लेफ्ट में उमराव जान का एक किरदार 'खानुम जान' जो शौकत कैफ़ी ने प्ले किया था. राईट में दो फेमिली फ़ोटोज़. टॉप में बेटी शबाना और पति कैफ़ी के साथ, नीचे एक्सटेंडेड फैमिली जिसमें जावेद अख्तर भी दृश्यमान हैं.
शौकत कैफ़ी. बीते शुक्रवार उनका देहांत हो गया. उनका एक इंट्रोडक्शन ये है कि वो मशहूर नज्मकार कैफ़ी आज़मी की वाइफ थीं. उनका दूसरा इंट्रोडक्शन ये है कि वो शबाना आज़मी की मां थीं. एक तीसरा इंट्रोडक्शन भी है जावेद अख्तर की सास के तौर पर. अब आप कहेंगे कि यूं तो वो ज़ोया अख्तर और फरहान अख्तर की नानी भी हुईं... ...सहमत. लेकिन हम आज उनके इन सभी परिचयों से थोड़ी दूरी बनाते हुए उनका अलग परिचय देना चाहते हैं. वो किसकी क्या थीं, ये नहीं. वो खुद में क्या थीं. ये. कॉमरेड शौकत कैफ़ी का अभी पिछले महीने ही बड्डे था. 21 अक्टूबर, 1928 को वो उत्तर प्रदेश में जन्मीं थीं. अपने पेरेंट्स के साथ हैदराबाद शिफ्ट हुईं. मंगनी किसी और से हो चुकी थी. लेकिन तोड़ दी. क्यूं? क्यूंकि एक शायर पर दिल आ गया. शायर का नाम कैफ़ी आज़मी. शादी हुई. 2 बच्चे हुए. शबाना आज़मी और बाबा आज़मी. एक कमाल की एक्ट्रेस और दूसरा कमाल का सिनेमाटोग्राफर. लेकिन अभी उनकी बात नहीं. अभी बात सिर्फ शौकत कैफ़ी की.
तो, शादी हुई. शादी के बाद पति-पत्नी ने मुंबई को ही अपना ठिया बनाने का सोचा. 'अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ' जॉइन किया. ये 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' (सीपीआई) की एक 'कल्चरल' ब्रांच थी. अब दोनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के रेड फ्लैग हाउस के एक कमरे में रहने लगे. रेड फ्लैग हाउस का नियम ये था कि चाहे आप कितने भी कद्दावर हों, किसी भी पेशे से हों, सुविधाएं और ज़िम्मेदारी बराबर बटेंगी. शौकत और उनके पति जो भी कमाते थे, रेड फ्लैग के नियम के हिसाब से पार्टी को दे देते थे. तब शौकत ने पृथ्वी थियेटर ज्वॉइन किया हुआ था. उसके बाद शौकत ने जुम्मा-जुम्मा 13-14 मूवीज़ में भी काम किया. जैसे ‘हीर रांझा’, ‘फासला’. लास्ट फिल्म थी ‘साथिया’. 2002 में आई थी. इस साल कैफ़ी आज़मी गुज़र गए थे. तब से शौकत भी फिल्मों में नहीं दिखाई दीं. खबरों में से भी गायब ही रहीं. अब उनकी कोई खबर आई है तो बुरी खबर आई है. 90 साल की उम्र में 22 नवंबर, 2019 को उनकी मृत्यु हो गई.
इंसान को उसका काम अमर कर जाता है. बड़ी क्लिशे लाइन है, लेकिन है बड़ी सटीक. और इसलिए उन्हें याद करने का इससे अच्छा रास्ता क्या होगा कि उनकी ऐसी 5 फिल्मों के बारे में बात की जाए जो अपने आप में ‘क्लासिक्स’ का दर्ज़ा पा चुकी हैं.
#1) ‘हक़ीकत’ (1964)
पति मूवी में आए. ऐज़ अ लिरिक्स राइटर. कुछ दिनों बाद शौकत भी आ गईं. ऐज़ एन एक्ट्रेस. पहली मूवी ‘हकीकत’. चेतन आनंद की मूवी. वो मूवी जिसकी खातिर चेतन आनंद ने ‘गाइड’ का निर्देशन छोड़ दिया था. इसमें लिरिक्स कैफ़ी आज़मी की ही थीं. ‘कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों’. इंडिया-चाइना वार पर आधारित इस मल्टी-स्टारर मूवी में बलराज साहनी, धर्मेंद्र, विजय आनंद जैसे लोगों ने एक्ट किया था. इनके अलावा इंद्राणी मुखर्जी, अचला सचदेव और शौकत आज़मी जैसे कलाकारों ने अपनी कमाल की एक्टिंग के बल पर फिल्म में जगह बनाई थी. फिल्म आज भी ‘इंडिया-चाइना’ वॉर के एक दस्तावेज़ की तरह देखी जाती है. रीड की जाती है.
#2) सलाम बॉम्बे (1988)
ये फिल्म दरअसल ‘कमाठीपुरा’ और कृष्णा के बारे में थी. ‘कमाठीपुरा’, मुंबई का एक ऐसा इलाका जहां कृष्णा भाग के आया है, और अब वो कृष्णा नहीं ‘चायपाव’ हो गया है. कमाठी मतलब मजदूर. उन्हीं का इलाका है कमाठीपुरा. ड्रग्स. बाल मजदूरी. ह्यूमन ट्रैफिकिंग का हब. यहां शौकत कैफ़ी के किरदार ‘गंगू बाई’ का भी अपना एक दबदबा है. लिमिटेड ही सही. क्यूंकि ‘गंगू बाई’, कमाठीपुरा के एक वेश्यालय की मालकिन है. फॉरन फिल्म कैटगरी के लिए ऑस्कर नॉमिनेटेड फिल्म ‘सलाम बॉम्बे’ भारत की कुछ बेहतरीन फिल्मों में से एक मानी जाती है. कई लिस्टिकल्स में तो दुनिया की बेहतरीन फिल्मों में भी इसका नाम है.
#3) हीर रांझा (1970)
चेतन आनंद. वही ‘हक़ीकत’ के डायरेक्टर. उनकी एक और अद्भुत फिल्म ‘हीर रांझा’. लिरिक्स राइटर, अगेन कैफ़ी आज़मी. अबकी तो डायलॉग्स भी उन्होंने ही लिखे. डायलॉग क्या थे. नज्में थीं. बिना तरन्नुम के. यानी बिना गाए और बिना म्यूज़िक के. इंद्राणी मुखर्जी, अचला सचदेव और शौकत आज़मी इसमें भी थीं. राज कुमार, प्रिया राजवंश, प्राण, पृथ्वीराज कपूर इसमें लीड थे. मूवी के ‘मिलो न तुम तो’ और ‘ये दुनिया ये महफिल’ जैसे गीत मदन मोहन की धुन पाकर टाइमलेस हिट हो गए. इस फिल्म के लिए ‘सिनेमाटोग्राफ़ी’ कैटेगरी का फिल्मफेयर अवॉर्ड जल मिस्त्री को मिला. जल मिस्त्री भी शौकत, कैफ़ी और प्रिया राजवंश की तरह ही चेतन आनंद कैंप के एक और हीरे थे, जिन्होंने एक साथ कई फ़िल्में कीं.
#4) उमराव जान (1981)-
शौकत कैफ़ी ने इसमें खानुम जान का रोल किया था. खानुम जान, जिसे फैज़ाबाद से किडनैप की गई एक लड़की अमीरन बेच दी गई है. खानुम जान, जो लखनऊ का एक कोठा चलाती है. अमीरन कौन? आगे जाकर उमराव जान बनने वाली एक छोटी लड़की. उमराव जान, रेखा का किरदार. उमराव जान रेखा की बेहतरीन फिल्मों में से एक थी. डायरेक्टर मुजफ्फर अली की शायद सबसे बेहतरीन फिल्म थी. दो फिल्मफेयर और चार नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली फिल्म. वेल रिसर्च्ड. लखनऊ के कोठों की दास्तां बयां करती. वहां के नवाबों और पूरे रहन सहन को ज्यों का त्यों बड़े पर्दे पर उतारती. खय्याम की धुनों में शहरयार का लिखा शायद ही कोई गीत होगा जो संगीत पसंद करने वालों ने न सुना हो, न एप्रिशिएट किया हो. फारूख शेख, नसीरुद्दीन शाह और राज बब्बर जैसे चोटी के कलाकारों से सजी ये फिल्म अपने दौर की बेहतरीन फिल्म मानी जाती है.
#5) बाज़ार (1982)-
कभी-कभी का स्क्रीनप्ले लिखने वाले सागर सरहदी ने डायरेक्टर के रूप में अपनी पहली ही फिल्म में तहलका मचा दिया. स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, फारूख शेख और सुप्रिया पाठक के अलावा इसमें शौकत कैफ़ी ने भी एक महत्वपूर्ण किरदार अदा किया था. फिल्म लड़कियों की शादी के खरीद फरोख्त के मुद्दे को उठाती है. मेहर के मुद्दे को उठाती है. इसमें शौकत का किरदार एक बिचौलिए, हाजन बी का था. वो शबनम की मां को कन्विंस करती है कि शबनम को बेच दे. ‘बाज़ार’ के ‘करोगे याद तो’, ‘फिर छिड़ी रात’. ‘दिखाई दिए’ जैसे गीत, अच्छे म्यूज़िक के शौकीनों के ज़हन और जुबान से कभी उतरे ही नहीं. लगभग 4 दशक बीतने को आए. मीर तकी मीर, मखदूम जैसे गज़लकार. खय्याम जैसे म्यूज़िक डायरेक्टर. इस फिल्म के लिए सुप्रिया पाठक ने बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का अवॉर्ड जीता था. वही, शबनम वाले किरदार के लिए.
ये 5 फ़िल्में, जिनकी बात हमने ऊपर की, इनके अलावा भी उन्होंने बहुत सी और बेहतरीन फिल्मों में काम किया है. 'फासला', 'जुर्म और सज़ा', 'वो मैं नहीं' और 'नैना' ऐसी ही कुछ और फ़िल्में हैं. इसके अलावा उनकी लास्ट मूवी 'साथिया' जो 2002 में रिलीज़ हुई थी उसकी मुख़्तसर सी बात हम कर ही चुके हैं. हालांकि ये उनकी लास्ट मूवी थी. लेकिन वो इसके बाद भी एक्टिव रहीं. एक ऑटोबायोग्राफ़ी लिखने लगीं. 'कैफ़ी और मैं'. 2006 में इस किताब को लॉन्च किया गया. कैफ़ी आज़मी की तीसरी पुण्य तिथि के उपलक्ष्य में. 22 नवंबर को, जब उनकी मृत्यु हुई, तब वो अपने घर में थीं. उनके पास उनकी बेटी शबाना थीं. पहले दिन से ही उनके परिवार से मिलने आने वालों का तांता लग गया. अगले दिन जब उन्हें सुपर्द-ए-ख़ाक किया गया तो भी लोग आते रहे.
दुःख की बात ये थी कि उस वक्त उनके दामाद अमेरिका में थे. वहीं से उन्होंने अपना शोक संदेश भिजवाया. जावेद अख्तर ने कहा कि मैं उनके लिए बेटे जैसा था. शबाना से मेरी शादी हो सकी इसमें शौकत आपा का बड़ा हाथ और बड़ा साथ था. शौकत कैफ़ी. जिन्हें सब प्यार से शौकत आपा कहते हैं. कॉमरेड शौकत कैफ़ी. जो उस दौर में रिबेलियन थीं जिस दौर के बंधनों को सोच कर ही हमारी रूह कांपती है. यकीनन, वो ऐसी न होतीं तो उनकी फैमिली की नींव ऐसी न होती. ऐसे कॉमरेड के अंतिम यात्रा पर निकलने पर एक सलाम तो बनता है. उनके ही बेटर हाफ के शब्दों में कहें तो-
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