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एक कविता रोज़ में कात्यायनी की कविता - हॉकी खेलती लड़कियां

'लड़कियों को चेतावनी दी जा रही है और वे हंस रही हैं कि यह ज़िन्दगी नहीं है'

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कात्यायनी पिछले 24 वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन करती रही हैं. इसके अलावा उन्होंने कुछ वर्षों तक बड़े हिंदी अखबारों में भी काम किया.
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मयंक
3 अगस्त 2021 (Updated: 3 अगस्त 2021, 10:35 AM IST)
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दी लल्लनटॉप का कविताओं से जुड़ा कार्यक्रम जिसका नाम है 'एक कविता रोज़'. अभी हाल ही में टोक्यो ओलंपिक्स में महिला स्पोर्ट्सपर्सन्स ने हमारे देश का सिर ऊंचा किया. चाहे वो पीवी सिंधु हों, लवलीना बोरगोहेन या महिला हॉकी टीम, सभी ने जी-जान से मेहनत की. इसी सिलसिले में आज पढ़िए एक कविता जिसका शीर्षक है - हॉकी खेलती लड़कियां. इसे लिखा है कात्यायनी ने जो पिछले 24 वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन करती रही हैं. इसके अलावा उन्होंने कुछ वर्षों तक बड़े हिंदी अखबारों में भी काम किया. एक कविता रोज़ में कात्यायनी की कविता -   हॉकी खेलती लड़कियां आज शुक्रवार का दिन है और इस छोटे से शहर की ये लड़कियां खेल रही हैं हॉकी. खुश हैं लड़कियां फिलहाल खेल रही हैं हॉकी कोई डर नहीं. बॉल के साथ दौड़ती हुई हाथों में साधे स्टिक वे हरी घास पर तैरती हैं चूल्हे की आंच से मूसल की धमक से दौड़ती हुई बहुत दूर आ जाती हैं. वहां इन्तज़ार कर रहे हैं उन्हें देखने आए हुए वर पक्ष के लोग वहां अम्मा बैठी राह तकती है कि बेटियां आएं तो सन्तोषी माता की कथा सुनाएं और वे अपना व्रत तोड़ें. वहां बाबूजी प्रतीक्षा कर रहे हैं दफ़्तर से लौटकर पकौड़ी और चाय की वहां भाई घूम-घूम कर लौट आ रहा है चौराहे से जहां खड़े हैं मुहल्ले के शोहदे रोज़ की तरह लड़कियां हैं कि हॉकी खेल रही हैं. लड़कियां पेनाल्टी कॉर्नर मार रही हैं लड़कियां पास दे रही हैं लड़कियां 'गो...ल- गो...ल' चिल्लाती हुई बीच मैदान की ओर भाग रही हैं. लड़कियां एक-दूसरे पर ढह रही हैं एक-दूसरे को चूम रही हैं और हंस रही हैं. लड़कियां फाउल खेल रही हैं लड़कियों को चेतावनी दी जा रही है और वे हंस रही हैं कि यह ज़िन्दगी नहीं है — इस बात से निश्चिंत हैं लड़कियां हंस रही हैं रेफ़री की चेतावनी पर. लड़कियां बारिश के बाद की नम घास पर फिसल रही हैं और गिर रही हैं और उठ रही हैं वे लहरा रही हैं चमक रही हैं और मैदान के अलग-अलग मोर्चों में रह-रहकर उमड़-घुमड़ रही हैं. वे चीख़ रही हैं सीटी मार रही हैं और बिना रुके भाग रही हैं एक छोर से दूसरे छोर तक. उनकी पुष्ट टांगें चमक रही हैं नृत्य की लयबद्ध गति के साथ और लड़कियां हैं कि निर्द्वन्द्व निश्चिन्त हैं बिना यह सोचे कि मुंह दिखाई की रस्म करते समय सास क्या सोचेगी. इसी तरह खेलती रहती लड़कियां निस्संकोच-निर्भीक दौड़ती-भागती और हंसती रहतीं इसी तरह और हम देखते रहते उन्हें. पर शाम है कि होगी ही रेफ़री है कि बाज नहीं आएगा सीटी बजाने से और स्टिक लटकाए हाथों में एक भीषण जंग से निपटने की तैयारी करती लड़कियां लौटेंगी घर. अगर ऐसा न हो तो समय रुक जाएगा इन्द्र-मरुत-वरुण सब कुपित हो जाएंगे वज्रपात हो जाएगा, चक्रवात आ जाएगा घर पर बैठे देखने आए वर पक्ष के लोग पैर पटकते चले जाएंगे बाबूजी घुस आएंगे गरज़ते हुए मैदान में भाई दौड़ता हुआ आएगा और झोंट पकड़कर घसीट ले जाएगा अम्मा कोसेगी — 'किस घड़ी में पैदा किया था ऐसी कुलच्छनी बेटी को !' बाबूजी चीख़ेंगे — 'सब तुम्हारा बिगाड़ा हुआ है !' घर फिर एक अंधेरे में डूब जाएगा सब सो जाएंगे लड़कियां घूरेंगी अंधेरे में खटिया पर चित्त लेटी हुईं अम्मा की लम्बी सांसें सुनतीं इन्तज़ार करती हुईं कि अभी वे आकर उनका सिर सहलाएंगी सो जाएंगी लड़कियां सपने में दौड़ती हुई बॉल के पीछे स्टिक को साधे हुए हाथों में पृथ्वी के छोर पर पहुंच जाएंगी और 'गोल-गोल' चिल्लाती हुईं एक दूसरे को चूमती हुईं लिपटकर धरती पर गिर जाएंगी !

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