मूवी रिव्यू: झुंड
'झुंड' में एक्टिंग अच्छी है, कास्टिंग बढ़िया है.
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फोटो - thelallantop
फिल्म के कई किरदार आधे-अधूरे से लिखे हुए लगते हैं. कोई कैरेक्टर आर्क नहीं नज़र आता. अमिताभ की समाजसेवा से बुरी तरह चिढ़ रखता उनका बेटा एक दिन गर्व से भरा वापस आता है. पिता के काम को सराहने के पीछे का भाव भले ही समझ आ जाए, इस बात की एक्सप्लेनेशन नहीं मिलती कि इसके लिए नौकरी छोड़ने की क्या ज़रूरत थी? इसी तरह ट्रेन के आगे आत्महत्या करने पहुंच चुका एक लड़का आखिरी लम्हे इरादा बदल देता है. वहां से निकलता है तो उस मैदान पर लैंड होता है, जहां फुटबॉल का टूर्नामेंट चल रहा है. ईश्वरीय चमत्कार ऐसा कि एक टीम का गोलकीपर उपलब्ध नहीं है और वो टीम वाले इनको खिला भी लेते हैं. फिर आगे उनका करिश्माई प्रदर्शन तो आना ही था. दिक्कत वो नहीं है. दिक्कत ये है कि इस बंदे की कोई कहानी हमें पता चलती ही नहीं. कौन है, कहां से आया है, मरना क्यों चाहता था, इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं. क्लाइमैक्स में पुलिसवाले का ह्रदयपरिवर्तन क्यों हुआ? कोई स्पष्टीकरण नहीं. बॉलीवुड के मसालों का इतना ही छौंका लगाना था तो नागराज मंजुले को क्यों लाया गया? कोई स्पष्टीकरण नहीं. # अच्छा क्या है फिर? जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि फिल्म मुकम्मल तौर से खारिज करने लायक तो खैर नहीं है. कुछेक चीज़ें अच्छी हैं. इन चीज़ों की लिस्ट में सबसे पहला नंबर है अजय-अतुल के संगीत का. इस फ्रंट पर फिल्म लिटरली स्कोर करती है. फिल्म के तमाम गाने उम्दा हैं. चाहे टाइटल ट्रैक हो, 'लफड़ा झाला' गाना हो या सॉफ्ट मोटिवेशनल सॉंग 'बादल से दोस्ती'. अजय-अतुल ने हर फ्री किक को गोल में तब्दील करके दिखाया है. अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे लिरिक्स कई जगह ज़बरदस्त इम्पैक्ट पैदा करते हैं. दूसरी अच्छी चीज़ है फिल्म में भाषा की ओरिजिनैलिटी. महाराष्ट्र में बसे लोग जिस तरह की हिंदी बोलते हैं, वो बड़े जेन्युइन ढंग से डायलॉग्स में पिरोई गई है. यहां नागराज मंजुले की उपस्थिति महसूस होती है. घमेला जैसे शब्द ऐसा ही कोई बंदा बोल सकता है, जो महाराष्ट्र में रहा हो. बांसुरी को बासरी कहना भी टिपिकल महाराष्ट्रियन आदमी की हिंदी है. इस फ्रंट पर फिल्म ट्रू टू स्क्रिप्ट लगती है. सेकंड हाफ में कुछेक सीन्स खिलाड़ियों की कागज़ से जुड़ी जद्दोजहद वाले हैं. पासपोर्ट बनना है लेकिन नागरिकता साबित करता कोई पेपर है ही नहीं. उन्हें हासिल करने का संघर्ष इंटरेस्टिंग है. यहां भी आपको नागराज मंजुले के फुटप्रिंट्स मिल जाएंगे. लेकिन बस थोड़े ही समय के लिए. # एक्टर्स का काम कैसा रहा? एक्टिंग के फ्रंट पर भी ज़्यादा नुक्स नहीं निकाले जा सकते. अमिताभ तो खैर इस तरह के रोल्स को नींद में भी कर सकते हैं. स्लम से आया गिरोह भी बढ़िया एक्टिंग कर जाता है. उन सबकी कास्टिंग अच्छी है काफी. 'झुंड' के सरदार का रोल करने वाले एक्टर में काफी संभावनाएं हैं. उन्हें आगे भी देखना चाहेंगे लोग. किशोर कदम, छाया कदम जैसे सीनियर एक्टर्स भी अपना रोल आसानी से निभा ले जाते हैं. सैराट की फेमस जोड़ी आकाश ठोसर और रिंकू राजगुरु को ज़्यादा स्पेस तो नहीं मिला, लेकिन जितना मिला उतने में ठीक लगे हैं दोनों. हालांकि आकाश का किरदार को भी ज़्यादा स्पष्टता से लिखने की ज़रूरत महसूस हुई. रिंकू एकदम बढ़िया हैं. कुल मिलाकर 'झुंड' में एक्टिंग अच्छी है, कास्टिंग बढ़िया है, डायरेक्टर अच्छा है लेकिन एक पैकेज के तौर पर फिल्म के पास नया कुछ भी नहीं है. फिल्म 'फैंड्री' या 'सैराट' के आसपास भी नहीं पहुंचती. ऐसे में उतनी ऊँची उम्मीदें लेकर पहुंचा दर्शक ठगा सा महसूस करता है. बाकी रिव्यू आपके हवाले है और फिल्म सिनेमाघरों में. खुद देखिए, तय कीजिए. फिर नोट्स एक्सचेंज करने आइएगा. वैसे भी मेरा हमेशा से मानना रहा है कि फिल्म देखकर पछताना ज़्यादा बेहतर होता है.T 4201 - Aayi yeh toli hai, haath milake ek hi cheez boli hai. Aaj aayega trailer, bas rehna taiyaar aap! pic.twitter.com/bJqXjaOzLZ
— Amitabh Bachchan (@SrBachchan) February 23, 2022