मूवी रिव्यू: शर्माजी नमकीन
कैसी है ऋषि कपूर की आखिरी फिल्म?
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शर्मा जी नमकीन में ऋषि कपूर और परेश रावल
चिंटू जी लौट आये हैं. अपनी आख़िरी फ़िल्म शर्मा जी नमकीन (Sharmaji Namkeen) के साथ. शर्मा जी को इस मूवी में देखकर लगता है, ऋषि कपूर (Rishi Kapoor) को अभी होना चाहिए था. अभी तो बहुत अच्छे किरदार उनके हिस्से आने बाक़ी थे. ख़ैर होनी को कौन टाल सकता है!
आप सोच रहे होंगे. शुरू में ही ऐक्टिंग की बातें. पहले कहानी वगैरह तो एक्सप्लोर करिए. ऐक्टिंग है ही इतनी धांसू कि रहा नहीं जाता.
ज़रा ठंड पाओ जी, कहानी भी बताते हैं

शर्मा जी नमकीन
एक हैं दिल्ली के पंजाबी शर्मा जी. मिडल क्लास अकाउंटेंट. पत्नी गुज़र गयी हैं. हाल ही में 58 की उम्र में वीआरएस लिया है. अब घर में बेचारे बोर हो रहे हैं. तो टाइम पास के लिए कुकिंग शुरू करते हैं और उनकी यह हॉबी पार्ट टाइम जॉब में बदल जाती है. यहीं से शुरू होता है कटाजुज्झ. और कहानी रफ़्तार पकड़ना शुरू करती है. स्टोरी ने एक बार दौड़ना शुरू किया तो पीछे मुड़कर नहीं देखती. हां, बीच में थोड़ा किटी पार्टी के समय रुकती है. सिर्फ 5 से 10 मिनट. नहीं तो एकदम राजधानी एक्सप्रेस. आख़िर के 30 मिनट तो जो होता है, देखते ही बनता है.
# सुदृढ़ स्क्रीनप्ले
शुरू में लगता है फ़िल्म सिर्फ़ शर्मा जी पर केंद्रित रहेगी. पर स्क्रीनराइटर्स धीरे-धीरे अपने पत्ते खोलते हैं. शर्मा जी के लड़के रिंकू का, उनके साथ रिलेशन बहुत अच्छे से एक्सप्लोर किया गया है. कमाल का सीन सेटअप. बेहतरीन डायलॉग राइटिंग. जैसे रिंकू कहता है:कभी पानी की मोटर, कभी कॉलोनी का गेट, कभी पार्किंग. आप रोज़ कोई नया क्लेश ढूंढ लेते हो. एक तरफ़ केजरीवाल और एक तरफ़ आप.या जब शर्मा जी कहते हैं:
सारी दुनिया से बात कर लेगा. पर अपने बाप से बात करने में दिक्कत होती है.फ़िल्म में बड़ी चतुराई से गुड़गांव वाले फ्लैट का सबप्लॉट डाला गया है. ताकि बाप-बेटे के रिश्ते का एक क़दम आगे जाकर पोस्टमार्टम किया जा सके. मूवी की ख़ास बात यह है कि फादर-सन रिलेशन को ये इकतरफ़ा पेश नहीं करती. पिता का ऐंगल, बेटे का ऐंगल और उन दोनों को देख रहे किसी तीसरे यानी चड्ढा का ऐंगल. जो शर्मा जी से कहता है:
बागवान का बच्चन है, तू वर्किंग क्लास हीरो है.रिंकू जिसकी नाइन टू फाइफ़ जॉब है. उसकी एक गर्लफ्रैंड है. जिससे वो शादी करना चाहता है. अपने पापा की हरकतों से परेशान है. उसी का छोटा भाई जो डांसर है. वो अपने ओवर एम्बिशस भाई की जगह थोड़ा बहुत पापा की साइड लेता है. फ़िल्म सिबलिंग रिलेशन्स को भी छूती है. किटी पार्टी के ज़रिये महिला किरदारों को भी अपनी बात रखने का मौक़ा देती है. वहां सब एक दूसरे को सलाह देते हैं. मदद करते हैं. वो भी बिना किसी को जज किये. शर्मा जी नमकीन अपने छोटे-छोटे मोमेंट्स में निखरती है. क्लाइमेक्स तक पहुंचने का सफ़र बेहतरीन है. हालांकि क्लाइमेक्स सीक्वेंस बहुत अच्छा लिखा गया है. पर गौर करने पर लगता है कि एंडिंग कुछ और हो सकती थी. उसे थोड़ा पुश किया जा सकता था. शायद राइटर्स ने बोरिंग होने के रिस्क से बचने के लिए ऐसी एंडिंग रखी. अब ऐसी माने कैसी ये तो आप फ़िल्म देखकर जानिए. मूवी सोशल मीडिया के रेफ्रेंसेज़ उठाती है. आज के कुछ मॉडर्न संकेतों का सहारा लेती है. फेमिनिज़्म के एक पहलू को छूती है. सिंगल फ़ादरहुड को सेलिब्रेट करती है. पैट्रिआर्कल सोसाइटी पर भी तंज करती है.
फ़िल्म में सुहेल नय्यर, सतीश कौशिक और ऋषि कपूर
जैसे रिंकू, शर्मा जी से कहता है:
यार पापा कभी किचन से बाहर निकलो. थोड़ा दुनिया देखो. लोगों से मिलो. मज़े करो ना लाइफ में.कुल मिलाकर सुप्रतीक सेन और हितेश भाटिया ने अच्छा स्क्रीनप्ले लिखा है. जिसे एक-आध चेंजेस के ज़रिए बहुत अच्छा बनाया जा सकता था. अगर वन लाइनर देना हो तो कहानी साधारण है, पर स्क्रीनप्ले अच्छा है.
#नपातुला निर्देशन

फ़िल्म में ऋषि कपूर, जूही, परेश रावल और सतीश कौशिक
हितेश भाटिया ने शानदार डायरेक्शन किया है. एक बिना मां के मिडल क्लास फैमिली कैसी हो सकती है, शहर का मध्यमवर्गीय मकान कैसा हो सकता है, अमीर घरों की बहुएं क्या करती हैं! रिटायरमेंट के बाद क्या तकलीफ़े पेश आती हैं. जेनरेशन गैप के क्या नुकसान हैं और भी बहुत कुछ डायरेक्टर ने बख़ूबी दिखाया है. सबकुछ रियल रखने की कोशिश की है. फ़िल्म देखते हुए लगता है कि आसपास की कहानी है. किसी दूसरे ग्रह की कहानी नहीं मालूम पड़ती. एक साधारण कहानी को अच्छा ट्रीटमेंट देकर कैसे फ़िल्मी पर्दे पर उतारा जा सकता है. शर्मा जी नमकीन उसी का बेहतरीन नमूना है. जैसे एक अमेरिकन बायोयोग्राफिकल फ़िल्म है, 'परसूट ऑफ़ हैप्पीनेस'. कहानी सिंपल. पर उसका ट्रीटमेंट एकदम झामफाड़. हालांकि इस फ़िल्म का ट्रीटमेंट झामफाड़ तो नहीं है. पर है बहुत अच्छा. प्रोडक्शन डिज़ाइन में बहुत छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दिया गया है. उदाहरण के लिए एक गंदा-सा लाइट स्विचबोर्ड जो एक मिडिलक्लास फ़ैमिली में कॉमन है.
नो डाउट फ़िल्म में अच्छे कलाकार हैं. पर डायरेक्टर ने उनसे बहुत अच्छा काम करवाया है. यहां तक कि फ़िल्म के अहम किरदार यानी फ़ूड, उससे भी बढ़िया काम करवाया है. चूंकि फ़िल्म में ऋषि कपूर के इंतकाल के बाद परेश रावल ने उनकी जगह काम किया है. ऐसे में डायरेक्टर को एक्स्ट्रा कॉनशियस होना पड़ता है. सबकुछ बराबर मैच कर रहा है कि नहीं. कॉन्टिन्यूटी एरर तो नहीं है. पिछले फ्रेम में ऋषि कपूर का मफ़लर जैसा था, वैसा ही परेश रावल का है या नहीं. ऐसे में कॉस्ट्यूम डिपार्टमेंट का काम भी बढ़ जाता है. कुल मिलाकर अच्छा डायरेक्शन है.
#फ़िल्म के साथ समरस होता संगीत
मैं जब फ़िल्म देख रहा था. तो मुझे 'ओए लक्की ओए' जैसे म्यूजिक का फील आ रहा था. बाद में पता चला शर्माजी नमकीन में उसी फ़िल्म की म्यूजिक डायरेक्टर स्नेहा खानविलकर ने संगीत दिया है. म्यूजिक ऐसा है कि कहीं खलता नहीं. कहीं अलग नहीं लगता. एकदम फ़िल्म के सीन्स में घुल जाता है. अच्छे म्यूजिक की यही ख़ासियत भी होती है. गोपाल दत्त के लिरिक्स भी सिचुएशन पर फिट बैठते हैं.#सधी हुई सिनेमैटोग्राफी और अच्छी एडिटिंग
सिनेमैटोग्राफी बढ़िया है. कार वाले सीन स्मूथ हैं. स्टिल फ्रेम्स ज़्यादा हैं. जो ऐसी फिल्मों की मांग भी होते हैं. कुछ-कुछ शॉट्स क्रिएटिव हैं. जैसे: शर्मा जी का झूठ पकड़े जाने पर बाप-बेटे का फेसऑफ और उसी में छोटे भाई की प्रेजेंस वाला सीन और अपने डाइनिंग टेबल पर बैठे शर्मा जी और गाना सुन रहे छोटे बेटे वाला सीन. एडिटिंग भी अच्छी है. कहते हैं एक बुरी फ़िल्म को अच्छी एडिटिंग ठीक फ़िल्म बना देती है. वैसे यह फ़िल्म तो पहले से ठीक थी. इसलिए अच्छी एडिटिंग ने इसे अच्छी फ़िल्म बना दिया है. हमने शुरुआत में फ़िल्म की स्पीड की बात की थी. तो फ़िल्म को स्पीड अप उसकी एडिटिंग ने किया है. ऋषि कपूर और परेश रावल के सीन्स को जिस सहजता से मर्ज किया गया है, कहना पड़ेगा, बेहतरीन एडिटिंग.#आकर्षक अभिनय

फ़िल्म में शर्मा जी के किरदार में ऋषि कपूर
अब आते हैं जहां से हमने बात शुरू की थी यानी ऐक्टिंग पर. सभी ऐक्टर्स ने अच्छा काम किया है. ऋषि कपूर ने तो चार चांद लगा दिये हैं. उनके एक्सप्रेशन्स कमाल हैं. जैसे: एक सीन में वो इशारा करके जूही चावला से दाल में नमक की मात्रा पूछ रहे हैं. ऐसे ही बहुत से सीन्स हैं. जहां उन्होंने एक्सप्रेशन्स के साथ खेला है. मतलब मास्टर क्लास. जूही चावला ने भी अच्छी ऐक्टिंग की है. सतीश कौशिक, शीबा चड्ढा, परमीत सेठी और भी जितने छोटे किरदार हैं, सबने अपने हिस्से का काम बख़ूबी किया है. परेश रावल ने भी बहुत बढ़िया ऐक्टिंग की है. ऋषि कपूर ने जो बेंच मार्क सेट किया है उसे परेश रावल ने मैच करने की कोशिश की है. पर कहीं कहीं पर वो मात खा जाते हैं. उनकी पंजाबी एक्सेंट से पकड़ छूटती है. ज़्यादा नहीं एक-आध जगह उनमें बाबूराव आ जाते हैं. जैसे: शीबा चड्ढा के घर से निकलकर सतीश कौशिक को फ़ोन पर लताड़ते हुए या फिर तरबूज़ खरीदते हुए. फ़िल्म का हासिल हैं शर्मा जी के बड़े बेटे रिंकू. जिस किरदार को निभाया है 'उड़ता पंजाब' में जस्सी बने सुहेल नय्यर ने. अदाकारी में उनका फ्यूचर बहुत ब्राइट है. शानदार अदाकारी. धांसू डायलॉग डिलीवरी. एकदम रियल. वो जब-जब स्क्रीन पर आते हैं, बहुत सहज लगते हैं.
चलिए बहुत ज्ञान हो गया. अब जाइए. प्राइम वीडियो पर शर्मा जी नमकीन देखिए. फील गुड के लिए. अच्छी अदाकारी के लिए. अच्छे डायरेक्शन और ट्रीटमेंट के लिए और सबसे ज़रूरी ऋषि कपूर के लिए.