ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जमजाएगा तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला हैकहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर ख़ून चलता है तो रूकता नहीं संगीनों से सरउठाता है तो दबता नहीं आईनों से.