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हरदोई ग्राउंड रिपोर्ट: पहली बार कोई आदमी नरेश अग्रवाल के खिलाफ दोबारा लड़ रहा है

वो शहर, जहां बाहर का लड़का सांसद बन जाता है, लेकिन विधायकी 40 सालों से एक ही परिवार के पास है.

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हरदोई में मिठाई की एक दुकान पर लगी नरेश अग्रवाल की फोटो (बाएं) और कांशीराम कॉलोनी में लोगों के घर, जिनके सामने नाली का पानी भरा है (दाएं)
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सौरभ द्विवेदी
14 फ़रवरी 2017 (Updated: 14 फ़रवरी 2017, 10:22 AM IST)
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ऑल नाइट लॉन्ग तुझे देखते हैं सारेकोई सीटी मारे, तो कोई आंख मारेकोई बोले कोने में चलकोई बोले मेरे घर आनाकोई बोले लेट्स डू इट हियरइक से इक तेरा दीवानाअब मुझ पर है कि किसको मैं क्या दूंदेखेगा राजा ट्रेलर के पिक्चर दिखा दूं

-कवि आनंदराज आनंद, मतदाता सशक्तीकरण की ये कविता चलचित्र 'मस्तीजादे' से.



शास्त्रीय नृत्य पर आधारित आदर्श नृत्य कला प्रदर्शन में आपका स्वागत है. टिकट-घर पर टिकट मिल रहा है. कीमत 25 रुपए. टिकट का रंग पीला. अंदर स्टेज का रंग गुलाबी और नीला. कुल पांच गाने. हर शो में अलग गाने. महिलाओं के आगे बैठने की व्यवस्था. बीच में फेंस, जिसमें सुरक्षा के लिए कांटे भी लगे हैं लोहे के. पीछे पतले फट्टे वाली बेंच. जिस पर लड़के. उनकी सुरक्षा के लिए सबसे पीछे दो गार्ड भी. और हरदोई के नुमाइश मैदान की दुनिया की इस भीड़ में, सबसे पीछे हम खड़े. और वहीं से ये सु्ंदर गाना देखा, सुना. नए अर्थों के साथ. हरदोई ऐसी ही है. नए भेद खोलती. पुराने टटोलती.


हरदोई की नुमाइश में आदर्श नृत्य कला
हरदोई की नुमाइश में आदर्श नृत्य कला

हरदोई की नुमाइश में आदर्श नृत्य कला प्रदर्शन
हरदोई की नुमाइश में आदर्श नृत्य कला प्रदर्शन

हमने भी टटोला. नरेश अग्रवाल का तिलिस्म, जो यहां से 1980 में पहली बार विधायक बने. उसके पहले उनके पिता श्रीशबाबू विधायक थे. नरेश, खुद उन्हीं के शब्दों में, संजय गांधी के करीबी थे. ऐसे 80 करीबी विधायकों ने यूपी के विधानसभा चुनाव में जीत के बाद मांग की कि सीएम संजय गांधी बनें. मैडम तक पहुंच गए. मगर इंदिरा ने कहा, 'संजय की दिल्ली में जरूरत है.' सीएम बन गए वीपी सिंह, जो मैडम के कमरे के बाहर टहल रहे थे. वीपी बुरा मान गए और 1985 के चुनाव में पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते उन्होंने नरेश का टिकट काट दिया. इंदिरा ने भरोसा दिलाया था कि टिकट नहीं कटेगा, मगर वो अब जीवित नहीं थीं.

सात बार विधायक रहे नरेश अग्रवाल
सात बार विधायक रहे नरेश अग्रवाल

नरेश के मुताबिक राजीव गांधी देहरादून कोटरी से घिरे थे. यहां के लोगों ने उन्हें बरगला दिया. नरेश को एनडी तिवारी भी ज्यादा पसंद नहीं करते थे, जो उस वक्त सीएम थे. तिवारी जी की पसंद थीं उमा त्रिपाठी. उन्हें पंजे का सिंबल मिल गया और वो हरदोई से जीत भी गईं. ये इकलौता चुनाव था डेब्यू के बाद, जब नरेश मैदान में नहीं थे. पांच बरस कटे. साल आया 1989. नरेश को फिर टिकट नहीं. वो निर्दलीय चुनाव लड़ गए. उमा त्रिपाठी पांच साल क्षेत्र में कम और लखनऊ में ज्यादा रही थीं, जबकि नरेश यहीं एक्टिव थे. उन्हें इसका फायदा मिला और करीबी अंतर से वो विधायक बने. उनका चुनाव निशान था दहाड़ता हुआ शेर.




कहानी गुरु, चूहे और दहाड़ते शेर की

एक दयालु गुरु जी थे. उनके आश्रम में एक चूहा था. एक दिन परेशान होकर आया. बोला, 'बिल्ली परेशान करती है.' गुरु पसीज गए. बोले, 'बिल्ली बन जा'. फिर बिल्ली आई. बोली, 'कुत्ते परेशान करते हैं.' 'कुत्ता बन जा.' फिर कुत्ता आया. 'भेड़िए परेशान करते हैं.' 'भेड़िया बन जा.' फिर वो चूहा, जो भेड़िया बन गया था, एक आखिर बार फरियाद ले आया. गुरु के पास. कि शेर परेशान करता है. गुरु जी ने कहा, 'जा, अब तू बब्बर शेर बन जा.'

बब्बर शेर दहाड़ता घूमता. सबको डराता. भूल गया कि सब गुरु का किया-धरा है. एक दिन गुरु ने उसे समझाया, 'ये गलत है'. वो गुरु पर दहाड़ने लगा. गुरु फिर भी समझाते रहे. तो वो गुरु को खाने के लिए झपटा. गुरु ने हाथ हवा में तान दिए. बोले, 'पूनर मूषको भव'. फिर चूहा बन जा.


दी लल्लनटॉप के साथ बातचीत के दौरान राजा बख्श सिंह
दी लल्लनटॉप के साथ बातचीत के दौरान राजा बख्श सिंह

इंग्लिश की किताब में पढ़ी थी नदी में खड़े साधु की कहानी, जिनकी अंजुलि में मरणासन्न चूहा गिरता है. फिर बादल, हवा, पहाड़ सब आते हैं. मगर हरदोई में इसका संशोधित संस्करण बांचा. जिसे उवाचा अरविंद सिंह करौंदी ने. वकील हैं और बीती शाम मुन्ने मियां चौराहे पर हुई बीजेपी कैंडिडेट राजाबख्श सिंह की नुक्कड़ सभा में ये कथा सुना रहे थे. उनके मुताबिक गुरु है वोटर जनता, और चूहा जो शेर बन सबको डरा रहा है, वो है नरेश अग्रवाल.


"attachment_58454" align="alignnone" width="506"हरदोई का ट्रॉमा सेंटर, जहां सिर्फ इमारत है, डॉक्टर और मशीनें नहीं
हरदोई का ट्रॉमा सेंटर, जहां सिर्फ इमारत है, डॉक्टर और मशीनें नहीं

यहीं से नरेश अग्रवाल को ऊर्जा मिलनी शुरू हुई. हर किस्म की. वो लखनऊ-दिल्ली तक पॉलिटिकल डीलिंग और इन्वेस्टमेंट भी करने लगे. इसकी एक बानगी. 1999 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव दो जगह से चुने गए. एक सीट कन्नौज उन्होंने छोड़ दी. यहां उतारा बेटे अखिलेश को. उनके सामने बसपा से आए अकबर अहमद डंपी. मुलायम मुश्किल में पड़ गए. NDA की तरफ से ये सीट लोकतांत्रिक कांग्रेस के खाते में आई थी, जिसके मुखिया थे नरेश अग्रवाल. उन्होंने जाकर बाप जी से कह दिया, 'भाई हम नहीं लड़ पाएंगे. ये हाई प्रोफाइल सीट हो गई है.'


मुलायम से गुफ्तगू करते नरेश, साथ में हैं बेटे नितिन
मुलायम से गुफ्तगू करते नरेश, साथ में हैं बेटे नितिन

लौटे, तो ये बात मुलायम सिंह को फोन पर बताई. मुलायम ने उन्हें डांटा. बोले, 'टिकट क्यों लौटा दिया. तुम लोगों को ही चुनाव लड़ना है और कोई ब्राह्मण कैंडिडेट उतारना है.' अब नरेश को बड़ी आफत. फिर पहुंचे बाप जी के पास. बोले, 'कार्यकर्ता नहीं मान रहे हैं.' अटल सियासत समझते थे. हंस दिए. बोले, 'अच्छा, नहीं मान रहे हैं, तो चलो मैं ही मान जाता हूं.' लोकतांत्रिक कांग्रेस ने कन्नौज से टिकट दिया प्रतिमा चतुर्वेदी को. चुनाव जीते अखिलेश यादव. मुलायम नरेश के प्रति और मुलायम हो गए. और हरदोई के मंत्रीजी को जल्दी ही उनकी जरूरत भी पड़ी.

हरदोई, जहां की सड़कों पर एक नुक्कड़ सभा की वजह से ऐसा जाम लग जाता है
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नरेश अग्रवाल को लगता था कि उनके बिना राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार नहीं चलेगी. वो जब-तब सार्वजनिक मंचों से दरेरा देते रहते थे. ऐसे ही एक बयान के बाद राजनाथ ने उन्हें कैबिनेट से चलता कर दिया. नरेश के साथ उनका कोई भी कांग्रेसी नहीं आया. उन्होंने साइकल की सवारी कर ली. फिर बीएसपी राज आया. तो सपा छोड़ हाथी पर सवार हो गए. इस पर उनकी सफाई. 'सपा में विरोधी मुझे परेशान कर रहे थे, इसलिए पार्टी छोड़नी पड़ी. बसपा में जाना गलती थी. अब मैं समाजवादी पार्टी का वफादार सिपाही हूं.'


बीजेपी और राजनाथ को दरेरा देने वाले नरेश मुख्तार अब्बास नकवी से ऐसे मिलते हैं
बीजेपी और राजनाथ को दरेरा देने वाले नरेश मुख्तार अब्बास नकवी से ऐसे मिलते हैं

ये नरेश अग्रवाल का सबसे मौजू बयान रहता है. विरोधी कहते हैं कि वो सिर्फ सत्ता के वफादार होते हैं. जब मायावती राज आया, तो उन्हें अपनी हनक खत्म होती दिखी. आलम ये हो गया कि चुनाव नतीजों के बाद नरेश लखनऊ से हरदोई ही नहीं आए. उस वक्त यहां सीओ सिटी थे संजय सागर. नई उमर का लड़का, पहली पोस्टिंग. जलवा ऐसा कि जब उसकी जीप नरेश अग्रवाल के मोहल्ले की तरफ मुड़ी, तो सब परिवारजन दाएं-बाएं हो लिए, क्योंकि अब उनका जलवा कायम करने वाली सरकार नहीं थी. सालभर में ही नरेश बसपाई हो गए. हरदोई की सीट से इस्तीफा दिया और बेटे नितिन अग्रवाल को 26 साल की उम्र में डेब्यू करा दिया.


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2009 में टिकट मांगा. बीजेपी से. मगर चाचा श्याम प्रकाश सपा में थे. और वो बगल की मिश्रिख सीट से टिकट मांग रहे थे. हरदोई की सपा सांसद ऊषा वर्मा ने श्याम प्रकाश का विरोध किया कि इनका भतीजा तो मेरे खिलाफ लड़ने की तैयारी कर रहा है. भतीजा चाचा की खातिर शांत हो गया. चाचा फिर भी सांसद नहीं बन पाए. भतीजा फिर एक्टिव हुआ 14 अगस्त 2012 को. मगर पॉलिटिक्स के लिए नहीं. होटल बिजनेस के लिए. अपने चंडीगढ़ के यारों की तरह उसको भी कैनेडा कॉलिंग का नारा सुनाई दिया.

अंशुल वहां जाकर अपना रेस्तरां शुरू करना चाहते थे, लेकिन कनाडा की फ्लाइट पकड़ने से पहले एक बार गांव हो आने का इरादा बना. यहां आए तो लगा कि एक ट्राई और कर लिया जाए. ट्रायल सफल रहा, क्योंकि मुलाकात हो गई पहले लखनऊ और फिर दिल्ली में अमित शाह से. 2014 में उन्हें हरदोई से बीजेपी का टिकट मिला. मोदी लहर में 89 हजार के लगभग वोटों से जीत गए और तब से यहीं हैं. लोकल नेता कहते हैं कि बाहरी हैं. इसकी काट के लिए अब अंशुल ने यहां मकान भी बनवा लिया है. जो कि पूरा नहीं बना है. पूरी बनी है एक सड़क. नरेश अग्रवाल कोटे से. उनके घर के सामने. जहां हमारी मुलाकात हुई. वहीं अंशुल ने ये सब कहानी सुनाई.


हरदोई से बीजेपी सांसद अंशुल वर्मा हरदोई से बीजेपी सांसद अंशुल वर्मा

अंशुल के मुताबिक अग्रवाल परिवार यहां की सियासत में किसी को जमने नहीं देना चाहता. मगर उनके अपराजेय होने का भरम तो लोकसभा चुनाव में ही टूट चुका है. सांसद अपने खाते में कई विकास कार्य गिनवाते हैं. इनमें से आधे काम ऐसे हैं, जिन्हें नितिन भी अपना बताते हैं. अंशुल के पास अभी अपना बताने को हरदोई में बहुत ज्यादा लोग नहीं, इसलिए चुनावी मौसम में भी वो उतने सक्रिय नजर नहीं आते, जितने की उम्मीद आप एक सिटिंग सांसद से करते हैं. पोल पंडितों के मुताबिक टिकट वितरण में अंशुल की पूछ नहीं हुई, इसलिए वो भी जरूरत भर ही जा रहे हैं.




हालांकि, सदर सीट से कैंडिडेट राजाबख्श सिंह कह रहे हैं कि सांसद जी तो खूब सक्रिय हैं उनके चुनाव में. मगर चुनाव यहां अंशुल बनाम नितिन नहीं, राजाबख्श बनाम नितिन है. और राजाबख्श मुकाबले में आने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं. एक कोशिश वो नरेश अग्रवाल से जुड़ी अपनी पहचान को भी धूमिल करने की कर रहे हैं. आखिर दोनों की 15-20 साल की यारी रही. जो अब नहीं रही. क्यों नहीं रही. इस पर दो बार जिला पंचायत सदस्य रहे और कुछ महीनों पहले तक बसपा नेता रहे राजाबख्श ये कैफियत देते हैं, 'हमारे सिद्धांत मेल नहीं खाए, तो साथ अलग हो गया. जब साथ अलग हुआ, तो राजा की राह मुश्किल हो गई.' उनके मुताबिक नरेश किसी को खुद से खत्म नहीं करते. पुलिस-प्रशासन का इस्तेमाल करते हैं. मुकदमे ठांस देते हैं. उदाहरण के तौर पर वो खुद पर कायम इकलौते मामले को बताते हैं. ये मामला अपहरण से जुड़ा है, जिसमें हाई कोर्ट ने कोतवाली पुलिस की फाइनल रिपोर्ट पर स्टे दे रखा है. मामला मां गंगा से जुड़ा है, जो जिले के किनारे से बहती है.




बाहर से कैसी भी दिखती हो, पर अंदर से ऐसी है कांशीराम कॉलोनी
बाहर से कैसी भी दिखती हो, पर अंदर से ऐसी है कांशीराम कॉलोनी

राजाबख्श अपने परिवार और एक मित्र दीक्षित जी के साथ हरिद्वार गए. गंगा नहाने. वहां नहाते वक्त दीक्षित जी बह गए. कई दिन खोज चली. नहीं मिले. दोनों परिवार वापस आए. दीक्षित जी की पत्नी के भाई माया प्रकाश वाजपेयी ने राजाबख्श पर अपहरण का मुकदमा कायम कर दिया. बकौल राजा, नरेश की शह पर. क्योंकि माया प्रकाश टेंपो यूनियन चलाते हैं, जिसका संरक्षण नरेश करते हैं. हरदोई में टेंपो से रोजाना 30 रुपये की वसूली को भी सपा-विरोधी एक मुद्दा बताते हैं.


क्या है ये वसूली.

हरदोई में आवागमन का साधन टेंपो, जिनसे यूनियन रोजाना का 30 रुपए लेती है. ये रुपया कहां जाता है, ये विरोधी बताते हैं. नुक्कड़ सभाओं में, रैलियों में, पर्चों में. नाम ले-लेकर. और कहते हैं कि हम सत्ता में आए, तो गुंडई करेंगे. गुंडई के खिलाफ गुंडई. और ये वसूली रुकवाएंगे. राजाबख्श क्षत्रिय हैं. हरदोई के मुकाबले में बने रहने के लिए उन्हें ब्राह्मणों का साथ चाहिए. और ये साथ न हो पाए, इसके लिए उनके विरोधी उन्हें दबंग छवि वाला बताते हैं. इसका असर क्या होता है. यूं समझें. हमें नुमाइश मैदान में एक लड़का मिला. कारोबारी है. बोला, 'मैं यहां आ रहा था, आपसे मिलने. मां को लगा कि बाहर जा रहा है, तो कहीं राजाबख्श की नुक्कड़ सभा में न चला जाए. कसम दिला दी, वहां मत जाना. कोई नरेश अग्रवाल के परिवार से बैर नहीं लेना चाहता.'


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