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आगरा : समाज के बेजां निर्मम और तटस्थ क्रिटीक की विस्फोटक रचना (Agra Review)

Titli फेम डायरेक्टर और फ़िल्म महोत्सवों के दुलारे Kanu Behl की नई फ़िल्म Agra कैसी है, जिसके लिए Cannes में लोगों ने खड़े होकर तालियां बजाईं? इसमें "आशिकी" वाले राहुल रॉय भी हैं जिन्हें पहचान पाना मुश्किल होगा. पढ़ें ये Agra Movie Review और टिप्पणी.

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Male sexual discontent और spaces की बात करने वाली इस इंडी फ़िल्म में 90 के दौर का बॉलीवुड भी प्रेमपूर्वक रखा गया है. जब गुरु का कैरेक्टर कैफे जाता है प्रियंका के कैरेक्टर से मिलने तो वहां पार्श्व में "कभी हां कभी ना (1999)" का "ऐ काश के हम होश में अब आने न पाएं" बज रहा होता है. दूसरी बार मिलते हैं तो बजता है "नजर के सामने जिगर के पास." "आशिकी" (1990) का गाना, जिस फ़िल्ग से डेब्यू करने वाले, सिल्की काले बालों वाले राहुल रॉय लंबे वक्त बाद "आगरा" में दिख रहे हैं, एक हार्ड हिटिंग रोल में.

     Rating: 4 / 5 Stars     

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अभी इंडियन सिनेमा के सबसे मौलिक सर्जकों में से एक, कनु बहल को फ्रांस के ल मॉन्ड अख़बार ने "जैक्सन पॉलक ऑफ इंडियन सिनेमा" कहा था. अमेरिकी पेंटर पॉलक, कला में अपने abstract expressionism के लिए मशहूर थे. कनु वह भी हैं, और कुछ अन्य भी हैं. बीते दस वर्षों में उनकी तीन फीचर फ़िल्में आई हैं - तितली, डिस्पैच और आगरा. ये तीनों मूर्त और अमूर्त से मिलकर ही अंकुरित हुई हैं. उन्होंने बाहरी यथार्थ को भी थामा, साथ ही अनगढ़ भीतरी भावनाओं को भी. 

पॉलक कहते थे, "मैं अपनी पेंटिंग के अंदर ही हूं, उसके बाहर नहीं खड़ा हूं". उनकी तरह कनु भी अपने फ्रेम्स में अपनी चेतना, क्रोध, ऊर्जा और अस्तित्व के रंग उडेलते हैं. कुछ अन्य जब होते हैं तो कनु बेजां निर्मम और तटस्थ critic होकर कथाएं रचते हैं. कभी कभी तो यह लगने लगता है कि वो अपने पात्रों पर ज़रा भी तरस नहीं खाते.

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जो कनु दुनिया के एलीट आर्टहाउस फिल्म फेस्टिवल्स की आंख के तारे हैं; जिनकी पहली ही फ़िल्म 'तितली' 2014 में 'कान' की अति दुर्गम 'अं सर्तेन रगाद' श्रेणी में गई; और, जिनकी 'आगरा' को 2023 में वहां पांच मिनट का स्टैंडिंग ओवेशन मिला, वे कट्टर सतर्क है. किस बात को लेकर? कि उनकी फ़िल्में एलीट न हो जाएं और दर्शकों के लिए सुगम रहें. बावजूद इसके कि वे अपने क्राफ्ट के स्तर पर इंतिहाई ग़ैर-कमर्शियल हैं.

यूं एक क्राइम जर्नलिस्ट पर केंद्रित, मनोज बाजपेयी अभिनीत थ्रिलर 'डिस्पैच' ही उनकी सबसे मेनस्ट्रीम फ़िल्म कही जा सकती है. लेकिन फिर उनकी 'आगरा' ऋत्विक घटक की क्लासिक फ़िल्म 'मेघे ढाका तारा' वाली व्यथित अंतरात्मा लिए हुए है, जो कि हर दर्शक को समान रूप से बींध जाती है.

“आगरा” बहुत विचलित करने वाली फ़िल्म है. हार्ड है. दिमाग खराब कर देने वाली. यह गुरु की कहानी है जो ताजमहल और ब्रिटिश काल में अपने पागलखाने के लिए मशहूर शहर में रहता है. उसका घर भी कुछ पागल मुर्गियों के दड़बे सा है. नीचे गुरु अपनी मां के साथ रहता है. ऊपर पिता अपनी गर्लफ्रेंड के साथ. घर के दो और स्टेकहोल्डर हैं. यानी कुल छह. सबको अपने कमरे चाहिए, अपना स्पेस चाहिए. 

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दमन और यौनिकता की रगड़ से जला गुरु का मस्तिष्क विकृत हो चुका है. इतना कि स्टीव मेक्वीन की “शेम” का सेक्स-एडिक्शन से तंग कुख्यात कैरेक्टर ब्रैंडन भी गुरु के आगे हेल्दी लगता है. फ़िल्म में बरास्ते मैजिक रियलिज़्म एक सीन में गुरु एक वयस्क स्त्री के आकार की गिलहरी (या चूहा?) के साथ सेक्स कर रहा होता हैं. संभवतः उन्हीं गिलहरियों में से एक जिन्हें ओपनिंग सीन में खाने की प्लेट में परोसा गया होता है और गमलों की मिट्टी के नीचे दबाया गया होता है.

“द ब्रूटलिस्ट” में एड्रियन ब्रॉडी ने हॉलोकॉस्ट उत्तरजीवी हंगेरियन-यहूदी वास्तुकार लाज़्लो टोथ को व्यक्त किया था. फ़िल्म में ब्रूटलिस्ट शब्द उन इमारतों और स्थानों के लिए भी है जो लाज़्लो को अमेरिका में बनाने को कहा जाता है, जबकि वे उसे उसी नाज़ी प्रताड़ना, जेलों, सीमेंट के सड़ांध मारते कमरों की याद दिलाती हैं जिनसे उसका शरणार्थी पात्र भागकर आया है. फ़िल्म में आउटर स्पेसेज़ और आर्किटेक्चर का केंद्रीय पात्र की आंतरिक मनः स्थितियों से सीधा ताल्लुक होता है. ठीक ऐसा ही “आगरा” में है. इसमें बाहरी स्पेसेज और भौतिक संरचनाएं किरदारों के आघातों, मनोविकारों, नया जीवन बनाने की महत्वाकांक्षाओं और संघर्षों का प्रतिबिंब ही हैं. 

दस साल पहले जब कनु ने “तितली” के बाद इस फिल्म को लिखना शुरू किया तो जो लिखा उससे डर गए. पीछे हट गए. फिर खतरनाक डेनिश फिल्मकार लार्स वोन ट्रियेर की एडिटर, मॉली स्टेन्सगार्द ने टोका कि जो करना चाहते हो कर क्यों नहीं रहे. तब झिझक जाती रही. 

नतीजतन, अब वो अभिव्यक्ति इतनी प्रखर है कि "आगरा" के कुछ दृश्य देखते हुए आपका दम घुटता है. इसका क्लाइमेट कैद करता है. गुरु का फिनाइल पीने वाला सीन हो, या यौन मनोविकारों के चलते घर की ही एक लड़की के साथ रेप करने का प्रयास वाला सीन तो सुन्न कर जाते हैं. 

“आशिकी” (1990) वाले रोमैंटिक हीरो राहुल रॉय को डैडीजी के प्रॉब्लमेटिक और तरस खाने वाले पात्र में देखना अनूठा है. उतना ही विलक्षण है "द व्हील ऑफ टाइम" जैसी विराट फैंटेसी सीरीज़ में जादूगरनी के मनरंजक रोल के बाद प्रियंका बोस को कैफे चलाने वाली विधवा प्रीति के यकीनी रोल में देखना, जिसका पैर पोलियो से खराब है और वो लंगड़ाकर चलती है.

अपनी फ़िल्मों के जरिए कनु चिकित्सकीय निष्पक्षता (Sergical objectivity) के साथ कई जरूरी बातों पर मौलिक और आर्टिस्टिक कमेंट्री कर रहे हैं. घर की राजनीति पर. पीढ़ी दर पीढ़ी के बुराइयों की circularity पर. पितृसत्ता पर. सेक्शुएलिटी पर. अर्बन स्पेसेज़ पर. दम घोंटने वाले स्थानों में रहते लोगों की मनोदशा पर. अपराध की उत्पत्ति पर. पत्रकारिता पर. स्त्री विषयों पर. समाज की सड़ांध पर. और फिर इन सभी के बीच के अंतर्संबंधों पर. 

अपने लिए उन्होंने अत्यंत कठोर मार्ग चुना है, जहां कम्फर्ट कम है और कष्ट ज्यादा. और ऐसा क्यों? सिर्फ खरे सिनेमा की साधना के लिए. 

Film: AGRA । Director: Kanu Behl । Story, Screenplay: Atika Chohan, Kanu Behl । Cast: Mohit Agarwal, Priyanka Bose, Rahul Roy, Vibha Chibber, Sonal Jha, Aanchal Goswami, Ruhani Sharma, Devas Dikshit । Run Time: 132 minutes । Release: 14th November, 2025 । Rated: A

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