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'दुनिया में हुई उथल-पुथल के लिए महापुरुष नहीं, चमचे जिम्मेदार हैं'

मोदी के चमचे प्रहलाज निहलानी के बहाने याद आई हरिशंकर परसाई के 'चमचे की दिल्ली यात्रा.'

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फोटो - thelallantop
प्रहलाज निहलानी खबरों में हैं. उड़ता पंजाब फिल्म पर धक्का पेल कैंची चलाई गई है. फिल्म बनाने वाले अनुराग कश्यप गुस्सा हैं. प्रहलाज को जब लोगों ने घेरा तो वो बोल पड़े, 'हां मैं नरेंद्र मोदी का चमचा हूं.'  इत्ता सुनते ही हमें याद आया चमचा. दाल की कटोरी वाला चमचा नहीं. चापलूसी वाला चमचा. फिर याद आए हरिशंकर परसाई. क्या लिखते थे. सालों पहले 'चमचे की दिल्ली यात्रा' लिख गए थे. आज प्रहलाज के चमचा होने पर हमें उनका लिखा ये पीस याद आया, सोचा आपको पढ़ाना तो बनता है. इसलिए पेश कर रहे हैं. पढ़िए 'चमचे की दिल्ली यात्रा'
  चमचा याने ‘स्टूज’. हर बड़े आदमी का-कम-से-कम एक होता है. जिसकी हैसियत अच्छी है, वे एक से ज्यादा चमचे रखते हैं. सारे फरिश्ते भगवान के चमचे हैं. शैतान ने भगवान का चमचा बनने से इनकार किया, तो उसे स्वर्ग से निकाल दिया गया-जैसे गैर-चमचे को चुनाव-टिकट नहीं दिया जाता. एन्थनी ईडन चर्चिल के चमचे थे. बॉसवेल डॉ. जानसन का चमचा था. राष्ट्रपति लिंडन जानसन का चमचा जेन्किन्स था, जो चुनाव के कुछ दिन पहले यौन-अपराध में पकड़ा गया था. गांधीजी तक के चमचे थे. सबसे ज्यादा चमचे राजनीति के क्षेत्र के नेताओं के होते हैं. इतिहास साक्षी है कि दुनिया में जितनी उथल-पुथल हुई है, वह महापुरुषों के कारण नहीं बल्कि उनके चमचों के कारण हुई है. जब भी चमचे ने अपनी शक्ल से कुछ किया है, तभी उपद्रव हुए हैं. इसलिए हर बड़ा आदमी विश्वहित में इस बात की सावधानी बरतता है कि उसका चमचा कभी भी अपनी शक्ल का उपयोग न करे. मेरा अन्दाजा है, इस समय देश में राजनीति के क्षेत्र में लगभग पांच हजार चमचे काम कर रहे हैं. ये प्रधान चमचे हैं. फिर इनके स्थानीय स्तर के उपचमचे और अतिरिक्त चमचे होते हैं. ये सब हीनता, मुफ्तखोरी, लाभ और कुछ वफादारी की डोर से अपने नेता से बंधे रहते हैं. इनमें गजब की अनुशासन-भावना होती है. अगर किसी उपचमचे को जनपद की सीट का टिकट चाहिए तो वह सीधा नेता के पास नहीं जायेगा. वह प्रधान चमचे से कहेगा और प्रधान चमचा नेता से बात करके उसका काम करायेगा. इस तरह नेता का दुनिया से सम्पर्क सिर्फ चमचे के मारफत होता है और कुछ दिनों में उसका यह विश्वास हो जाता है कि इस विशाल दुनिया में मेरे चमचों के सिवा कोई और नहीं रहता. अपनी दुनिया को को इस तरह छोटा करके जीने का सुख नेता कुछ साल भोगता है और फिर उसी नाव पर इस सुख का बोझ उतना हो जाता है कि नाव नेता को लेकर डूब जाती है. चमचे तैरकर किनारे लग जाते हैं और दूसरे नेता के चमचे हो जाते हैं. उसके डूबने तक वे उस नेता के चमचे बने रहते हैं नेता मरता रहता है, चमचे अमर होते हैं. चमचा ज्यों-जयों परिपक्व होता जाता है, त्यों-त्यों नेता बनता जाता है. उसके अपने उपचमचे तरक्की पाकर चमचे हो जाते हैं और उसकी नाव डूबा कर खुद किनारे लग जाते हैं. कुछ चमचे जीवन-भर सिर्फ चमचा बने रहने का व्रत पालते हैं और पचीसों नेताओं को डुबाने का पुण्य प्राप्त करते हैं. चमचा बनना आसान नहीं है. एक अच्छे चमचे का निर्माण कई सालों में होता है. भारतीय जनतन्त्र का यह सौभाग्य है कि यहां स्वतन्त्रता के बाद बहुत जल्दी काफी संख्या में चमचे बन गये. इसका कारण यह है कि चमचों का निर्माण स्वतन्त्रता संग्राम के जमाने में शुरू हो गया था. उस दौर में नेता लोग अपने भावी चमचों को जेल भेजने की कोशिश करते थे. आन्दोलन में जब ऐसा लगता कि इस बार सरकार सख्ती कम करेगी, जेल कम दिनों की होगी और वहां आराम भी रहेगा, तब हर नेता अपने ज्यादा से ज्यादा चमचों को जेल भेजने की कोशिश करता था. तब जेल जाने क लिए वैसी ही होड़ होती थी जैसी अब चुनाव-टिकट के लिए होती है. जब भारत स्वतन्त्र हुआ और प्रजातन्त्र आया, तो हर नेता को अपने शिक्षित और अर्द्धनिर्मित चमचे मिल गये. इससे भारतीय प्रजातन्त्र में एकदम स्थायित्व आ गया. एशिया और अफ्रिका के नये स्वतन्त्र जिन देशों में आजादी की लड़ाई के दौर में चमचों का निर्माण इस तरह नहीं हुआ था, वहां प्रजातन्त्र नहीं टिक सका. चाहे साम्राज्यवाद हो, चाहे प्रजातन्त्र-दोनों चमचों की बुनियाद पर खड़े रहते हैं. चमचा बड़ी तरकीब से यह बात फैलाता है कि नेता का विश्वासपात्र है, उनका आत्मीय है और वे उसकी बात कभी नहीं टालते. वह उनके साथ जगह-जगह दिखता है. उनका बस्ता रखे रहता है. ठीक पीछे मुस्कुराता खड़ा रहता है. नेता के गले में माला पड़ती है, तो चमचा गद्गद् होता है. नेता आगे बढ़ता है, तो चमचा रास्ता बनाता जाता है. वह सफर में उनके साथ होता है, मंच पर पीछे बैठा मुग्ध होता रहता है, ड्राइंग-रूम में बैठा दिखता है और रसोईघर में भी घुस जाता है. लोग उसे देखते हैं और लाभ उठाने वाले समझ जाते हैं कि इसी की मारफत काम हो सकता है. चमचे की कीमत समाज में बढ़ जाती है. उसे लोग चाय पिलाते हैं, पान खिलाते हैं और वह ‘भैया सा’ब’ के गुण-गान करता है. यह कहना नहीं भूलता कि भैया सा’ब मुझसे पूछे बिना कुछ नहीं करते. किसी क्षेत्र के लिए वह ऐतिहासिक क्षण होता है, जब चमचा कहता है-राजधानी जाना है. भैया सा’ब ने बुलाया है. सारे इलाके में हलचल मच जाती है. दो-चार दुकानों पर बैठकर और दो-चार जगह चाय पीकर प्रचार कर देगा कि भैया सा’ब का काम उसके बिना नहीं चल सकता. इतना करके वह एक-दो दिन घर बैठ जाता है. उसके पास काम कराने वाले आने लगते हैं.
-कब जा रहे हो दिल्ली? -बस आज या कल. चला तो कल ही जाता, पर आज एक मीटिंग थी. -तो भैया, इस बार किसी तरह हमारा काम हो ही जाय. देखो, बहुत दिन हो गये. -हां-हां, इस बार हो ही जायेगा. वह तो पिछली बार ही हो जाता, पर सेक्रेटरी बाहर था. इस बार तो भैया सा’ब मिनिस्टर का हाथ पकड़वाकर करवा देंगे.
उपचमचे अपने काम में जुट जाते हैं और लोगों के चमचे के पास लाते जाते हैं. चमचा सबको विश्वास दिलाता है कि अगर यह सही है कि पृथ्वी घूम रही है, तो वह निश्चित ही अपने भैया सा’ब के आसपास घूम रही है. फिर वह सहज ही कह देता है-राजधानी में रहने-खाने का तो सुभीता है. भैया सा’ब के घर हो जाता है. पर साले दफ्तर बड़े दूर-दूर हैं. टैक्सी में बहुत पैसा लग जाता है. इस इशारे को काम कराने वाले समझ जाते हैं और उसे कुछ रुपये टैक्सी के लिए दे देते हैं. चमचा बहुत-से काम ले लेता है-किसी का परमिट लाना है, किसी को नगरपालिका में भेजना है, किसी पर से मुकदमा उठवाना है, किसी के हरजाने का मामला तय करना है, किसी का चुनाव-टिकट पक्का करना है. भैया सा’ब के लिए वह विरोधी गुट की कुछ कमजोरियां, कुछ षड्यन्त्र और फूट की कथाएं रख लेता है. इस तरह लैस होकर चमचा रेलगाड़ी में बैठ जाता है. भैया सा’ब के घर में चमचा बड़े हल्ले के साथ पांव पटकते हुए घुसता है. इसका कारण यह है कि वह जानता है, इस घर में मेरे आने का हक कोई नहीं मानता. आम चमचों से नेता के घर के लोग और नौकर नफरत करते हैं. वह चमचा हजारों में एक होता है जिसे नेता भी चाहे, उनका परिवार भी और नौकर भी. चमचा इस बात को जानता है, इसलिए अपने मन को मजबूत करने के लिए और सबको यह बताने के लिए कि यहां मैं घर का आदमी समझा जाता हूं, पांव पटककर घर में घुसता है. नौकर मुंह फेरकर हंसता है और फिर नाराजी से उसे देखता है. नेता की पत्नी कहती है-लो, वह फिर आ गया. चमचा जबरदस्ती अपने को घर में जमा लेता है. नेता ने उसे बुलाया नहीं है, पर वह आ गया है, तो उन्हें एतराज भी नहीं. अब चमचा अपना काम शुरू कर देता है. वह बातें करता जाता है. कभी नेता उसकी तरफ देख लेते है. कभी कोई सवाल कर देते हैं. मगर वे लगभग मौन सुनते जाते हैं. वे बैठक में हैं तो चमचा वहां बात कर रहा है. वे बरामदे में आ गये, तो चमचा बरामदे में आकर बात करने लगा. वे बाथरूम में गये, तो चमचा बाहर खड़ा-खड़ा बोल रहा है. पाखाने से तो संस्कारों के कारण नहीं बोलते पर नहाते हुए उसकी बात पर कभी ‘हूं’ कह देते हैं. नेता सर पर कंघी कर रहे हैं और चमचा पीछे खड़ा बोल रहा है.
-गुप्ता गुट के लोग सिन्धियों पर डोरे डाल रहे थे. मैंने कहा-देखो रे, सिन्धियों, अभी तुम्हारे बहुत-से ‘क्लेम’ बकाया है. जरा सोच-समझकर. बस उस दिन से गुप्ता गुट की दाल नहीं गली. -भैया सा’ब, इस बार हिरमानी को म्युनिसिपैलिटी में भेज दीजिए न. पक्का अपना आदमी है. -जैन लोग उस दिन मिले थे. मैंने कहा-भैया सा’ब ने कह दिया है, तो पत्थर की लकीर समझो. -साबूराम के लाइसेंस का मामला अभी लटक रहा है, भैया सा’ब. वह पीछे पड़ रहा है. -इस बार पी.सी.सी. में बड़ा तूफान उठेगा. रामसिंह की ‘इन्क्वारी’ का मामला है न. पर सुना है, ठाकुरों में फूट पड़ गयी है. आधे अपना साथ देंगे. -कलेक्टर आजकल गुप्ता गुट की बड़ी चिरौरी करता है. इसका तबादला होना चाहिए. वे लोग ‘लेच्छी’ को लेकर आपको बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं. -आजकल मिसराजी की बैठक डॉक्टर साहब के यहां बढ़ गयी है. मैंने डॉक्टर साहब को टटोलने की कोशिश की थी. मुझे तो शक है भैया सा’ब, कहीं उधर न चला जाय. उस इलाके में आपका एक बार आना बहुत जरूरी है.
चमचा इस तरह बोलता ही जायेगा. नेता सुनते रहेंगे और काम करते रहेंगे. नौकर ने चाय लाकर रखी, तो चमचे को फौरन एक बात सूझ गयी. उसने नौकर को पुकारा-क्यों रे देवी, यह क्या ले आया! तुझे मालूम नहीं है कि भैया सा’ब ‘स्ट्रांग’ चाय पीते हैं. ले जा इसे. दूसरी ला. भैया सा’ब ‘स्ट्रांग’ चाय नहीं पीते. वे एक घूंट पी भी लेते हैं. कहते हैं-ठीक है; रहने दो. चमचा कहता है-नहीं, रहने दीजिए. इसे ले जा, देवीसिंह. नौकर आकर खड़ा है. दुविधा में है कि कप उठाऊं या नहीं. इतने में नेता के ‘नहीं-नहीं’ कहने पर भी चमचा कप उठाकर नौकर को दे देता है. तुझे अकल नहीं है. अच्छी चाय बनाकर ला. चमचे के ‘ओवरएक्टिंग’ से सब स्तब्ध हैं-नेता की पत्नी, बच्चे और नौकर. भैया सा’ब सिर नीचा करके बरदाश्त कर लेते हैं. चमचा पालना बड़े धैर्य का काम है. तीन-चार दिन वहां रहकर चमचा नेता से रेल-किराया लेकर गाड़ी में बैठ जाता है. उसकी जेब में सभी के लिए आशा और आश्वासन भरे होते हैं.
चमचे की दिल्ली-यात्रा 'हरिशंकर परसाई: चुनी हुई रचनाएं' में प्रकाशित हुई. प्रकाशक - वाणी प्रकाशन. हमें वाणी प्रकाशन के सौजन्य से मिली. आभार और धन्यवाद वाणी प्रकाशन का.

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