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पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म के साथ ऐसा विवाद हुआ कि इंदिरा गांधी को खुद ये फ़िल्म देखनी पड़ी

और उसके बाद पूरे मध्यप्रदेश में फ़िल्म टैक्स फ्री हो गई!

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फोटो - thelallantop

जिनेन्द्र पारख
जिनेन्द्र पारख

(जिनेन्द्र पारख हिदायतुल्लाह राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, रायपुर के छात्र हैं. छत्तीसगढ़ के गांव राजनांदगांव से आते हैं. इनकी रुचियों में शुमार है - समकालीन विषयों पर पढ़ना, लिखना, इतिहास पढ़ना एवं समझना. छत्तीसगढ़ फ़िल्म इंडस्ट्री - छॉलीवुड के ऊपर दी लल्लनटॉप के लिए एक लेख लिखा है. पढ़िए -)

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भारत में फिल्म उद्योग सबसे प्रसिद्ध, व्यापक और प्रशंसित आकर्षणों में से एक है. हालांकि, यह मानना एक गंभीर गलती है कि मुंबई आधारित बॉलीवुड ही ऐसा केंद्र है जहां पर सभी फिल्में रिलीज होती हैं. क्षेत्रीय फिल्में भी अब आगे बढ़ रही हैं तथा देश और दुनिया भर में अपने प्रदर्शन के दम पर दर्शकों के दिलों पर कब्जा कर रही हैं. सैराट (मराठी), चौथी कूट (पंजाबी), रॉन्ग साइड राजू (गुजराती), क्षणम(तेलगु) आदि क्षेत्रीय फिल्मों ने यह सिद्ध कर दिया है कि सिनेमा लाइन में क्षेत्रीय फिल्मों का भी वर्चस्व है.

# छॉलीवुड अर्थात छत्तीसगढ़ी फिल्म

छत्तीसगढ़ राज्य में भी क्षेत्रीय सिनेमा निरंतर काम कर रहा है, यह फिल्में छत्तीसगढ़ी भाषा में होती हैं.
1962 में निर्मित भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ रिलीज़ हुई और इस फ़िल्म को अपार सफलता मिली. इस क्षेत्रीय फ़िल्म की सफलता के बाद देश के अन्य राज्यों में भी क्षेत्रीय फिल्म निर्माण ने अलग रफ्तार पकड़ी. इसी रफ्तार के बीच मनु नायक के अंदर जो छत्तीसगढ़ी सिनेमा के बीज थे वह अंकुरित होने लगे.
मनु नायक
मनु नायक

अब मनु नायक ने सोच लिया था कि उन्हें अपनी छत्तीसगढ़ी भाषा में फ़िल्म बनानी है, और एक दिन अचानक ‘सिने एडवांस’ नामक मशहूर पत्रिका में घोषणा कर दी कि वह छत्तीसगढ़ी में एक फ़िल्म बनाने वाले हैं. फ़िल्मी पृष्ठ पर यह खबर क्या चली मनु नायक के करीबियों ने उन पर सवालों की बौछार कर दी, क्यों, कब और कैसे? लेकिन काफी सवालों का जवाब स्वयं मनु नायक के पास भी नहीं था, बस मन में यह ठान बैठे थे कि अपनी भूमि को कुछ लौटाना है. सारे सवालों की भीड़ में पहला जवाब मनु नायक को मिला म्यूज़िक डायरेक्टर मलय चक्रवर्ती. उन्होंने हामी भरी कि इस एक्सपेरिमेंट में वह उनके साथी होंगे.
अमर गायक मु. रफी की आवाज में गाने की रिकार्डिंग की गयी और गीत लिखा डॉ. हनुमंत नायडू ने जिन्होंने छत्तीसगढ़ी गीतों पर डाक्टरेट किया था और संगीत दिया मलय चक्रवती ने.
तब तक फिल्म का नाम तय नहीं हुआ था, इसके पश्चात छत्तीसगढ़ी गीतों में संदेश होने की वजह से नाम रखा गया 'कहि देबे भइया ला संदेश'. इस फिल्म की कहानी प्रेम- प्रसंग पर आधारित रखने का विचार हुआ लेकिन कालांतर में छूआछूत के खिलाफ स्टोरी लिखी गई तो नाम में ‘भइया ला’ हटाकर ‘कहि देबे संदेश’ रखा गया. नवंबर 1964 में फिल्म की शूटिंग छत्तीसगढ़ के रायपुर जिला स्थित पलारी ग्राम में हुई.
16 अप्रैल 1965 को रायपुर, भाटापारा, बिलासपुर में प्रदर्शित इस फिल्म ने इतिहास रचने के साथ ही सुर्खियां भी बहुत बटोरी.


# क्यों पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म विवादों में घिर गयी?

उस दौर में फिल्म को लेकर भारी विवाद हुआ, ब्राह्मण और दलित की प्रेम कथा से लोग उद्वेलित हो गए और विरोध प्रदर्शन करने की धमकियां भी दी.
इसी वजह से तत्कालीन मनोहर टॉकिज कें मालिक पं. शारदा चरण तिवारी ने फिल्म के पोस्टर उतरवा दिए और फिल्म का प्रदर्शन रोक दिया. तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने विवाद के चलते फिल्म देखी और समाज में भेदभाव समाप्त करने के संदेश को सराहते हुए अखबारों में बयान दिया जिसके कारण सारे विवाद भी खत्म हो गए. इसके बाद मध्यप्र देश राज्य सरकार ने फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया तो सिनेमा घरों के संचालक इसे प्रदर्शित करने के लिए टूट पड़े. फिल्म ने सफलता पूर्वक प्रदर्शन कर इतिहास रचने के साथ ही छत्तीसगढ़ी सिनेमा में मनु नायक का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया गया.


# कहानी दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म की

छत्तीसगढ़ की अस्मिता के लिए संघर्ष करने वाले और फिल्मों के जबरदस्त शौक़ीन स्व.विजय कुमार पाण्डेय ने छत्तीसगढ़ के टूटते परिवार की कहानी को लेकर सन् 1965 में ‘घर द्वार’ बनाने का संकल्प लिया था.
स्व.विजय पाण्डेय ‘घर द्वार’ बनाने मुम्बई (उस समय बम्बई हुआ करती थी) से पूरी टीम लेकर छत्तीसगढ़ आए. मुम्बई के नामचीन कलाकार कानन मोहन, रंजीता ठाकुर एवं दुलारी ने ‘घर द्वार’ में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई थी. हिंदी फिल्मों के जाने-माने गायक मु. रफी एवं गायिका सुमन कल्याणपुर ने ‘घर द्वार’ के गीतों के लिए अपनी आवाजें दीं . ‘घर द्वार’ के गीत ‘सुन-सुन मोर मया पीरा के संगवारी रे…’, ‘गोंदा फुलगे मोर राजा…’ एवं ‘झन मारो गुलेल…’ आज भी लोगों की जुबान पर चढ़े हुए हैं.‘घर द्वार' फिल्म के बाद छत्तीसगढ़ी फिल्मों का निर्माण मानो थम सा गया लेकिन सन 2000 में छत्तीसगढ़ एक नया राज्य बन गया और एक बार फिर से फिल्म बनाने का दौर शुरू हुआ. सन 2000 में रिलीज़ हुई ‘मोर छईहा भुईया’ ने सिनेमा घरों में धूम मचा दी. 20 -30 लाख के बजट में बनी इस फिल्म ने करोड़ों का व्यवसाय किया और लगभग 6 महीने तक यह फिल्म सिनेमा घरों में लगी रही.


# क्या कहते है छत्तीसगढ़ी सुपरस्टार अनुज शर्मा

पद्मश्री अनुज शर्मा छत्तीसगढ़ी फिल्म के सुपरस्टार माने जाते है, इन्होने कई सुपर हिट फिल्मो में हीरो की भूमिका निभाई हैं.
अनुज शर्मा
अनुज शर्मा

अनुज शर्मा कहते है कि छत्तीसगढ़ सांस्कृतिक रूप से सबसे समृद्ध प्रदेश है, कला की कई विधाएं और रंग हैं, जिस पर काम किया जा सकता है. कई ऐतिहासिक घटनाएं, कई पौराणिक कथाएं, कई मान्यताएं, कई समाजिक समस्याएं है जिस पर पटकथा लिखी जा सकती है. इसे छत्तीसगढ़ी फिल्मों में रुपांतरित किया जा सकता है लेकिन यहां बजट की कमी एक बड़ी समस्या है और साथ ही छत्तीसगढ़ी फिल्मों पर पैसा लगाने वालों की कमी भी है. अगर बड़ी बजट की फिल्में यहां पर भी बनने लगी तो छत्तीसगढ़ी सिनेमा को निश्चित ही एक मुकाम हासिल हो सकता है.


# छॉलीवुड की समस्याएं

अधिकांश छत्तीसगढ़ी फिल्म बुरी तरह पिटती हैं जिसके बहुत सारे कारण हैं जैसे कि फिल्मों में रचनात्मकता की कमी, सरकार से किसी प्रकार की सब्सिडी या सहयोग नहीं मिलना, छत्तीसगढ़ी फिल्मों को बढ़ावा देने हेतु किसी भी प्रकार का कोई आयोग या फिल्म विकास निगम का गठन नहीं होना जिसकी वर्षो से मांग बनी हुई है.
छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ बोलने वाले लोगो को ‘देहाती’ अर्थात गांव वाला माना जाता है इसलिए छॉलीवुड अब तक एक यंग जनरेशन के दिल और दिमाग में नहीं उतर पा रहा है. अगर इन फिल्मों को बेहतर तरीके से बनाया जाये तो बेशक आने वाली पीढ़ी छत्तीसगढ़ी फिल्मो में जरूर दिलसचस्पी लेगी.
छत्तीसगढ़ में सिनेमा घरों की कमी भी एक बड़ी समस्या है, प्रदेश सरकर ने तहसील स्तर पर सिनेमा घर बनाने का वादा किया था लेकिन अब तक उस वादे पर अमल नहीं हो सका, पीवीआर एवं मॉल में छत्तीसगढ़ी फिल्मों को लगाया नहीं जाता जिसके कारण अब तक छत्तीसगढ़ी फिल्में छोटे परदे पर ही प्रदर्शित हो रही हैं .


# बॉलीवुड का नक़ल करने का आरोप

भारतीय सिनेमा का इतिहास 100 वर्ष पूर्ण कर चुका है तो छत्तीसगढ़ी सिनेमा ने भी 50 वर्ष पार कर लिए है.
छत्तीसगढ़ी फिल्मों ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है. लेकिन छत्तीसगढ़ी फिल्मों पर हमेशा बॉलीवुड की नकल करने का आरोप लगता रहता है. अधिकांश छत्तीसगढ़ी फिल्मो में नयापन नहीं होता, इन छत्तीसगढ़ी फिल्मो में महज कट, कॉपी, पेस्ट कर दिया जाता है. छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘हीरो नंबर 1’ राजेश खन्ना एवं गोविंदा की बॉलीवुड फिल्म स्वर्ग की कार्बन कॉपी है. छत्तीसगढ़ी सिनेमा की विफलता का एक मुख्य कारण लोगो की मानिसकता भी मानी जा सकती हैं, शहर के लोगों को छत्तीसगढ़ी ना समझ आती हैं और ना ही बोलनी, ऐसे में यह भ्रम बन गया है कि छत्तीसगढ़ी सिर्फ गांव के लोग (देहाती ) लोग ही बोलते हैं, शहर के लोग भी इस भाषा को सीखना और समझना चाहते हैं बशर्ते कोई सही और बेहतर तरीके से बताए. शहर के लोगों को कहना हैं कि वे छत्तीसगढ़ी मूवी देखना तो चाहते हैं लेकिन उन्हें छत्तीसगढ़ी समझ नहीं आती तथा इन फिल्मो में रचनात्मकता कि बहुत कमी होती हैं.
मनु नायक का इंटरव्यू -



# मजेदार होते हैं नाम

छत्तीसगढ़ी फिल्मों के नाम बेहद मजेदार होते है जैसे कि टूरि नंबर 1 (टुरी मतलब लड़की ) , लेड़गा नंबर 1 (लेड़गा मतलब मंदबुद्धि ),झन भूलो मां - बाप ला (अपने माता -पिता को मत भूलना) , राजा छत्तीसगढ़िया, महू दीवाना - तहू दीवानी , (मैं दीवाना -तू दीवानी ) आधा पागल, डिफाल्टर नंबर एक , लैला टीप टॉप, गोलमाल आदि .
Movie

यह देखा जाना बाकी है कि क्या हम प्रतिभा और विशेषज्ञता के खजाने की निधि को पहचानना शुरू करेंगे और क्षेत्रीय फिल्मों को प्रोत्साहित करेंगे और स्वयं की उपलब्धि को बढ़ावा देंगे. छत्तीसगढ़ी सिनेमा को अगर बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया जाये तो बेशक यह कला, साहित्य क्षेत्रीय सिनेमा और लोक कलाकारों के लिए सुनहरा अवसर होगा.


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