डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर ‘अपूर्वा’ नाम की फिल्म रिलीज़ हुई है. निखिल नागेश भट ने फिल्म को लिखा और डायरेक्ट किया है. लीड रोल में तारा सुतारिया हैं. उनके अलावा राजपाल यादव, अभिषेक बैनर्जी, सुमित गुलाटी और धैर्य करवा जैसे एक्टर्स ने भी काम किया है.
अपूर्वा - मूवी रिव्यू
‘अपूर्वा’ को तारा सुतारिया का बेस्ट काम कह कर प्रमोट किया जा रहा था. ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर 2’ और उसके बाद आई अधिकांश फिल्मों में उन्हें ग्लैमर अपील के लिए रखा गया. ‘अपूर्वा’ में उसकी कोई जगह नहीं थी. यहां वो अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकली हैं.

तारा सुतारिया ने अपूर्वा नाम की लड़की का रोल किया. नॉर्मल लाइफ चल रही है. अपने मंगेतर को सरप्राइज़ करने के लिए आगरा की बस पकड़ती है. लेकिन रास्ते में उसे कुछ लोग किडनैप कर लेते हैं. किसी को नहीं पता कि वो कहां है. ऊपर से पुलिस मन मारकर काम कर रही है. ऐसे में वो कैसे अपनी जान बचाएगी, यही फिल्म की कहानी है. इतना सुनने पर लगेगा कि यहां कुछ नया नहीं और बहुत हद तक एंड भी प्रेडिक्टेबल है, अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो आप गलत नहीं. अगर किसी इंसान को कैद कर लिया गया तो दो ही आउटकम निकलेंगे, या तो उसे मार दिया जाएगा या वो बचकर निकल लेगा. परिणाम के हिसाब से नयेपन का स्कोप नहीं बचता. स्कोप बचता है कि उस एंड तक कहानी कैसे पहुंचती है. आपके किरदार को किन परिस्थितियों से गुज़रना पड़ता है, उसमें क्या बदलाव आते हैं, यही उसका सफर होता है. इस दौरान ऑडियंस भी अलग-अलग भाव महसूस करती है. डर, बेचैनी आदि. ‘अपूर्वा’ इस मामले में Texas Chainsaw Massacre जैसी धांसू स्लैशर फिल्म बन सकती थी. लेकिन ये बेनेफिट नहीं कर पाती और बादलों में ही घिरी रह जाती है.
# लंबाई डुबोए, लंबाई ही बचाए
फिल्म शुरू होती है चम्बल, मध्यप्रदेश से. एक समय में डाकुओं का गढ़. हमें चार मॉडर्न जमाने के डाकू दिखते हैं. सुक्खा, छोटा, जुगनू जैसे इनके नाम हैं. ये लोग पैसे लेकर लूट मचाते हैं और अपना दिल बहलाने के लिए मर्डर. राजपाल यादव, अभिषेक बैनर्जी, सुमित गुलाटी और आदित्य गुप्ता ने इन गुंडों का रोल किया है. इन किरदारों के ज़रिए फिल्म मेल इनसिक्योरिटी को हाइलाइट करना चाहती है. एक तरफ ये लोग बड़े फिगर जैसे दिखना चाहते हैं. किसी की जान ले ली, किसी को बख्श दिया, खुद सामने वाले के भगवान हो गए. ऐसे रफ एंड टफ दिखने वाले लोगों का चरित्र खोखली मर्दानगी पर गढ़ा गया है. कैसे कद पर कमेंट किया, मर्दानगी को लिंग से जोड़कर देखा, इन बातों पर ट्रिगर हो जाते हैं.

फिल्म में उन चारों के घिनौनेपन की पीछे की जड़ यही खोखली मर्दानगी थी. इसी की उत्तेजना में आकर वो बिना सोचे फैसले लेते हैं. फिल्म इस पर कमेंट करती है. बस उसकी गहराई में नहीं उतरती. फिल्म की लेंथ ही इसकी दुश्मन और मसीहा दोनों हैं. अच्छी बात ये है कि शुरुआती 15-20 मिनट के अंदर फिल्म अपने पॉइंट पर पहुंच जाती है. फिल्म की यही पेस उसे नुकसान भी पहुंचाती है. फिल्म इतनी तेज़ी से निकलती है कि उसके पास इमोशनल डेप्थ नहीं रहती. आपको किरदारों की ज़िंदगी से खास जुड़ाव महसूस नहीं होता. अपूर्वा एक लड़के से मिली. एक गाना आया और दोनों की सगाई तक हो गई. दोनों में कैसा रिश्ता है, उनकी बॉन्डिंग किस चीज़ पर हुई, ऐसी बातों को जगह नहीं दी गई.
अपूर्वा गुंडों से बचने की कोशिश कर रही होती है. उसे अपने आप ही मदद मिलने लगती है. भागते-भागते कुआं मिल जाता है. ज़मीन में धंसा हंसिया मिलता है. ऐसे फैक्टर किरदार का संघर्ष आसान बना देते है. साथ ही फिल्म की लिखाई को भी आलसी बनाते हैं.
# तारा सुतारिया की बेस्ट फिल्म?
‘अपूर्वा’ को तारा सुतारिया का बेस्ट काम कह कर प्रमोट किया जा रहा था. ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर 2’ और उसके बाद आई अधिकांश फिल्मों में उन्हें ग्लैमर अपील के लिए रखा गया. ‘अपूर्वा’ में उसकी कोई जगह नहीं थी. बेशक यहां वो अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकली हैं. अच्छा काम किया है. बस फिल्म को जल्दी-जल्दी भगाने के चक्कर में उन्हें ठीक से इस्तेमाल नहीं किया गया. उनके मन और चेहरे पर बेचैनी, डर को जगह देने की जगह फिल्म उन्हें दौड़ाती रहती है. अपूर्वा एक आम लड़की थी जो अचानक से मुसीबत में फंस गई. ऐसे में फिल्म उसके डर से बहादुरी तक का सफर तय नहीं करती. वो एक पल भाग रही है और थोड़ी ही देर में कुख्यात गुंडों को अपने प्लान में फंसा देती है. उसका ये ट्रांज़िशन खटकता है.

फिल्म को छोटा रखने और पेस तेज़ करने से मेकर्स को लगता है कि ऑडियंस के पास सोचने का समय नहीं होगा. सब इतना जल्दी में जो निकल जाएगा. बस यहां चूक ये कर देते हैं कि उसे इमोशनल डेप्थ से वंचित रख देते हैं. किसी भी कहानी के लिए इमोशन उसकी आत्मा है, बाकी स्टाइल, एक्शन सब ढांचा. इतनी सी बात है.
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