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'TE3N' फिल्म रिव्यू: माहौल तो बनाया, लेकिन थ्रिलर का 'थ्रिल' कहां भूल आए?

इस फिल्म में बेहतरीन पेंटिग देखने जैसा मज़ा है, लेकिन 'अॉन-द-एज' नॉवेल पढ़ने में मिलने वाली उत्तेजना नहीं.

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फोटो - thelallantop

फिल्म : तीन / TE3N

निर्देशक : रिभु दासगुप्ता

अभिनेता : अमिताभ बच्चन, नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी, विद्या बालन

समय : 2 घंटे 17 मिनट


https://youtu.be/XDu2M752h6E

आपको पता है हिन्दी सिनेमा की सबसे बड़ी बीमारी कौनसी है? यहां सफलता की कार्बन कॉपियां छूत की तरह फैलती हैं.

याद करें, नब्बे के दौर में 'सत्या' ने मुम्बई अंडरवर्ल्ड पर बनी फिल्मों के लिए कैसे दरवाज़ा खोल दिया था. यशराज ने 'बैंड बाजा बरात' बनाकर दिल्लीवाली लव स्टोरी को मार्केट में 'इन' कर दिया. जब 'भाग मिल्खा भाग' हिट हुई तो अचानक खिलाड़ियों पर बायोपिक को अच्छा 'बिज़नस प्रपोज़ल' माना जाने लगा. अब आप सुजॉय घोष की 'कहानी' का नाम भी इसी क्रम में ले सकते हैं, जिसकी क्रिटिकल अौर कमर्शियल सफलता ने कोलकाता शहर को किरदार बनाकर रची जाने वाली सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों के लिए बॉलीवुड मार्केट का मैदान खोल दिया है.

रिभु दासगुप्ता की अजीब सी स्पेलिंग वाली, जो डविड फिंचर की क्लासिक सस्पेंस थ्रिलर 'सेवन' की याद दिलाती है, फिल्म 'TE3N / तीन' को देखते हुए लगातार ऐसा लगता है कि आप सुजॉय घोष की 'कहानी' दोबारा देख रहे हैं. खुद सुजॉय घोष ने एक कोरियन फिल्म 'मोंटाज' के राइट्स खरीद उसे हिन्दी में बनाया है, अौर प्रॉड्यूस किया है 'तीन' शीर्षक से. बस अंतर यही है कि फिल्म की नायिका 'बिद्या बागची' को किसी ने एक झुके कंधे वाले बूढ़े बंगाली से बदल दिया है. इस झुके कंधे वाले बूढ़े बंगाली 'जॉन बिस्वास' की भूमिका में हैं अमिताभ बच्चन. बच्चन अपनी आठ साला नातिन के किडनैपर अौर उसकी मृत्यु के ज़िम्मेदार इंसान को बीते आठ सालों से खोज रहे हैं.

फिल्म की शुरुआत किसी फ्लैश की तरह वो घटना दिखाती है, जहां बूढ़े दादा ने अपनी नन्हीं 'एंजेला' को खो दिया था. अौर फिर फौरन कहानी आठ साल आगे चली जाती है.

आठ साल आगे सूनापन पसरा है. जॉन की गतिहीन ज़िन्दगी, जो घर से पुलिस स्टेशन अौर पुलिस स्टेशन से घर के चक्कर में सिमट गई है. विद्या बालन यहां पुलिस अधिकारी सरिता सरकार की भूमिका में हैं. जींस पर कुरता पहनती हैं अौर तेज़तर्रार बातें करती हैं. फिर नवाज़ के किरदार से परियच होता है, नाम है फादर मार्टिन. पता चलता है कि मार्टिन दास ही वो पुलिसवाले थे, जिनकी केस क्रैक करने में असफलता जॉन बिस्वास की नातिन की मौत का कारण बनी. इस चूक का वज़न मार्टिन के दिल पर इतना गहरा पड़ा कि वो पुलिस की नौकरी छोड़ धर्म की शरण में चले गए.

यहां नवाज़ के किरदार में सटायर का तड़का है, अौर सबसे विटी संवाद भी फिल्म में उनके ही हिस्से आए हैं. रूखी उदासी लिए जॉन बिस्वास से उनके संवाद 'दी लंचबॉक्स' में साजन फर्नांडिस बने इरफ़ान से उनकी जुगलबन्दी की याद दिलाते हैं. अमिताभ भी उन दृश्यों में अपना सबसे शानदार काम कर जाते हैं, जहां वे नवाज़ के साथ स्क्रीन शेयर करते हैं.

फिल्म थ्रिलर कहकर बेची गई हैं. लेकिन फिल्म के शुरुआती बीस-पच्चीस मिनट एकदम एंटी-थ्रिलर हैं, अौर किसी धीमी गति के समाचारों की तरह आगे बढ़ते हैं. धीरे-धीरे समझ आता है कि ये वो कट-टू-कट वाली मारामारी थ्रिलर नहीं, इसका सारा मैजिक माहौल में है. देखकर लगता है कि निर्देशक रिभु दासगुप्ता बॉलीवुड सिनेमा नहीं, वेस्टर्न क्लासिक टीवी सीरीज़ देखकर बड़ी हुई पीढ़ी के फिल्ममेकर हैं. ऐसी कहानियां अौर फिल्में जिनमें माहौल ही कहानी की असली जान होता है.

फिल्म की एकमएक लोकेशन किसी मोती की तरह चुनी गई है. चाहे वो जॉन का धर्मतल्ला वाला पुराना घर हो, जिसकी दीवारें आइनों, तस्वीरों अौर पेंटिग्स से भरी हैं, चाहे वो लाल बाज़ार का लालफीता फाइलों से भरा पुलिस स्टेशन हो, जिसकी गतिहीनता माहौल में अजीब सा ठंडापन भर देती है. बरसों बरस पुराना, अपनी सांस रोककर ठहरा कोलकाता महानगर बहुत बारीकी से फिल्म की कहानी में पिरोया गया है. पुरानी रील वाली अॉडियो कैसेट्स, पुराने फोन, उंचे सिरहानों वाले लकड़ी के पुराने पलंग, पुरानी इमारतें, लोहे के संदूक जैसे सब हमें समय में बीस साल पीछे ले जाता है. हावड़ा ब्रिज पर बजाज का खटारा स्कूटर चलाते बच्चन यहां 'पीकू' की याद दिलाते हैं.

कहानी तेज़ी पकड़ती है उस मोड़ पर, जब एक अौर बच्चे की किडनैपिंग ठीक वैसे ही आठ साल पुरानी स्टाइल में होती है. लगता है जैसे वही पुराना अपराधी वापस लौट आया है. अब इधर पुलिस अधिकारी सरिता सरकार फादर मार्टिन की मदद से अपराधी को पकड़ने में जुट जाती हैं, उधर जॉन को भी एक नया सुराग हाथ लगता है. यहां से दो खोजी अभियान जैसे पैरेलल चल पड़ते हैं. एक अोर बच्चन अकेले हैं जो अपने आठ साल पुराने केस में अपराधी की तलाश में हैं, अौर दूसरी अोर पुलिस की टीम जो नए केस में अपराधी को पकड़ने के लिए जाल बिछा रही है. रोचकता अौर सस्पेंस यहां इस सवाल के जवाब में छिपा है कि क्या दोनों केस में अपराधी एक ही है?

लेकिन वो क्या है जो 'कहानी' जैसा ही पिक्चर पर्फैक्ट माहौल रचकर भी 'तीन' को वो गति अौर वैसा मारक आकर्षण नहीं दे पाता? कहानी का अौसत होना अौर 'लास्ट पंच' की कमी तो इसकी एक वजह है ही, दूसरी सबसे खास वजह ये है कि शुरु से ही यहां दांव पर कोई जिन्दगी नहीं लगी है. 'कहानी' की कहानी से यही खास अंतर इसे 'कहानी' नहीं होने देता.

सस्पेंस फिल्म को मज़बूत थ्रिलर बनाती है दांव पर लगी एक अदद जान, जिसे बचाने की जद्दोजहद में देखनेवाला साथ जुड़ जाता है. यहां जॉन बिस्वास की खोज में शुरु से ही एक उदासी घुली हुई है. मृत्यु की उदासी. वे अपनी नातिन की मृत्यु के जिम्मेदार अपराधी को खोज रहे हैं, नातिन को नहीं. इसीलिए जब उन्हें अन्य लोगों द्वारा ये सलाह दी जाती है कि 'अब अपराधी को भूलकर आगे बढ़ना चाहिए', वो सलाह ठीक लगती है. आगे भी इसी वजह से जॉन बिस्वास की तमाम खोजबीन, जो फिल्म का मुख्य कथानक है, कभी बेचैन करनेवाली उत्तेजना नहीं पैदा करती. मैं फिल्म में बैकग्राउंड की डीटेलिंग देखकर (जो वाकई कमाल है) कई मिनट वाह-वाह करता रहता हूं. लेकिन फिर मेरी समझ में आता है कि एक थ्रिलर फिल्म में आप कहानी का सिरा छोड़कर वातावरण निहारने लगें, ये तो फिल्म की हार है.

'तीन' प्रॉडक्शन डिज़ाइन में चैम्पियन तो बनती है, लेकिन शुद्ध कहानी के मोर्चे पर हार जाती है. इसमें एक बेहतरीन पेंटिग देखने का तो मज़ा है, लेकिन एक 'अॉन-दि-एज' नॉवेल पढ़ने में मिलनेवाली उत्तेजना नहीं.

https://www.youtube.com/watch?v=SeBCB5ERnps