तमन्ना भाटिया की फिल्म ‘बबली बाउंसर’ डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज़ हो गई है. फिल्म को बनाया है मधुर भंडारकर ने. वो मधुर भंडारकर जो ‘चांदनी बार’ और ‘हिरोइन’ जैसे हार्ड हीटिंग ड्रामा बनाने के लिए जाने जाते हैं. ‘बबली बाउंसर’ उस लीक से दूर खड़ी फिल्म है. एक लाइट हार्टेड ड्रामा. कामयाब कोशिश साबित हुई या नहीं, उस पर बात करेंगे.
मूवी रिव्यू: बबली बाउंसर
टेस्टोस्टरोन से भरी इंडस्ट्री में लड़कियां अपनी जगह कैसे बनाती हैं. ये अपने आप में एक इंट्रेस्टिंग सब्जेक्ट है. बस मसला ये है कि ‘बबली बाउंसर’ इसे भुना नहीं पाती.

फिल्म की कहानी शुरू होती है फतेहपुर बेरी गांव से. इस गांव को वास्तविकता में बाउंसर्स का गांव कहा जाता है. फिल्म में यहां हर कोई पहलवानी या वर्जिश करता ही दिखता है. बबली भी फतेहपुर बेरी की ही रहने वाली है. एकदम ठेठ देसी लड़की. देसी लड़की से जुड़े सारे स्टीरियोटाइप याद कर लीजिए. भरपूर खाती है. डकारें मारती हैं. पढ़ाई से कोई वास्ता नहीं. अंग्रेज़ी में हाथ तंग है. ये सारी बातें बबली में शामिल हैं. बबली किसी चीज़ को लेकर ज़्यादा सोचती नहीं. मानती है कि एक दिन तो वैसे भी शादी हो जानी है. लेकिन तभी अचानक एक दिन उनके गांव में एक शहरी लड़का आता है.
बबली को वो पहली नज़र में पसंद आ जाता है. इतना कि वो उसके पीछे दिल्ली तक आ जाती है. और दिल्ली आकर एक नाइटक्लब में लेडी बाउंसर की नौकरी करने लगती है. आगे बबली की लाइफ में क्या घटता है, ये फिल्म में कोई सवाल नहीं. क्योंकि फिल्म शुरू होने के थोड़ी देर बाद ही बहुत हद तक प्रेडिक्टेबल बन जाती है. मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा में पिछले कुछ वक्त से जितनी भी सोशल मैसेज देने वाली फिल्में बन रही हैं, उनका एक फिक्स फॉर्मूला है. पहले हाफ में ह्यूमर डालने की कोशिश की जाएगी. फिर सेकंड हाफ में मामला सीरियस होगा और मुद्दे की बात बताई जाएगी. दुर्भाग्यवश, ‘बबली बाउंसर’ भी फॉर्मूला में फिट होना चाहती है.
फिल्म के ट्रेलर, प्रोमोशन आदि में एक बात पर काफी ज़ोर दिया गया. कि यहां तमन्ना का किरदार बबली एक फीमेल बाउंसर है. कायदे से फिल्म को इस बात के इर्द-गिर्द सही शोर मचाना चाहिए था. लेकिन वो ऐसा कर नहीं पाती. बाउंसर्स को मेल डॉमिनेटिड इंडस्ट्री माना जाता है. यानी यहां काम करने वाले अधिकांश लोग हट्टे-कट्टे मर्द ही होंगे. ऐसे में एक लेडी बाउंसर की ज़रूरत क्यों पड़ी. बबली को नौकरी पर क्यों रखा गया. फिल्म इस वजह को बस छूकर निकल जाती है. इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं देती. टेस्टोस्टरोन से भरी इंडस्ट्री में लड़कियां अपनी जगह कैसे बनाती हैं, ये अपने आप में एक इंट्रेस्टिंग सब्जेक्ट है. बस मसला ये है कि ‘बबली बाउंसर’ इसको भुना नहीं पाती.
फिल्म अपना अधिकांश समय बबली की एक तरफा प्रेम कहानी को देना ज़रूरी समझती है. फिर अचानक याद आता है कि मैसेज भी तो देना था. तुरंत बाउंसर वाले ट्रैक पर आने की कोशिश करती है. तब तक देर हो चुकी होती है. हर किरदार का एक आर्क होता है. उसने अपना सफर कहीं से शुरू किया. फिर उसके साथ कुछ घटनाएं हुईं. जिन्होंने उसे प्रभावित किया, उसे बदला. वो रास्ते में आई चुनौतियों से पार पाता है. और इस तरफ अपना सफर पूरा करता है. बबली के केस में आपको उसका आर्क समझ नहीं आएगा. क्योंकि उसे ठीक तरह से परिभाषित ही नहीं किया गया. राइटिंग अपने आप में कन्फ्यूज़ दिखती है. कि वो लव स्टोरी पर ध्यान दे या सोशल मैसेजिंग पर. फिल्म के अंत में मुख्यमंत्री बबली को बहादुरी का अवॉर्ड देते हैं. फिल्म को इस नोट पर खत्म किया गया. ये ऐसी कोशिश लगती है कि मेकर्स लोगों को कुछ याद दिलाना चाह रहे हों. कि फिल्म वास्तविकता में थी किस बारे में.
‘बबली बाउंसर’ की लिखाई से इतनी शिकायतें करने की एक वजह है. कि उसने फिल्म के एक्टर्स के पोटेंशियल को इस्तेमाल नहीं किया. बबली का किरदार तमन्ना के लिए सब्स्टेंस वाला रोल था. ऐसा, जहां एक्टर्स के पास कुछ करने का स्कोप हो. उनकी बहुत सारी फिल्मों की तरह यहां उन्हें ग्लैमर अपील बढ़ाने के लिए नहीं लिया गया. तमन्ना भी इस मौके को हाथ से जाने नहीं देती. ठेठ, बिंदास किस्म की लड़की के रोल में फिट बैठती हैं. साथ ही यहां सपोर्टिंग कास्ट का काम भी हाइलाइट हुआ है. खासतौर पर सौरभ शुक्ला का. उन्होंने फिल्म में बबली के पिता का किरदार निभाया. जो बेटी की कोई बात नहीं टाल सकता. उसके लिए एक सॉफ्ट कॉर्नर रखता है. सौरभ शुक्ला को ऐसे किरदारों में देखना फन होता है.
अगर ‘बबली बाउंसर’ राइटिंग के लेवल पर दुरुस्त होती तो एक अच्छा ड्रामा साबित हो सकती थी. बस राइटिंग में क्लेरिटी होने की ज़रूरत थी. ताकि एक्टर्स का काम और निखर कर आ पाता.
वीडियो: मूवी रिव्यू - कठपुतली