मान लीजिए आपसे कोई क्रिकेट टीम बनाने को कहे, तो क्या आप उसमें सिर्फ बैट्समैन या सिर्फ बॉलर को रखेंगे? या फिर बैट्समैन और बॉलर दोनों को मिलाकर टीम बनाएंगे? जाहिर तौर पर बैट्समैन और बॉलर दोनों को. ताकि बॉलर्स सामने वाली टीम को ज्यादा रन बनाने से रोक सकें, और बैट्समैन ज्यादा रन बना सकें. इनवेस्टमेंट की दुनिया में भी यही तरीका काम करता है. उसके मुताबिक सारा पैसा सिर्फ स्टॉक या सिर्फ म्यूचुअल फंड में लगाना भारी पड़ सकता है. इसलिए क्रिकेट की तरह यहां भी जरूरी है कि आपकी टीम में सभी तरह के खिलाड़ी हों. यानी कि कुछ निवेश शेयरों में हो तो कुछ फिक्स डिपॉजिट् में. इनवेस्टमेंट की दुनिया में पैसों के बंटवारे को एसेट एलोकेशन कहते हैं.
क्रिकेट से समझें निवेश का खेल, वर्ना पैसा कमाने की जगह भट्ठा बैठ जाएगा
सारा पैसा सिर्फ स्टॉक या सिर्फ म्यूचुअल फंड में लगाना भारी पड़ सकता है. इसलिए क्रिकेट की तरह यहां भी जरूरी है कि आपकी टीम में सभी तरह के खिलाड़ी हों.
.webp?width=360)
अब आप सवाल पूछ सकते हैं कि ये कैसे पता चलेगा कि कितना पैसा कहां लगाना है? तो बता दें कि इसका कोई तय फॉर्म्यूला नहीं है. एसेट एलोकेशन का तरीका हर शख्स के लिए अलग होता है. हर निवेशक अपनी जरूरत के हिसाब से अपनी स्ट्रैटजी बना सकता है. मसलन, कितने रुपये निवेश करने हैं, कितने समय के लिए निवेश करना है, इनवेस्टमेंट का मकसद क्या है और इनवेस्टमेंट पर कितना रिस्क उठा सकते हैं. इन चीजों के आधार पर निवेशक तय कर सकते हैं कि कौन से एसेट में कितना पैसा लगाना है. एसेट एलोकेशन को समझने से पहले जान लेते हैं कि फिलहाल मार्केट में कितनr तरह के एसेट्स उपलब्ध हैं, जिनमें निवेश कर सकते हैं.
निवेश का एक मात्र मकसद होता है पैसे से पैसा बनाना. हर वो चीज जिसमें निवेश करके पैसे को बढ़ाने का मौका मिलता है, एसेट क्लास कहलाती है. जैसे कि एफडी, बॉन्ड, शेयर, म्यूचुअल फंड वगैरह. हर एसेट क्लास में कुछ रिस्क होते हैं, पैसे बढ़ने के साथ-साथ घटने का भी डर होता है, रिटर्न की दर और टैक्स की दर जैसी अहम चीजें होती हैं. निवेश के मकसद के हिसाब से इनवेस्टर तय कर सकते हैं कि कौन सा एसेट क्लास उनके लिए सही रहेगा. कुछ पॉपुलर एसेट क्लास के बारे में जानते हैंः
फिक्स्ड डिपॉजिटः वो सभी एसेट क्लास जहां निवेशकों को तय समय तक इनवेस्टमेंट जमा रखने के बदले फिक्स रिटर्न मिलता है, फिक्स्ड डिपॉजिट एसेट कहलाते हैं. इसमें सरकारी बॉन्ड, कॉरपोरेट बॉन्ड, कॉरपोरेट डेट सिक्योरिटीज वगैरह आते हैं.
इक्विटीः शेयर और शेयरों से जुड़े निवेश वाली सभी चीजें इस कैटेगरी में आती हैं. यहां कोई फिक्स रिटर्न नहीं मिलता है. जिस हिसाब से शेयर बाजार में उतार चढ़ाव होता है उसी हिसाब से इनवेस्टर्स का पैसा भी घटता बढ़ता है.
गोल्डः भारत में खासकर गांव के इलाकों में लोग सालों से गोल्ड में निवेश करते आए हैं. गोल्ड में पैसे लगाकर अपने निवेश को महंगाई के मुकाबले ज्यादा बढ़ा सकते हैं.
रियल एस्टेटः अगर आपके पास प्रॉपर्टी में निवेश करने लायक पैसा है तो थोड़ा निवेश यहां भी करना चाहिए. रियल एस्टेट प्रॉपर्टी के दाम भी काफी तेजी से बढ़ते हैं.
नगदी वाले एसेटः ऐसे एसेट जहां पैसे को भुनाना बेहद आसान हो. या जिनका मैच्योरिटी पीरियड 90 दिनों से एक साल का हो. ऐसे एसेट्स में निवेश से ये फायदा होता है कि इमरजेंसी में पैसे की जरूरत पड़ी तो इन्हें बेचकर आसानी से नगदी निकाली जा सकती है.
इंडिया में फिलहाल निवेशकों के पास इनवेस्टमेंट के लिए एसेट क्लास के यही विकल्प मौजूद हैं. अब सवाल उठता है कि एसेट एलोकेशन आखिर जरूरी क्यों है?
दरअसल, सभी एसेट एक रफ्तार से नहीं बढ़ते हैं. या यूं कहें कि सभी में रिटर्न पॉजिटिव ही मिले ये जरूरी नहीं होता. ऐसे में कई एसेट क्लास में पैसे लगाने वाले निवेशक फायदे में रहते हैं. एक एसेट क्लास के नुकसान की भरपाई दूसरा एसेट क्लास कर देता है. यानी मार्केट खराब रहने पर भी आपका रिटर्न नेगेटिव में जाने की बजाय तुलनात्मक रूप से बेहतर रहता है. सही एसेट एलोकेशन की स्ट्रैटजी निकालने के लिए फाइनेंशियल एडवाइजर्स की मदद ले सकते हैं. इसे और अच्छे से समझने के लिए क्रिकेट टीम वाला उदाहरण फिर से लेते हैं.
मान लेते हैं किसी ने टीम में सिर्फ बॉलर रखे हैं. ये टीम सामने वाली टीम को ज्यादा रन बनाने से रोक लेगी. मगर रन बनाने में इस टीम की पसीने छूट जाएंगे. क्योंकि उस टीम में सिर्फ बॉलर हैं. इस टीम के जीतने की गुंजाइश भी कम होगी. यही हाल आपके इनवेस्टमेंट का भी होगा.
मिसाल के तौर पर किसी ने पूरा पैसा सिर्फ फिक्स्ड रिटर्न वाले एसेट में लगाया है. चूंकि, रिटर्न की गारंटी है, इसलिए मार्केट ऊपर जाए या नीचे आपको रिटर्न मिलेगा ही मिलेगा. लेकिन निवेश के साथ आपने जितने रिटर्न की उम्मीद की होगी या जितनी रकम की जरूरत होगी वो पूरा नहीं होगा. इसलिए कहा जाता है कि अलग-अलग तरह के एसेट में पैसे बांट देने चाहिए. क्योंकि अक्सर ऐसा होता है कि अगर कोई एक एसेट काम खराब परफॉर्म कर रहा है तो दूसरा अच्छा रिटर्न देता है. इस तरह आप निवेश पर बढ़िया कमाई कर लेते हैं.
सही इनवेस्टमेंट स्ट्रैटजी निकालने का तरीकाहर इंसान की जरूरतें अलग होती हैं. मान लेते हैं एक आदमी को 5 साल बाद घर खरीदने के लिए पैसे जुटाने के लिए इनवेस्ट करना है. दूसरे को बच्चे की हायर एजुकेशन के लिए पैसे जुटाने हैं. दोनों ही मामलों में अलग-अलग अमाउंट की जरूरत होगी. इसलिए एसेट एलोकेशन की स्ट्रेटजी भी अलग होगी.
एसेट चुनते समय ये देखना चाहिए कि फलां एसेट में रिस्क की दर कितनी है. उसके बाद देखें कि क्या वो ये रिस्क उठाने को तैयार हैं. उदाहरण के लिए, शेयर बाजार ले लेते हैं. वहां रिटर्न ज्यादा है तो रिस्क भी उतना ही है. कोई शेयर एक दिन में 10 पर्सेंट बढ़ सकता है तो घट भी सकता है. ऐसे में आपको देखना होगा कि आपका इनवेस्टमेंट अगर एक दिन में डूब जाए तो आप पर, आपकी जिंदगी पर इसका कितना असर पड़ेगा? अगर काफी ज्यादा असर पड़ेगा तो आपको शेयरों में पैसे लगाने से बचना चाहिए.
पहले ये देखें कि मुझे पैसे कब चाहिए होंगे'. फिर देखें कि उतने समय में किन एसेट में ठीकठाक रिटर्न मिल रहा है. ऐसे एसेट क्लास की लिस्ट बनाएं और उसमें रिस्क के हिसाब से इनवेस्ट कर दें. कुछ ऐसी स्ट्रैटजी हैं जो एसेट एलोकेशन में आपके काम आ सकती हैं.
एसेट एलोकेशन के टाइपएज बेस्ड एसेट एलोकेशन (Age Based Asset Allocation): इस तरीके में निवेशक की उम्र के आधार पर एसेट्स का चुनाव होता है. सक्षम वेल्थ प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्टर समीर रस्तोगी बताते हैं कि सबसे पहले उम्र को 100 में घटा लें. जितना नंबर आए उतना पर्सेंट शेयरों में लगा दें. बाकी की रकम को अन्य दूसरे एसेट क्लासेज में लगा दें.
मिसाल के तौर पर, एक 30 साल के शख्स को (100-30= 70) 70 फीसदी इनवेस्टमेंट शेयरों में करना चाहिए. बाकि, 30 फीसदी रकम अपनी जरूरत के हिसाब से अन्य एसेट्स में लगा सकता है. इस तरीके में जैसे-जैसे निवेशक की उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे उसका रिस्क घटता जाता है.
2. कॉन्सटैंट वेट एसेट एलोकेशन (Constant Weight Asset Allocation): इस तरीके में फाइनेंशियल एडवाइजर ‘बाइ एंड होल्ड’ की पॉलिसी अपनाते हैं. एडवाइजर ने शुरुआत में जिस हिसाब से एलोकेशन किया है टारगेट पूरा होने तक उसमें कोई बदलाव नहीं होता. बल्कि, मार्केट जैसे ही नीचे जाता है उन एसेट्स में और खरीदारी कर ली जाती है. उदाहरण के तौर पर, अगर एडवाइजर ने 60 फीसदी शेयरों में, 20 फीसदी एफडी में, 20 पर्सेंट गोल्ड में लगाया है. अब अगर शेयर बाजार नीचे जाता है तो तीनों एसेट और निवेश किया जाएगा, वो भी इसी अनुपात में.
3. इंश्योर्ड एसेट एलोकेशन (Insured Asset Allocation): यह स्ट्रैटजी उन लोगों के लिए सही रहती है जो ज्यादा रिस्क नहीं उठा सकते. इस तरीके में एडवाइजर एक रकम तय कर देते हैं और निवेश को उससे नीचे जाने लगे तो स्ट्रैटजी तुरंत बदल दी जाती है.
4. डायनैमिक एसेट एलोकेशन (Dynamic Asset Allocation): निवेशकों के बीच सबसे ज्यादा यही स्ट्रैटजी पॉपुलर है. मार्केट जैसा हो उस हिसाब से पोर्टफोलियो में बदलाव करते रहें, यह स्ट्रैटजी इसी उसूल पर काम करती है.