टिहरी गढ़वाल में जन्मे मंगलेश डबराल की कविताओं पर हमारा उतना ही हक़ है जितना किसी को अपनी पुरखे की पुरानी कुर्सी पर होता है. हाल ही में वो हमें छोड़कर चले गए. उनका जाना सिर्फ़ मंगलेश डबराल का या फिर एक कवि का जाना नहीं था. उनका जाना, सिर से पुरखों का हाथ उठ जाना था. जैसे कोई सालों पुराना बरगद अचानक से ओझल हो जाए और उसकी शाखों-टहनियों पर खेलने को बच्चे तरसें. मंगलेश डबराल के जाने के बाद ऐसा ही कुछ हिन्दी साहित्य के साथ हो रहा है. इस मौके पर आपको उनकी एक कविता 'अत्याचारी के प्रमाण' सुनाते हैं.
अत्याचारी के प्रमाण
मंगलेश डबराल
अत्याचारी के निर्दोष होने के कई प्रमाण हैं
उसके नाखून या दाँत लंबे नहीं हैं
आँखें लाल नहीं रहतीं
बल्कि वह मुस्कराता रहता है
अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है
और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढ़ाता है
उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं
अत्याचारी के घर पुरानी तलवारें और बंदूकें
सिर्फ सजावट के लिए रखी हुई हैं
उसका तहखाना एक प्यारी सी जगह है
जहाँ श्रेष्ठ कलाकृतियों के आसपास तैरते
उम्दा संगीत के बीच
जो सुरक्षा महसूस होती है वह बाहर कहीं नहीं है
अत्याचारी इन दिनों खूब लोकप्रिय है
कई मरे हुए लोग भी उसके घर आते जाते हैं.