अश्विनी देशपांडे. अशोका यूनिवर्सिटी में इकॉनमिक्स की प्रफेसर हैं. इनके कई रीसर्च पेपर छप चुके हैं. हाल में ही इन्होंने एक नई स्टडी पब्लिश की है. कि COVID-19 के दौरान लोगों की नौकरियां किस तरह गईं. और किस तरह इस मुश्किल समय में महिलाओं और दलितों की आजीविका ज्यादा प्रभावित हुई है.
कैसे लगाया गया हिसाब?
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) नाम की एक निजी संस्था है. इन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर रिसर्च करके डेटा निकाला. इसी डेटा के आधार पर ये पेपर लिखा गया. ये संस्था 2016 से लगातार डेटा इकठ्ठा कर रही है. तकरीबन पौने दो लाख घरों का. हर घर से साल में तीन बार अपडेट ली जाती है.
क्या बताया गया है इस स्टडी में?
इस पेपर के अनुसार सिटीबैंक का अनुमान है कि अलग-अलग सेक्टर्स में लगभग 22 करोड़ महिलाएं जॉब खोने का खतरा झेल रही हैं. पूरी दुनिया में लॉकडाउन से प्रभावित हुए सेक्टरों के तकरीबन 4.4 करोड़ कामगार. इनमें 3.1 करोड़ महिलाएं हैं, और 1.3 करोड़ पुरुष. स्टडी ये भी बताती है कि जो महिलाएं लॉकडाउन से पहले जॉब कर रही थीं, लॉकडाउन के बाद उनको रोजगार मिलने की संभावना पुरुषों के बनिस्बत कम है. गांवों की महिलाओं का रोजगार और भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है. इस स्टडी में यह भी बताया गया है कि लॉकडाउन ने पिछड़े हुए जाति समूहों को ज्यादा प्रभावित किया है.

लेकिन मसला सिर्फ लॉकडाउन तक ही सीमित नहीं है. पिछले दो सालों की कई रिपोर्ट्स ये सुझाती हैं कि रोजगार के क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी कम हुई है. 2019 में NSSO (नेशनल सैम्पल सर्वे आर्गेनाईजेशन) के डेटा के अनुसार भारत में अगर रोजगार के क्षेत्रों को देखा जाए, तो महिलाओं की संख्या घटी है. इस मामले में भारत से पीछे सिर्फ सीरिया और ईराक जैसे देश हैं.
क्यों है ऐसा?
ऑडनारी ने बात की एडवोकेट हमजा इकबाल से. ये आगरा में प्रैक्टिस करते हैं. लेबर लॉज़ से जुड़े केसेज़ से डील करते हैं. 13 साल से प्रैक्टिस कर रहे हैं. इन्होंने बताया,
“भारत में जो अधिकतर महिलाएं काम कर रही हैं, वो समाज के निचले आर्थिक तबके से आती हैं. उनकी एजुकेशन भी बेहद कम या ना के बराबर होती है. वो काम भी अधिकतर मजबूरी में करती हैं. अपनी चॉइस से नहीं. ऐतिहासिक रूप से उनका एक बहुत बड़ा डिसएडवांटेज रहा है. अभी लॉकडाउन ने पूरी अर्थव्यवस्था को झटका दिया है. ऐसे हालात में जो लोग छोटी नौकरियों या निचले लेवल पर काम करते हैं, उनको सबसे ज्यादा दिक्कत होती है. अगर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर असर पड़ता है तो एक व्यक्ति अपने प्रोडक्शन मैनेजर को नौकरी से नहीं निकालेगा. लेकिन शायद वो अपनी वर्कफ़ोर्स में दस फीसद की कटौती कर दे. इस हाइरार्की में सबसे निचले पायदानों वाले जॉब्स में अधिकतर महिलाएं होती हैं.”
इसके लिए क्या सरकार ने कोई कदम उठाए?
भारत सरकार में श्रम एवं रोजगार राज्यमंत्री है संतोष कुमार गंगवार. उन्होंने मार्च में इकॉनोमिक टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि रोजगार में महिलाओं की घटती संख्या के पीछे ये कारण भी हो सकता है कि अब वो पढ़ाई में ज्यादा भाग ले रही हैं. उनकी उपस्थिति और भागीदारी एजुकेशन में बढ़ी है. आधिकारिक भत्ते का कम होना, और जॉब के लिए अच्छे मौकों की कमी भी कुछ वजहें हो सकती हैं. इससे निपटने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं जैसे मैटरनिटी बेनिफिट अमेंडमेंट एक्ट, 2017. जिसमें पेड मैटरनिटी लीव को 12 हफ़्तों से बढ़ाकर 26 हफ्ते कर दिया गया. जहां भी 50 से ज्यादा इम्प्लॉयीज़ हैं, वहां क्रेच अनिवार्य किए गए हैं. फैक्ट्रीज एक्ट 1948 के तहत राज्यों को निर्देश दिए गए हैं कि फैक्ट्रियों में जो महिलाएं नाईट शिफ्ट करती हैं उनके लिए सुरक्षा प्रबंध किए जाएं.कई ट्रेनिंग और स्किल प्रोग्राम्स भी शुरू किए गए हैं.
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