दंगल के दृश्य में आमिर.
1. हरियाणवी एक्सेंट:
ये तीन डायलॉग 'सुल्तान' में
सलमान खान के पात्र के हैं.
# के लड़की है? जैसे डॉक्टर की साद्दी डॉक्टर से होवे है, इंजीनियर की इंजीनियर से, वैसे पेलवाण की जोड़ी पेलवाण से बणेगी ना! मैं इसी से साद्दी बणाऊंगा.
# मन्ने लागे है कि अंग्रेजी में लड़की जल्दी पटे है, आई लव यू बोलो और उसके बाद सीधा किस होवे है.
# असली पेलवाण की पहचान अखाड़े में नहीं जिंदगी में होवे है ताकि जब जिंदगी तुम्हे पटके तो तुम फिर खड़े हो और ऐसा दांव मारो कि जिंदगी चित्त हो जाए.
ये डायलॉग
आमिर के पात्र के हैं.
# हर खिलाड़ी की तरियां मेरा भी एक सपणा था, देस के लिए गोल्ड मेडल लाणा. जो मे करना चात्ता था, वो म्हारा बेट्टा करके दिखावेगा. देस के लिए गोल्ड जित्तेगा म्हारा बेट्टा.
# हर वो चीज जो पहलवानी से इनका ध्यान हटावेगी, मे उसने हटा द्यूंगो.
# रे मेडलिस्ट पेड़ पे नी उगते, उने बनाणा पड़ता ए. प्यार से, मेन्नत से, लगन से.
सलमान स्टारर 'सुल्तान' में उसके दोस्त गोविंद का रोल करने वाले अनंत शर्मा अपने उच्चारण के कारण सटीक लगे. बाकियों की हरियाणवी पर कोई खास काम नहीं किया गया. असली हरियाणवी के चार-पांच ऐसे शब्द जो फिल्मों में इस्तेमाल नहीं किए गए हैं, लाए जा सकते थे लेकिन सलमान या अनुष्का सबके पात्र दो ही ट्रिक करते हैं. जब 'मैं' या 'मैंने' बोलना हो तो 'मन्ने' बोलते हैं. जिस शब्द में भी 'न' आता हो उसे 'ण' कर देते हैं. उससे अधिक कुछ नहीं किया गया. वहीं आमिर की फिल्म में हरियाणवी के ज्यादा सही उच्चारण हैं जैसे - तरियां, द्यूंगो, सुरुवात, मने, इन्ने. बोलने का तरीका भी ज्यादा सही है. चूंकि कमर्शियल सिनेमा की चारदीवारी में रहकर ही भाषा या उच्चारण के साथ प्रयोग हो सकता था इसलिए इससे ज्यादा कुछ नहीं किया गया.
2. आमिर का पेट:
इन दोनों ही फिल्मों में सुल्तान और महावीर फोगाट के पात्र जीवन के एक मोड़ पर कुश्ती छोड़ देते हैं और उनके पेट निकल आते हैं. एक एक्टर के तौर पर यहां भी आमिर ने फिजिकली ख़ुद को ज्यादा बदला है. सलमान के पात्र का पेट आगे की ओर जरा निकल आता है, उसे करना कोई मुश्किल नहीं है. लेकिन आमिर का पेट साइड से भी बहुत फेल जाता है. ये कम समय में नहीं पाया जा सकता. पेट को यूं फैलाना बहुत मुश्किल है. लेकिन 'दंगल' में वो करते हैं. ट्रेलर में दो-तीन जगह ऐसा दिखता है. बॉलीवुड में अभी तक न तो कोई कमर्शियल एक्टर, न ही कोई आर्टहाउस फिल्में करने वाला एक्टर ऐसा कायपलट कर पाया है.
3. कहानी और मैसेज:
'सुल्तान' कहानी है एक लड़के की जो डिश की छतरियां इंस्टॉल करने का काम करता है. वह एक लड़की आरफा से टकरा जाता है और उससे प्यार करने लगता है. लेकिन वो लड़की रेस्लिंग में मेडल जीतना चाहती है और उसके पास प्यार वगैरह के लिए टाइम नहीं है. वो सुल्तान को इसी बात के लिए फटकार देती है और वो 'मर्द' है इसलिए दिल पर ले लेता है. उसके पहलवानी सिखाने वाले पिता के पास पहुंच जाता है कुश्ती सीखने. अपनी जिद के चलते वो सबको प्रभावित कर देता है. बाद में आरफा भी उससे प्यार करने लगती है. लेकिन फिर वो प्रेगनेंट हो जाती है. अपने सपने और करियर को छोड़ बच्चे को पैदा करने का बड़ा फैसला लेती है. फिर बच्चा डिलीवरी के दौरान मर जाता है क्योंकि ख़ून की कमी होती है. सुल्तान इस दौरान उसके पास नहीं होता. इसी से दोनों में मनमुटाव हो जाता है. सुल्तान कुश्ती छोड़ देता है. लेकिन फिर गांव में ब्लड बैंक बनाने का अपना सपना पूरा करने के लिए वो मिक्स्ड मार्शल आर्ट्स नुमा कुश्ती के टूर्नामेंट में जाने का फैसला लेता है और जाता है. वहां बहुत मुश्किलों के बीच खुद को लड़ने लायक बनाता है. दो बातें इसके बाद हमें बताई जाती हैं. पहली ये, कि कुश्ती किसी बाहर वाले से लड़कर जीतने की नहीं बल्कि उससे भिड़ने की कला है जो भीतर है. दूसरी ये कि सुल्तान-आरफा फिर से एक होंगे कि नहीं? ये कहानी लोगों को एंटरटेन करने के इरादे से ज्यादा बनाई गई है इसलिए इसमें 'बेबी को बेस पसंद है' और '440 वोल्ट' से जैसे गाने डाले गए हैं जिनका कहानी से कोई लेना देना नहीं. इसमें हीरो पर पूरी फिल्म फोकस कर दी गई है. आरफा साइडलाइन्स में रहती है. 'सुल्तान' में सार्थक बात ये है कि ये हिंदी सिनेमा में मुस्लिम किरदारों के प्रति जो स्टीरियोटाइप बने हैं उन्हें तोड़ती है. कहानी के दोनों लीड कैरेक्टर मुस्लिम है और उन्हें मुस्लिमों से जुड़े घिसे-पिटे टोटकों से मुक्त रखा जाता है. इसमें कन्या भ्रूण हत्या रोकने वाला मैसेज भी है. फिल्म में दीवारों पर ऐसा लिखा आता है. फिर आरफा जैसा मजबूत किरदार जो अपने फैसलों को लेकर पहले बहुत स्पष्ट होती है. वहीं 'दंगल' की कहानी पहलवान महावीर सिंह फोगाट की है जो कुश्ती में देश के लिए गोल्ड लाना चाहता था, नहीं ला पाया. अब वो चाहता है कि उसके बेटा हो तो उसे वो टॉप रेस्लर बनाएगा. लेकिन बेटियां होती जाती हैं. वो अपनी बेटियों से कोई नफरत नहीं करता लेकिन उसका सपना भी टूट जाता है. फिर एक दिन उसे एक घटना के बाद अहसास होता है कि गोल्ड तो गोल्ड है, वो लड़का ही क्यों, लड़की भी ला सकती है. और वो अपनी बेटियों को ट्रेन करना शुरू करता है. लेकिन चुनौती ये बनती है कि कुश्ती उसकी बेटियों का सपना नहीं है. महिला सशक्तिकरण की राह में उन लड़कियों के सपने और हसरतें पीछे छूट जाती हैं. महावीर निर्ममता से हर वो चीज कुचल देता है जो उसकी बच्चियों के विनर बनने के रास्ते में आती हैं. बच्चियां आइने में देखकर अपने बाल संवारती हैं तो वो बाल कटवा देता है. वो शादी में नाचती है तो वो डरा देता है. वे रोती हैं लेकिन पिता पूरी तरह कोच बन चुका होता है. फिर लड़कियां भी इसे नियति मानकर कुश्ती को जीवन बना लेती हैं.

'दंगल' की झलक से लगता है कि ये एंटरटेनमेंट के लिए समझौते नहीं करेगी. कुछेक मौकों पर इसमें मेलोड्रामा जरूर डाला दिखता है. जैसे एक जगह महावीर सिंह का पात्र कहता है, "अपणा तिरंगा सबसे ऊपर लहरावेगा." असल में कोई ऐसे बात नहीं करता है. ऐसे डायलॉग दर्शकों की भावनाओं का दुरुपयोग करने के लिए लिखे जाते हैं. जाहिर है 'दंगल' भी अपने संदेश के साथ ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच पहुंचना चाहती है और भावनाओं का सहारा लेकर अच्छा संदेश देना चाहती है इसलिए इसमें ऐसा होता है. लेकिन बॉलीवुड टाइप डांस-गाने और चीप डायलॉग 'दंगल' में नहीं है. ये मजबूत बात है. इसके इतर ट्रेलर देख लगता है कि जैसे फिल्म में महावीर का पात्र ये महसूस करता है कि लड़के और लड़की बराबर होते हैं, कहानी की ग्रोथ में हमें भी यही समझा पाने की कोशिश होती है और इस कहानी का तरीका ऐसा है कि अंत तक दर्शकों के भीतर ये बदलाव भी हो चुका होगा. इस लिहाज से 'दंगल' ज्यादा खरी है. 'सुल्तान' के मुकाबले 'दंगल' अपनी कहानी और मैसेज के प्रति ज्यादा ईमानदार रहती है.
4. Authenticity:
'दंगल' की शूटिंग पंजाब और हरियाणा में असली लोकेशन पर हुई है, वहीं 'सुल्तान' की ज्यादातर शूटिंग सेट पर.

इसी तर्ज पर फिल्म के हर विभाग में 'दंगल' ज्यादा ऑथेंटिक है. 'सुल्तान' में सलमान का स्कूटर, हाफ स्वेटर, स्पोर्ट्स शूज़, ट्राउजर्स सब नकली नहीं लगते, ऑथेंटिक ही लगते हैं लेकिन 'दंगल' ज्यादा प्रभावी इसलिए हैं इसमें ब्यौरा ज्यादा बेहतर है. महावीर के रोल में आमिर सफेद कुर्ता-पायजामा, गमछा और हाथ में सिल्वर टाइप घड़ी बहनते हैं. ये कपड़े पूरी तरह मिसफिट होते हैं, ठीक वैसे ही जैसे गांवों में लोग कपड़े 'डम्ब' से पहनते हैं. वे फैब्रिक की क्वालिटी, अपने लुक, फिज़ीक, प्रिंट वगैरह से elegant और elite लगने की कोशिश में नहीं होते.

महावीर की बेटियों के रोल में लड़कियों के कपड़ों को देख लें या साथ रहने वाले अन्य बच्चों को. सब घिसे हुए, दाने निकले हुए कपड़ों में होते हैं. लड़कियां जब जरा बड़ी हो जाती हैं तो उसकी टी-शर्ट ऊपर होने लगती है लेकिन वे उन्हें पहनती है क्योंकि अभी तक वो फटी नहीं हैं. किसी पात्र के कपड़ों पर इस्त्री नहीं की होती. सब कपड़े मेले होते हैं यानी वो दो-तीन दिन तक एक ड्रेस पहनते हैं. महावीर सिंह जिस घर में रहता है उसकी दीवारें, उसका रंग, कूलर, परदे, दरवाजे सभी ऑथेंटिक हैं. महावीर स्कूटर पर अखाड़े के सामने से निकल रहा है उसे ही देख लें.
5. दलेर मेहंदी:
पीरियड फिल्मों या बायोपिक्स में टाइटल सॉन्ग ऊंचे पिच पर रखा जाता है. फिल्म के नाम और कुल जमा इमोशन को गायक की ललकार आसमान की ऊंचाई पर ले जाती है. इस मामले में हालिया अच्छा उदाहरण राकेश मेहरा की फिल्म 'मिर्जया' रही. इसमें दलेर मेहंदी से टाइटल सॉन्ग 'मिर्जया' गवाकर बहुत चतुराई का काम किया गया. दलेर की आवाज में वो बात है जो 'सुल्तान' के सुखविंदर सिंह या 'मंगल पांडे' के कैलाश खेर में नहीं है. 'दंगल' में दलेर की आवाज में जब ये पंक्ति आती है,
"रे भेड़ की हाहाकर के बदले शेर की एक दहाड़ है प्यारे" तो वो ट्रेलर का सबसे ऊंचा नोट होता है. देखने वाले को पता नहीं होता कि उसके अंदर कुछ ऐसा क्या हो रहा है जो उसके अंदर ख़ून की रफ्तार बढ़ा दे रहा है, जो उसे भेजे में सन्निपात कर दे रहा है. 'सुल्तान' का म्यूजिक अच्छा था लेकिन 'दंगल' में दलेर की आवाज में टाइटल सॉन्ग कहानी के आवेग को बढ़ा देता है, उसे नाटकीयता देता है. यहीं अगर सुखविंदर या कैलाश या विशाल ददलानी से गवाया जाता तो बात नहीं बनती थी. https://youtu.be/wPxqcq6Byq0 https://youtu.be/x_7YlGv9u1g