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असुर 2 : सीरीज रिव्यू

सीरीज का कोई भी सीन उद्देश्यहीन नहीं है. हर एपिसोड के अंत में ऐसे क्लिफहैंगर छोड़े गए हैं, आप अगला एपिसोड देखने के लिए बाध्य हो जाते हैं.

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असुर की लिखाई बार-बार चौंकाती है

'असुर' के दूसरे सीजन का इंतज़ार 11 मुल्कों की पुलिस और सारा हिंदुस्तान कर रहा था. एक जून की तारीख तय हुई थी. उस दिन आए सिर्फ 2 एपिसोड. पर जनता की भारी डिमांड पर सारे एपिसोड 2 जून को एक साथ रिलीज कर दिए गए. हमने लिए हैं देख. अब बताते हैं, सीरीज कैसी है?

सीजन एक की कहानी जहां छूटी थी, वहीं से दूसरा सीजन शुरू होता है. सब जन मिलकर सीरियल किलर को ढूंढ़ रहे हैं. इस बार मामला दो धड़ों में बंटा हुआ है. धनंजय और नैना अपने तरीके से शुभ जोशी को खोज रहे हैं, निखिल और नुसरत अपने तरीके से. एक बड़ा कैरेक्टर इस सीजन इन्ट्रोड्यूज हुआ है, अनंत का. ऐसे ही एक दो और किरदार हैं. बाक़ी सभी पुराने ही हैं.

दूसरा सीज़न > पहला सीजन

पहले सीजन से लोगों को एक बड़ी शिकायत थी. कहा गया था कि आखिरी के एक-दो एपिसोड खींचे गए. इसलिए सीरीज अंत में थोड़ा बोझिल हो गई है. मुझे निजी तौर पर इस सीजन ये शिकायत नहीं लगी. इस सीरीज की आत्मा में एक बेहद महत्वपूर्ण, पर बारीक बदलाव किया गया है. पिछले सीजन में कई किरदार ऐसे थे, जो नैतिकता की झंडाबरदारी कर रहे थे. इस सीजन में उनकी मात्रा कम हुई है. अंत तक आते-आते ऐसे किरदार भी अनैतिक हो जाते हैं या कानून को ताक पर रखकर फैसले लेते हैं, जो घोर मर्यादित थे और दूसरों को भी मर्यादा का पाठ पढ़ाया करते थे. ये इस सीजन की अच्छी बात है क्योंकि असल ज़िंदगी में न कुछ पूरी तरह से ब्लैक होता है और न ही कुछ पूरी तरह से व्हाइट. ज़िंदगी इन दोनों के बीच ग्रे एरिया का नाम है. यदि किरदार भी ग्रे हो रहे हैं, तो इसका मतलब है, सीरीज और ज़्यादा वास्तविक हो रही है. एक जगह शुभ इन किरदारों के लिए कहता भी है, "अंत में तुम्हारी मर्यादा ही बचेगी, तुम्हारे आसपास के लोग नहीं." पिछले सीजन के मुकाबले इस सीजन में सभी कैरेटर्स की निजी ज़िंदगी को बहुत ही कम जगह दी गई है. इस बरस मेकर्स के पास शायद मेन प्लॉट के इर्दगिर्द ही इतना कुछ कहने को था, बैक स्टोरी पर ध्यान नहीं गया. ये बात मुझे अच्छी लगी. क्योंकि कई बार बैक स्टोरी के चक्कर में मेन प्लॉट पीछे रह जाता है.

कमाल लिखाई

'असुर' की जान है उसका लेखन. स्क्रीनप्ले भी अच्छा है और कहानी भी. गौरव शुक्ला और अभिजीत खुमन ने ना जाने इस लेवल को अचीव करने के लिए कितने ड्राफ्ट लिखे होंगे. इसके लिए ना जाने कितनी रिसर्च की गई होगी. उस रिसर्च को स्क्रीनप्ले में पिरोया बहुत सलीके से गया है. जहां लगता है मामला ज़्यादा ही टेक्निकल हो रहा है, उसके अगले सीन में सब स्पष्ट कर दिया जाता है. धनंजय और शुभ कई बार कहानी सुनाते हैं. वेदों के रेफ़रेस आते हैं. इनको मेन कहानी से जिस तरह से कनेक्ट किया गया है, वो काबिल-ए-तारीफ़ है. शो की सबसे अच्छी बात है, इसकी तर्किकता. ये तार्किकता डायलॉग्स में भी झलकती है. कई मौकों पर सीरियल किलर और उसके साथी जो बोलते हैं, आप उनसे सहमत तक हो जाते हैं. पर अगले ही क्षण डायरेक्टर ओनी सेन उसके मुंह पर तगड़ा तर्क फेंककर मारते हैं.

अरशद वारसी ने कमाल काम किया है

सीरीज का कोई भी सीन उद्देश्यहीन नहीं है. एकाध जगह मुझे लगा कि इतने तर्कशील लेखन के बीच, जिसमें आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की बात है, दकियानूसी हॉस्टेज सिचुएशन कहां से आ गई. या फिर अनंत के किरदार को चमत्कारिक क्यों दिखाया गया है? पर इन सबके तर्क आपको आगे समझ आते हैं. हर एपिसोड के अंत में ऐसे कातिल क्लिफहैंगर छोड़े गए हैं, आप अगला एपिसोड देखने के लिए बाध्य हो जाते हैं. इस मामले में पांचवा एपिसोड बहुत ज़ोरदार है. भयानक केओस पैदा होता है और उसे एकदम क्रेसेन्डो पर जाकर छोड़ दिया जाता है. आप सोचते हैं, अब कहानी आगे कैसे बढ़ेगी? पर कहानी अपनी रफ्तार से दोगुने रोचक ढंग से आगे बढ़ती है.    

अरशद वारसी ने ऐक्टिंग नहीं की है!

अरशद वारसी पिछले सीजन की तरह ही इस सीजन में भी कमाल हैं. धनंजय राजपूत के रोल में उन्होंने ऐक्टिंग की ही नहीं है. बस उस किरदार को खुद में उतारा है. वो एक बेहतरीन फॉर्म में चल रहे बल्लेबाज की तरह अपनी नई इनिंग की शुरुआत भी ऐसे करते हैं, जैसे घर से ही सेट होकर आए हों. ऐसे ही रिद्धि डोगरा के साथ है. उन्होंने भी अपने नुसरत के कैरेक्टर को पूरे संतुलन के साथ निभाया है. खासकर इमोशनल सीन्स में वो और ज़्यादा निखरकर आती हैं. नैना बनी अनुप्रिया ने भी ठीक काम किया है. बरुन सोबती के साथ मुझे कहीं-कहीं समस्या लगी. वो कई मौको पर क्लूलेस नज़र आए. जैसे ईशानी को जब उनकी आंखें ढूंढ़ रही होती हैं, बरुन वहां बहुत ओवरऐक्टिंग कर देते हैं. उनके काम में हिचकोले हैं. पॉल के किरदार में मियांग चैंग का काम मुझे बहुत भाया. उन्हें और काम मिलना चाहिए. स्क्रीन पर चैंग बहुत ग्रेसफुल लगते हैं. शुभ जोशी के किरदार में विशेष बंसल ने विशेष काम किया है. उनके मुंह से संकृतनिष्ठ हिंदी बहुत अच्छी लगती है. विशेष जिस ऊंचाई पर अपना किरदार छोड़ते हैं, वहां से अभिषेक चौहान उसे वैसा नहीं साध पाते. उन्होंने भी काम अच्छा ही किया है. पर विशेष ने शुभ जोशी की एक छवि हमारे मन में बना दी है. अभिषेक उसके क़रीब पहुंच नहीं पाते.

इतनी अच्छी बातों के बीच कुछ-कुछ कम अच्छी बाते भी हैं. जैसे VFX में नौसिखियाई है. धमाके का एक सीन है. जहां शुभ रिमोट के जरिए बम फोड़ता है. बेहद घटिया दर्जे के विजुअल एफेक्ट्स हैं. जैसे किसी ने फिल्मोरा गो से VFX बना लिए हों. डॉक्टर राव का कैरेक्टर अपनी लैब जला देता है और कई सालों तक वो ऐसे ही पड़ी रहती है, वो भी एक कॉलेज में. ऐसी ही कुछ-कुछ मिस्टेक्स हैं. एक डायलॉग है: "संसार में बहुत दुख है, बुराई है, निराशा है. परंतु पौधे पर कांटे होने से फूलों की, उनके रंगों की, उस पर मंडरा रही तितलियों की, हवा में फैल रही सुगंध की सुंदरता कम नहीं हो जाती है." ऐसा ही मेरा 'असुर' सीजन 2 के लिए कहना है. लपककर देख लीजिए.

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