“मां बनने के बाद मेरा दिमाग ऐसी स्टेट में चला गया कि मुझे किसी भी चीज की परवाह नहीं होती. मैं कोशिश करके भी परवाह नहीं कर पाती. मैं हमेशा थका हुआ, परेशान, झल्लाया हुआ और क्रोधित महसूस करती थी. मुझे हर चीज बुरी लगती थी- खासकर मेरा खुद का अस्तित्व. न मैं अपने तीन साल के बड़े बेटे का ध्यान रख पा रही थी, न ही अपने नवजात बच्चे का ध्यान रख पा रही थी. मेरा बच्चा रोता तो मैं क्रोधित हो जाती. मुझे लगता था मैं मर जाऊं मगर ये भी जानती थी कि बच्चों को छोड़कर मैं मर नहीं सकती थी.”
डिस्कशन फोरम कोरा पर एक महिला ने अपना ये अनुभव शेयर किया है. अपनी आइडेंटिटी ज़ाहिर न करते हुए इस मां ने बताया है कि उसका बच्चा रोता तो वो उसे रोता छोड़कर इस बात की कल्पना करने लगती कि घर में इस वक़्त आग लग जाए तो वो किसको बचाएगी, छोटे बेटे को या बड़े को.
आप शायद ये सोच रहे हों कि ये कितनी बुरी मां है. जो रोते बच्चे को छोड़ देती है. जो अपने ही बच्चों में तुलना करती है. अगर ऐसा है तो इसी मां की और बातें सुनिए:
“मेरे पहले बच्चे के जन्म के समय सबकुछ ठीक गया, मेरी डिप्रेशन की हिस्ट्री होने के बावजूद. उसके जन्म के चार साल बाद जब मैं दोबारा प्रेगनेंट हुई तो मुझे नहीं लगा था कुछ बुरा हो सकता है.
यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा झूठ था.
मेरी प्रेग्नेंसी मुश्किल थी. जन्म के समय, मैं और मेरा बच्चा दोनों मौत के मुंह से निकलकर आए थे. बच्चे को पैदा होते ही ICU ले जाया गया और मैं उसे देख तक नहीं पाई. जब मैं इस बुरे समय में जी रही थी, मेरा इमरजेंसी ऑपरेशन करना पड़ा था, मेरा काफ़ी खून बह चुका था, लेकिन मेरे पति की ओर से किसी तरह का सपोर्ट नहीं मिला. क्या ये मेरे पोस्ट-नेटल डिप्रेशन की वजह थी? शायद हां, शायद नहीं. लेकिन उसके बाद मैंने लगभग 8 महीने खुद से लड़ते हुए गुज़ारे. मुझे डिप्रेशन की समस्या होती रही है. मगर 25 साल बाद मैं इतना ज़रूर कह सकती हूं कि पोस्ट नेटल डिप्रेशन से खराब कुछ भी नहीं है.”
पोस्ट नेटल, पोस्ट पार्टम, पेरी नेटल या बस डिप्रेशन. एक मां के लिए उसके जीवन का सबसे बुरा दौर हो सकता है.
क्या है ये डिप्रेशन? सिर्फ डिप्रेशन ही नहीं, मां बनने के बाद की घबराहट, बेचैनी, क्यों होती है? और इससे कैसे निपट सकते हैं. इसी पर बात करने की कोशिश करेंगे.
मेयो क्लिनिक वेबसाइट के मुताबिक़, एक बच्चे का जन्म मां के भीतर कई तरह के पावरफुल इमोशन पैदा कर सकता है- ख़ुशी, डर, उत्सुकता से लेकर बेचैनी तक. नयी मांओं में हॉर्मोनल बदलावों की वजह से कई सारे अलग-अलग सिम्प्टम्स देखे जाते हैं, जिन्हें अक्सर बेबी ब्लूज कहते हैं. जैसे बेचैनी, घबराहट, मूड स्विंग्स, बार-बार रोना आना और सोने में तकलीफ होना. कुछ हफ़्तों में ये खत्म हो जाता है. मगर कई बार ये और सीरियस रूप ले लेता है और लंबे समय तक मां को परेशान कर सकता है. और बन जाता है पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन.
दिमागी परेशानियों के बारे में एक आम बात है. अक्सर लोग समझते हैं कि दिमागी दिक्कत ही तो है. दिमाग ठीक रहे तो दिक्कत ठीक. तो कुछ बढ़िया खाओ, अच्छी फ़िल्में देखो, थोड़ा रेस्ट करो. और सब ठीक हो जाएगा. लेकिन ये मेंटल कंडीशन कितनी असल है, कितनी रियल है, ये हमें बताया कुछ मॉम्स ने. सबसे पहले सुनिए शबनम की बात जो बेबी ब्लूज़ से परेशान रहीं-
“वैसे तो सब स्मूद रहता है, पर कुछ दिन ऐसे होते हैं कि बहुत चिड़चिड़ाहट होती है. मन करता है बस सोती रहूं, कोई काम न करूं. बहुत एंग्ज़ाइटी होती है. अपने बच्चे की बेवजह चिंता होती है. वह ठीक भी रहे, तो लगता है कि वह कैसा होगा! यही पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन है, जिसकी जानकारी कम लोगों को होती है.
मैं इसके बारे में जानती थी, इसलिए मुझे किसी प्रोफेशनल हेल्प की आवश्यकता नहीं पड़ी. ज़रूरत यह है कि इस पर खुलकर बात हो. जो नई मांएंं होती हैं, उनका शरीर तो उबर जाता है, पर उस इमोशनल रोलर कोस्टर से मन के उबरने में वक्त लगता है. इसके बारे में अगर बात हो, तो चीज़ें बेहतर हो सकती हैं.”
हमने एक ऐसी महिला से भी बात की जो पोस्ट पार्टम डिप्रेशन की शिकार रहीं. दीपा गोयल 33 साल की हैं. दिल्ली की रहने वाली हैं और एक बेटी की मां हैं. उन्होंने बताया कि बेटे के पैदा होने के दो हफ़्ते बाद ही उन्हें नेगेटिव थॉट्स आने लगे. रात भर नींद नहीं आती थी, और भयानक एंग्जाइटी होती थी. तीन महीने बाद हालत ऐसी हो गई कि वो सुसाइड करने के बारे में सोचने लगीं. उन्होंने बताया,
“परिवार वालों को बताया लेकिन ज़्यादा मदद नहीं मिली. उनका मानना था कि हार्मोन्स में बदलाव के कारण मैं ज़्यादा इमोशनल हो रही हूं. मैं दिन भर रोती रहती थी. जब मैंने सुसाइड करने की कोशिश की, तब मेरे पति को इस स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा हुआ और फिर वो मुझे थेरेपिस्ट के पास ले कर गए. वहां मुझे पता चला कि मैं पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन का शिकार हूं.”
तो ये कैसे पता करें की एक मां पोस्टपार्टम डिप्रेशन से जूझ रही है? और उसका ख्याल कैसे रखें? ये सवाल हमने पूछा डॉक्टर स्वाति से. जो सायकोलॉजिस्ट हैं. उन्होंने बताया,
“प्रेगनेंसी के दौरान या बच्चा पैदा होने के बाद, कुछ-कुछ मूड फ्लक्चुएशन होना, चिड़चिड़ा जाना, रोना आना, थकान होना आदि नॉर्मल है. ये सब समय के साथ ख़त्म हो जाता है.लेकिन पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन उससे कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है. छोटी-छोटी बातों पर मन ख़राब हो जाता है, रोना आता है. अपने बच्चे के साथ बॉन्ड करना, जो कि नेचुरल है, इसमें भी दिक्कत आती है. कॉन्स्टेंटली अपने ऊपर डाउट होता है कि मैं एक अच्छी मां हूं या नहीं, मैं कभी अच्छी मां नहीं बन सकती. हमेशा यह सोचते रहना कि मेरे बच्चे को कुछ हो जाएगा. लोगों से कटा-कटा रहना, नींद और भूख में दिक्कत आना, ज़रूरत से ज़्यादा थकावट महसूस करना. ये सारे लक्षण पोस्टपार्टम डिप्रेशन के हैं.”
हमने डॉक्टर से ये भी पूछा कि पोस्टपार्टम डिप्रेशन से डील करने के क्या तरीके हैं?
“इन्हें लाइटली नहीं लेना है. नॉर्मल मूड चेंजेज़, जो प्रेगनेंसी के दौरान या बच्चा पैदा होने के बाद होते हैं, वह अपने समय के साथ ठीक हो जाते हैं. लेकिन पोस्टपार्टम डिप्रेशन में आपको मदद की ज़रूरत होती है.
अब वह मदद आप अपनी फैमिली से ले सकते हैं. अपने पार्टनर से बात करिए; अपने पैरंट्स से बात करिए; अपने दोस्तों से बात करिए. जहां से भी आपको सपोर्ट मिल सकता हो, उससे बात करिए. अपने इन डाउट्स को जाहिर करिए. उनकी मदद लीजिए बच्चे की देखभाल में. न आप सुपरमॉम हैं, न मैं. हम सबको एक सपोर्ट सिस्टम चाहिए होता है.
अपने लिए वक़्त निकालिए. धीरे-धीरे ही यह चीज़ आप सीखेंगे क्योंकि यह सफ़र आपके लिए नया है. पर अगर फिर भी आपको लगता है कि सिम्प्टम्स ख़त्म नहीं हो रहे, तो अपने हेल्थ प्रोफेशनल से मिलिए. चाहे वह गायनेकोलॉजिस्ट हो, चाहे सायकोलॉजिस्ट हो. ताकि वह आपका थॉट प्रोसेस समझ सकें और आपकी मदद कर सकें.”
तो उम्मीद है डॉक्टर की बातों से आपको एक ऐसे मसले के बारे में जानकारी मिली होगी जिसपर कोई बात नहीं करना चाहता. क्योंकि लोगों को मालूम ही नहीं है कि इस तरह की दिक्कत भी एक्ज़िस्ट करती है. लेकिन अब आपको पता है तो आप अपनी फैमिली और फ्रेंड सर्किल में मां बनने वाली औरतों का ध्यान रखेंगे. ऐसी हमें उम्मीद है!
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