बिक्रम विधानसभा का समीकरण दिलचस्प है. महागठबंधन बना तो सीट गयी कांग्रेस के खाते में. प्रत्याशी आए सिटिंग MLA सिद्धार्थ सौरव. पटना के मशहूर डॉक्टर उत्पल कांत के बेटे. कई सारे आपराधिक मामलों की फ़ाइल में नामज़द हैं. सबसे पहले 2010 में लोजपा के टिकट पर लड़कर हारे थे. 2015 में लोजपा और भाजपा साथ हुए, तो टिकट का मामला बैठा नहीं. कांग्रेस ने टिकट पकड़ा दिया. जीत गए. और इस साल के चुनाव में कांग्रेस ने फिर से भरोसा दिखाया. 86 हज़ार 1 वोट पाकर सीट निकाल ले गए.

अब बाग़ियों के गेम बिगाड़ने वाली बात. इस सीट पर भाजपा ने टिकट दिया अतुल कुमार को. चांपकर कैम्पेन किया लेकिन भाजपा के बाग़ी ने गेम कर दिया. बाग़ी का नाम अनिल सिंह. अनिल सिंह इस सीट पर भाजपा के ही टिकट पर विधायक रह चुके हैं. राजनीति शुरू की कांग्रेस प्रखंड अध्यक्ष. कांग्रेस के युवा कांग्रेस अध्यक्ष बनते हैं पटना से. फिर आता है समय 2005. अनिल सिंह के भी अंदर भी वही ख़्वाहिश, जो हर नेता की होती है. टिकट की. कांग्रेस में दो बार कट गया. लोजपा ने टिकट दिया 2005 में. अनिल सिंह चुनाव जीत गए. फिर से चुनाव हुए तो भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा. फिर से जीत गए. साल 2010 के चुनाव में अनिल सिंह ने ही सिद्धार्थ सौरव को इसी सीट पर महज़ 2 हज़ार वोटों से हराकर जीत दर्ज की थी. और फिर उन्हीं से 2015 में हारे.

इस बार भी लगा कि पार्टी भरोसा करेगी. क्यों ऐसा लगा? क्योंकि लोग कहते हैं कि ज़मीन से जुड़े हुए नेता है. जनसम्पर्क बहुत बढ़िया है. घर-द्वार ज़रूर आते हैं. और राजनीति में विधायक काम करे न करे, दुआरे पर अगर चाय-भोज-भात-तेरही तोड़ ले, तो भी बहुत बड़ी बात है.

लेकिन बीजेपी ने अपना मैनेजमेंट बदला तो टिकट वितरण का तरीक़ा भी. अनिल सिंह का टिकट कट गया. और किंचित नए चेहरे अतुल कुमार को बीजेपी ने टिकट दे दिया. अनिल सिंह बाग़ी. निर्दलीय लड़ने के लिए कमर कस ली. चौचक जनसम्पर्क किया. और इस चुनाव में 50 हज़ार से ज़्यादा वोट निकाल ले गए. भले ही जीत नहीं पाए, लेकिन अपना हिसाब बराबर कर लिया. बीजेपी के अतुल 14 हज़ार कुछ वोट पाकर ही संतोष कर सके.