डिब्बे के अंदर मिठाई रखी गई, भंवरों ने दिमाग लगाया, खुद डिब्बा खोला और खा गए
लंदन की यूनिवर्सिटी में रिसर्च हुई है. इस कहानी के पीछे साइंस है.
लंदन की क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी में एक रिसर्च हुई है. वहां के एक्सपर्ट्स ने कुछ Bumblebees (बंबलबीज़) यानी भंवरों को एक पहेली सुलझाने के लिए ट्रेन किया है. सुनने में अजीब लगने वाली ये बात सच है. भंवरों को इस बॉक्स को अक्ल लगा कर खोलना था. ट्रेनिंग के बाद उन्होंने ये करके दिखाया. साइंसकारी में बात करेंगे कि पहले की और भंवरों ने वो कैसे सुलझा ली?
क्या था डिब्बे में?इस काम को मुकम्मल करने के लिए वैज्ञानिकों ने एक बॉक्स बनाया. उसमें भंवरों के लिए एक मीठा इनाम रखा. इससे पहले ऐसे डिब्बे का प्रयोग प्राइमेट्स और पक्षियों पर किया जा चुका है. जीव विज्ञान में Primates का मतलब स्तनधारी प्राणियों का ऐसा परिवार है जिसमें इंसान, चिम्पांज़ी, बंदर जैसे जीव आते हैं.
बहरहाल, डिब्बे के ऊपर एक ढक्कन था जिसे घुमाकर खोला जा सकता था. रसोई में रखे नमक के डिब्बे जैसा.
वैज्ञानिकों ने डिब्बे पर दो खटके (या टैब) बनाए थे. एक लाल और एक नीला. लाल टैब को Clockwise (घड़ी की सुई की दिशा में) घुमाकर ढक्कन खोला जा सकता था. नीले टैब से ढक्कन खोलने का हिसाब इसका उल्टा था. उसे घड़ी की सुई की उल्टी दिशा में घुमाना था.
डिब्बे के अंदर पीले रंग का ‘टारगेट’ बनाया गया जिसमें चीनी का घोल था. भंवरों को डिब्बा खोलकर उस पीले टारगेट तक पहुंचना था.
प्रयोग क्या था?सबसे पहले तो एक्सपर्ट्स ने कुछ भंवरों को ढक्कन खोलने के लिए ट्रेन किया. उनको ‘Demonstrator’ (डेमन्स्ट्रेटर) नाम दिया गया. मतलब वो जो डेमो दे. आधे डेमन्स्ट्रेटरभंवरों से लाल वाले टैब से बॉक्स खुलवाया गया. बाकी को सिखाया गया था कि नीले टैब को खिसकाने पर ही मिठाई मिलेगी.
डिब्बे का डिजाइन कुछ ऐसा था कि टारगेट तक पहुंचने के लिए खटकों को धक्का देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था.
इन भंवरों के अपने-अपने झुंड थे. टेक्निकली इसे 'कॉलोनी' कहा जाता है. ऐसी चार कॉलोनियों को इस प्रयोग में शामिल किया गया था. ट्रेनिंग वाले भंवरों को उनकी कॉलोनियों में वापस भेज दिया गया. बाद में पूरी कॉलोनी को उस डिब्बे की दावत लूटने के लिए खुला छोड़ दिया गया. इस प्रोसेस में चौंकाने वाली बातें सामने आईं.
वैज्ञानिकों ने पाया कि डिब्बा खोलने की तरकीब धीरे-धीरे उन भंवरों में भी फैलने लगी जिन्हें इसकी ट्रेनिंग नहीं मिली थी. कुछ ‘होनहार’ भंवरों ने तो एक ही दिन में इसे सीख लिया और कुछ आलस के मारों ने चार दिन लगाकर ये सब सीखा.
आप पूछ सकते हैं कि इसमें क्या मारक बात है?
सोशल लर्निंग की कहानीसोशल लर्निंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कोई व्यक्ति दूसरों के व्यवहार को देखकर और उसकी नकल करके सीखता है. उदाहरण के लिए बच्चे मम्मी-पापा को देख कर सीखते हैं,
- बच्चों से लेकर बड़ों तक बच्चन साहब की जवानी की फिल्में देखकर 'एंग्री यंग मैन' बनने की एक्टिंग करने लगते हैं.
- लंदन में पैदा हुई एक लड़की बड़े होते-होते अंग्रेज़ी बोलने लगती है और भोपाल में उसी की उम्र का लड़का हिन्दी में बकैती काटना सीखता है.
बस ऐसे ही जाने-अनजाने में हम अपने आसपास के माहौल को देख कर और नकल करके सीखने की कोशिश करते हैं.
ऐसे नई चीजें सीख कर अपने कल्चर का हिस्सा बना लेने की मिसालें इस से पहले चिमपांज़ियों, ह्वेल और डॉल्फिन जैसी प्रजातियों में भी देखी गई थी. लेकिन इस प्रयोग के ज़रिए वैज्ञानिकों ने पाया कि भंवरे भी इस तरह की सोशल लर्निंग से अछूते नहीं हैं. भंवरों पर 'सोशल लर्निंग' का प्रभाव वैज्ञानिकों के अनुमान से ज़्यादा देखा गया.
इन डेमन्स्ट्रेटर भंवरों को ये मसखरी करते हुए कॉलोनी के बाकी भंवरों ने देखा. इन भंवरों को ऑब्जर्वर बोला गया.
डेमन्स्ट्रेटर भंवरों के बाद वैज्ञानिकों ने ऑब्जर्वर भंवरों पर भी ये पहेली ट्राइ की. परिणाम देखकर उनका दिमाग सन्न रह गया.
डिब्बा तो ऐसा था कि आप चाहे लाल वाली टैब को धक्का दो या नीले को, मिठाई तो मिल ही जानी थी. लेकिन पेच ये था कि अलग-अलग ऑब्जर्वर मक्खियों ने डेमन्स्ट्रेटर भंवरों को अलग-अलग टैब को धक्का देकर मिठाई पाते देखा था. किसी के दिमाग में ये बैठा कि परम सुख प्राप्ति लाल खटके के उस तरफ है तो किसी ने नीले के पार जाने के सपने देखे.
रिसर्च में यह भी पाया गया कि इस प्रयोग में जब साथ में एक डेमन्स्ट्रेटर भंवरे को भी डाल दिया गया तो बाकी भंवरों ने पहले की तुलना में अधिक बॉक्स खोले.
इस विडिओ में देखिए कि कैसे एक कॉलोनी के भंवरे "लाल" टैब को धक्का देकर ढक्कन खोल रहे हैं. इस कॉलोनी में "लाल" टैब को खिसका कर ढक्कन खोलना जानने वाले demonstrator(डेमन्स्ट्रेटर) भंवरे को ही डाल गया था.
कुछ मामलों में देखा गया कि ऑब्जर्वर भंवरों ने भी तुरंत ताड़ लिया कि डिब्बे को दोनों तरफ से घुमाने पर भी खोला जा सकता है. मतलब दोनों ही रास्तों पर लॉटरी का टिकट मिल रहा था. इसके बावजूद ऑब्जर्वर भंवरों ने वही तरीका चुना जो उन्होंने 98% समय डेमन्स्ट्रेटर भंवरों को करते देखा था.
इससे ये साबित हुआ कि ऑब्जर्वर भंवरों ने डिब्बा खोलने की तरकीब खुद खोजने की बजाय सोशल लर्निंग से सीखी.
इसके अलावा और भी कई प्रयोग किए गए.
वैज्ञानिकों ने ऑब्जर्वर भंवरों की एक कॉलोनी में "नीले" और "लाल" दोनों तरह के डेमन्स्ट्रेटर भंवरों को छोड़ दिया. इस बार परिणाम अलग मिला.
पिछले केस में ऑब्जर्वर भंवरों ने आंखों-देखी डिब्बा खोलने का एक ही तरीका सीखा था. लेकिन यहां उनको दोनों तरह से डिब्बा खोलना सिखाने वाले demonstrator (डेमन्स्ट्रेटर) भंवरे उनके बीच मौजूद थे. शुरुआत सिम्पल हुई. Observer (ऑब्जर्वर) भंवरों ने शुरू में दोनों तरीकों से डिब्बा खोलना सीखा. कभी लाल-साइड से तो कभी नीली साइड से. लेकिन धीरे-धीरे उन्होनें अपनी एक पसंद चुन ली. और मज़े की बात ये कि फिर कॉलोनी के बाकी भंवरों ने भी उसी को अपनी पसंद बना लिया.
दूसरे केस में एक कॉलोनी में कोई demonstrator (डेमन्स्ट्रेटर) भंवरा नहीं डाल गया. कॉलोनी को ऐसे ही बिना किसी जानकारी के डिब्बे के साथ अकेला छोड़ दिया गया. कुछ भंवरों ने इसके बाद भी उस डिब्बे को खोलना सीख लिया. लेकिन उनमें वो बात नहीं थी जो demonstrator (डेमन्स्ट्रेटर) भंवरे के प्रभाव में काम करने वाली कॉलोनी में थी.
इससे पता चलता है कि धीरे-धीरे कैसे भंवरे एक दूसरे से बात करके चीजें सीख सकते हैं. अकेले में वो पूरे कुनबे के लिए कोई कॉमन आदत नहीं बना पाए.
साइंटिफिक अमेरिकन की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस रिसर्च की लेखक एलिस ब्रिजेस ने बताया कि, "ये एक जानवर है जिसका दिमाग एक सुई के सिरे जितना है. और फिर भी वे इंसानों, बंदरों और पक्षियों की जैसे चीजें सीख सकते हैं. ये काफी उल्लेखनीय है."
इस से पहले भी कई स्टडी ऐसी हुई हैं जिनमें भंवरों में सोशल लर्निंग देखी गई. लेकिन उनको आपस में एक कल्चर या संस्कृति बनाते नहीं देखा गया था. मतलब की भंवरों की एक सैट आबादी कोई एक सा स्पेशल व्यवहार करे ऐसी जानकारी हमें नहीं थी.
ब्रिजेस ने ये भी बताया कि, "हम ये देखना चाहते थे कि ढक्कन खोलने के एक अलग ऑप्शन होने के बाद भी भंवरे आपस में एक परंपरा बनाए रखने के काबिल हो पाएंगे कि नहीं."
हमें अब तक ये तो पता था कि चींटियों, भंवरों और मधुमक्खियों जैसे कीट-पतंगे सामाजिक माहौल में साथ रहते हैं. इनकी कॉलोनी में एक रानी होती हैं, कर्मचारी होते हैं. लेकिन इनके आपस में इतने कॉम्प्लेक्स रिश्ते होने के बारे में बहुत कम रिसर्च हुई है.
वास्तव में देखा जाए तो ये कुछ वैसा ही है जैसे सोशल मीडिया पर मीम वाइरल होते हैं. ये रिसर्च यही बताती है कि भंवरे भी एक दूसरे को देखकर सीख सकते हैं. लोगों को लगता है कि वो अपने इंसटिंक्ट या प्रवृत्ति से काम करते हैं लेकिन ये उससे कहीं अधिक चालाक होते हैं. पूरी बात का निचोड़ ये कि देखन में छोटन लागे और घाव करे गंभीर.
Evolution (एवॉल्यूशन) से ऐसे बदलाव लाने में किसी प्रजाति को कई हज़ार साल लग सकते हैं. लेकिन ऐसे किसी नए व्यवहार को अपनी आदत बना लेना भंवरों को एक एक्स्ट्रा फायदा देता है.
उम्मीद है इस स्टडी के बाद इनका नाम इन्टेलिजन्ट प्रजातियों की फहरिस्त में और इज़्ज़त से लिया जाएगा.
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