियर के ही पीछे पड़े हैं. नाम नहीं बताऊंगा क्यूंकि खुद शेक्सपियर ने कहा था, "व्हाट्स इन अ नेम.' उन्होंने पिक्चरें बनाई शेक्सपियर के नाटकों पर. भयानक हिट होती हैं. वो चाहते तो उसी समय को दिखाते हुए, उन्हीं वेश-भूषाओं में और उसी बोली के साथ वो फ़िल्में बनाते रहते. मुझे नहीं लगता कोई भी देखने जाता. कोई भी "Out, out, brief candle! Life's but a walking shadow..." सुनकर वाह नहीं करता. लेकिन 'मकबूल' के हम सभी कायल हैं. कुछ ऐसा ही 'पंचलैट' के साथ होता तो बेहतर रहता.

लेकिन ठीक इसी वक़्त हमें इस फ़िल्म को एक अलग सिरे से भी देखना चाहिए.
ये कोशिश है उन मुट्ठी भर लोगों की जिन्होंने एक बेहद पुरानी और बेहतरीन कहानी को स्क्रीन पर लाने की सोची. और ये एक वजह है जिसके लिए उन्हें बधाई दी जानी चाहिए. हमारे आस-पास उंगलियों पर गिनने लायक भी कहानियां नहीं हैं जिन्हें हमने कभी पढ़ा हो और उन्हें फ़िल्मों में तब्दील किया गया हो. ऐसा होता रहे तो बेहतर. और इसकी शुरुआत अगर 'पंचलैट' ने की है तो और भी बेहतर. ऐसा होना बेहद ज़रूरी है. ये बेहतरीन कोशिश है. इसके साथ ही, इस फ़िल्म से जुड़े लोगों ने काफी मेहनत की है. इसे फ़िल्म सिटी के किसी कोने में शूट किया जा सकता था. लेकिन झारखंड के देवघर में इसे शूट किया गया. चीज़ों को जितना असल रखा जा सकता था, रखा गया. मसलन ढीली पड़ चुकी चारपाई, चारपाई का मुड़ा हुआ पाया, सिल पर मसाला पीसता गोधन, झाड़-झंखार वगैरह सब कुछ उस समय को वापस जिला देता है. इसके लिए इस फ़िल्म को भरपूर नम्बर मिलने चाहिए.
ये सही है कि कम बजट, एक्सपीरियंस की कमी और अलग-अलग वजहों से 'पंचलैट' एक मज़बूत फ़िल्म नहीं है लेकिन ये एक ऐसा केस है जिससे हमें जितने पॉज़िटिव मिल सकते हैं, ले लेने चाहिए. 'पंचलैट' एक ईमानदार फ़िल्म है. इसे कहानी को किताब से निकाल कर स्क्रीन तक लाने के काम की शुरुआत माना जाए और हिंदी फ़िल्मों में ऐसा करने के रिवाज़ की शुरुआत कर देनी चाहिए. हमारा बहुत भला होगा.
इस फ़िल्म को बनाए जाने के दौरान ही नहीं, इसके बन जाने के बाद भी काफी अड़चनें आईं. और इसलिए इस फ़िल्म को और भी बधाई मिलनी चाहिए. ये फ़िल्म एक उदाहरण है उनके लिए जिन्होंने फ़िल्म बनाने का सपना पाला हुआ है. और इसीलिए 'पंचलैट' का हमारे बीच मौजूद होना ज़रूरी हो जाता है. ये ज़रूरी है इसलिए कि फ़िल्म बनाने के बाद रिलीज़ मिलने के लिए आगे किसी और को इतनी मशक्कत न करनी पड़े. एक ईमानदार, बिना चमक-धमक और बिना खान-कपूर स्टारिंग के फ़िल्म बनाने की हिम्मत करने वालों को, लोगों से 'बुक माय शो' पर फ़िल्म को थम्ब्स-अप देने की विनती न करनी पड़े. फ़िल्म को रिलीज़ करवा पाने के लिए अमितोष ने कोई भी कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने जिस तरह से लगकर भागा-दौड़ी की है, तारीफ़ पाने के काबिल है.