'माइग्रेन' का कोई रंग होता तो वह निश्चित ही हरा होता
एक कविता रोज़ में आज पढ़िए, बाबुषा कोहली की कविता 'प्रेम गिलहरी दिल अखरोट'
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फोटो - thelallantop
स्वप्न में लगी चोट का उपचार नींद के बाहर खोजना चूक है
होना तो यह था
कि तुम अपने दिल की एक नस निकालते
और बांध देते मेरी लहूलुहान उंगली पर
मेरी हंसली पर जमा पानी उलीचते
और रख देते वहां धूप मुट्ठी भर
हुआ यह कि जिन पर्वतों पर मैंने तुम्हारा नाम उकेरा
वहां से बह निकलीं कल कल करती नदियां
और मेरी गर्दन से जा चिपकी काग़ज़ की एक नाव
क्षितिज तक पैदल चली थी थाम कर तुम्हारी उंगली
उस दिन तुम्हारा क़द मेरे पिता जितना बढ़ गया था
उसी रात नदी में अपनी पतवारें फेंक आई थी
ईश्वर की प्रिय सन्तान हो छुटपन से ही मां मुझसे कहती आई हैं होना तो यह था कि कबाड़ में मिले उस दीपक को धरती पर घिसते ही धुएं के पीछे से प्रकट हो जाता कोई देवदूत और मेरे आदेश का दास बन जाता हुआ यह कि पत्थर पर रगड़ खाने से कांसे की देह पीड़ा से कराह उठी ऐन उसी दिन कान के पीछे उभर आई एक हरी बेल कोई रंग होता 'माइग्रेन' का तो हरा ही होता
कितना अच्छा लगता था दीवारों पर लिखना और पौधों को पानी देना होना तो यह था कि तुम्हारी पीठ पर नक़्क़ाशीदार आयतें लिखा करती हमेशा और छाती को सींचती ही रहती उम्र भर हुआ यह कि छठी की चांद रातों में मैंने उगाए जूठे सेब तुम्हारी छाती पर और तुम्हारी पीठ से टकरा टकरा कर लौटती रहीं मेरी चीख़ें उन दिनों जंगल टेसू की तरह दहका करते थे मैं तुम्हारे पांव के अंगूठे पर टोटके बांधा करती थी एक बार उतरने दो मेरी चीख़ अपनी छाती पर किसी बरगद के कान पर उसी दिन मैं कान के पीछे वाली नस की असह्य पीड़ा का विसर्जन कर दूंगी

होना तो यह था कि तुम होते बरगद का घनापन और मैं तुम्हारी शाख़ों पर फुदकती फिरती अपनी टुकुर-टुकुर आंखों में भर लेती सब हरियाली कभी पत्तों में छुपती कभी दिखती तने के पीछे सारी छांव घूंट-घूंट पी लेती हुआ यह कि तमीज़ भूल गया एक बरगद अपने बरगद होने की छांव, हरियाली, ठौर कुछ भी नहीं मिलता धूप धूप भटकता रहा प्रेम भूखे कौर कौर दिल कुतरता रहा
कल आपने पढ़ी थी, 'साला बिहारी, चोर, चीलड़, पॉकेटमार' अगर आप भी कविता/कहानी लिखते हैं, और चाहते हैं हम उसे छापें. तो अपनी कविता/कहानी टाइप करिए, और फटाफट भेज दीजिए lallantopmail@gmail.com पर. हमें पसंद आई, तो छापेंगे.