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स्कूली किताबों में कब तक केवल राम स्कूल जाता रहेगा, सीता रोटी बनाती रहेगी?

आपके बच्चों की टेक्स्टबुक्स इस तरह उनके दिमाग में ज़हर भर रही हैं.

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Gender Descrimination in school books
दोनों फोटो NCERT बुक्स की हैं. दाईं फोटो क्लास 3 की है और बाईं फोटो क्लास 4 की. दोनों में ही ये स्टीरियोटाइप दिखाया गया है कि खाना लड़कियां बनाती हैं, लड़के नहीं.
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20 जुलाई 2021 (Updated: 11 अक्तूबर 2022, 17:03 IST)
Updated: 11 अक्तूबर 2022 17:03 IST
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साल 2015. छत्तीसगढ़ बोर्ड के कक्षा दसवीं की सोशल साइंस की किताब पर खूब बवाल हुआ. किताब में लिखा था, ‘देश में बेरोजगारी बढ़ रही है, क्योंकि महिलाएं अब हर सेक्टर में काम करने लगी हैं.’

ज़ाहिर है, इस एक लाइन के पीछे की सोच है-

# औरतों का काम घर संभालना है. घर के काम, खाना पकाना, बच्चों की देखभाल ही उनकी जिम्मेदारी है.

# औरतें पढ़ने लगीं, फिर नौकरी पर जाने लगीं, पुरुषों का हक मारने लगीं. इस वजह से पुरुषों में बेरोज़गारी बढ़ी.

ये दोनों ही बातें जेंडर स्टीरियोटाइप का उदाहरण हैं. जेंडर स्टीरियोटाइप यानी कौन, क्या करेगा या क्या कर सकता है इसका निर्धारण उसके टैलेंट के आधार पर नहीं, बल्कि उसके लिंग के आधार पर किया जाए. इस तरह की सोच कई सालों से बच्चियों और औरतों से उनके पढ़ने का, आगे बढ़ने का अधिकार छीनती रही है. इसी सोच के चलते कई घरों में बेटियों को बेटों की तुलना में पढ़ाई के बराबर मौके नहीं दिए जाते. कच्ची उम्र से ही उन पर घर, छोटे-भाई बहनों, रसोई की ज़िम्मेदारी डाल दी जाती है, जिसका रिज़ल्ट हमें स्कूल ड्रॉपआउट के तौर पर दिखता है.

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने फरवरी, 2021 में बताया था कि साल 2018-19 में मिडिल स्कूल के दौरान स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों का प्रतिशत 17.3 था. वहीं प्राथमिक स्कूल के दौरान पढ़ाई छोड़ने वाली लड़कियों का प्रतिशत 4.74 प्रतिशत था.

Gender School
स्कूलो में जेंडर को लेकर स्टीरियोटाइप पढ़ाए जाने पर कई बच्चियों के दिमाग में ये बात घर कर जाती है कि वो कुछ भी कर लें, रसोई तो उन्हें ही संभालनी है. सांकेतिक फोटो- Pixabay

ये दोहराना न होगा कि ज्यादातर बच्चे अपने घरों में गैर-बराबरी का माहौल देखते हैं. और करेले पर नीम ये कि स्कूली किताबों में भी यही पढ़ाया जाता है. किसी भी बच्चे के सीखने की प्रोसेस में एलिमेंटरी यानी प्राइमरी एजुकेशन को आधार माना जाता है. पर प्राइमरी लेवल में स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली किताबों में लैंगिक समानता नज़र नहीं आती है.

बच्चों की किताबों में किस तरह की बातें हैं?

दी लल्लनटॉप में ही काम करते हैं अमित मिश्रा. उनकी छह साल की बेटी है. दूसरी कक्षा में पढ़ती है. जैसा कि CBSE बोर्ड वाले तमाम प्राइवेट स्कूलों में होता है, उनके स्कूल में भी NCERT की जगह प्राइवेट पब्लिशर्स की किताबें पढ़ाई जाती हैं. अमित को अपनी बेटी की किताबें देखकर भारी निराशा होती है. वो बताते हैं कि किताबें ऐसी तस्वीरों और कॉन्टेंट से भरी पड़ी है जो लिंग के आधार पर साफ-साफ भेदभाव दिखाती हैं. उनके मुताबिक,

- हर किताब में मम्मी ही खाना बनाती दिखती है.
- बेटा सिर्फ बैठ कर खा रहा है. मां खाना बना रही है.
- सारे प्रोफेशनल सिर्फ पुरुष होते हैं. प्रोफेशनल समझाने वाले चैप्टर में महिलाएं गायब हैं.
- लड़की को हमेशा मीठा बोलना चाहिए. यह ग्रूमिंग भी इतने छोटी उम्र से ही शुरू की गई है.
- घर के में सफाई करते लड़कों की तस्वीरें नदारद हैं. लेकिन लड़की वो काम करती नज़र आ रही है.
आप तस्वीर देखिए.

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CBSE बोर्ड वाले एक प्राइवेट स्कूल में प्राइवेट पब्लिशर की किताब पढ़ाई जाती है, उसमें प्रोफेशन वाले चैप्टर में आप देख सकते हैं कि सारे प्रोफेशन में पुरुषों को दिखाया गया है. फोटो- अमित/ The Lallantop

 कल्पना एक पत्रकार हैं. वीडियो वेबसाइट ब्रुट के लिए काम करती हैं. उनकी छह साल की बेटी है. वो भी क्लास 2 में पढ़ती है. कल्पना के घर में काम का डिविज़न दूसरे घरों की तुलना में अलग हैं. उनके पति पंकज फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं और स्टे-ऐट-होम डैड भी हैं. माने घर संभालना, खाना बनाना, बच्ची की देखभाल पंकज ही करते हैं. कल्पना उनकी मदद करती हैं, पर ड्राइविंग सीट पर पंकज ही होते हैं. कल्पना बताती हैं,

"बुक्स में स्टीरियोटाइप तो काफी हैं ही. पर टीचर्स भी उसी माइंडसेट के साथ पढ़ाते हैं कि मां ही खाना बनाती है, मां ही घर के काम करती है. इस वजह से बच्ची कई बार कन्फ्यूज और परेशान हो जाती है. कि टीचर ऐसा क्यों कहती है कि मम्मी ही ये सब करती है. अब चूंकि घर से ही स्कूल चल रहे हैं तो हमें कई बार टीचर को करेक्ट करना पड़ता है कि हमारी बच्ची के पापा ही उसके लिए खाना बनाते हैं, उसे रेडी करते हैं, उसके असाइनमेंट्स में उसकी मदद करते हैं."

कल्पना आगे बताती हैं,

"लेकिन ज्यादातर घरों में ऐसा नहीं होता है. वहां मां खाना बनाती है, मां ही घर के सारे काम करती है. ऐसे बच्चों को अगर किताबों में वही बात दिखेगी, टीचर वही सिखाते दिखेंगे तो वो उसे ही सही व्यवस्था मानेंगे. और घर के काम को लेकर ये स्टीरियोटाइप खत्म ही नहीं हो पाएगा."

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NCERT की कक्षा तीसरी की किताब. वैसे तो NCERT की बुक्स में काफी हद तक जेंडर इनक्लूसिवनेस है. लेकिन खाना बनाना औरतों का काम है वाला स्टीरियोटाइप किताबों में काफी दिखता है. फोटो-Ebook/ NCERT वेबसाइट
NCERT की किताबों में क्या हाल है?

NCERT की पहली से पांचवी तक की किताबें पढ़कर पता चलता है कि ज्यादातर किताबों में महिलाओं का रिप्रेज़ेंटेशन बढ़ा है. उदाहरण के लिए कक्षा दो की अंग्रेज़ी की किताब में प्रोफेशनल्स के तौर पर महिलाओं को पुलिसवुमन, साइंटिस्ट और फोटोग्राफर के तौर पर दिखाया गया. उन्हें टेलर, डॉक्टर के तौर पर भी किताबों में प्रेजेंट किया गया.

कक्षा तीन की किताब ‘आसपास’ में घर के काम, सूखे इलाकों में पाने भरने को लेकर जो चैप्टर हैं उनमें लिखा गया है कि आपस में लिंगभेद को लेकर चर्चा करें. परिवार को लेकर एक चैप्टर है जिसमें घर के सभी लोगों के मिलजुलकर खाना बनाने की बात लिखी है. कक्षा चार और पांच की ‘आसपास’ में भी ज्यादातर चैप्टर्स में लड़कियों की कहानी बताई गई है. कर्णम मल्लेश्वरी, हेलन केलर के अलावा छोटे-छोटे माइलस्टोन्स अचीव करने वाली लड़कियों और महिलाओं की रियल लाइफ स्टोरी किताबों में बताई गई है. कुछेक चैप्टर्स में विकलांग बच्चों को भी फीचर किया गया है, उनकी ज़रूरतों के बारे में बात की गई है.

हालांकि, 'रसोई का काम महिलाओं का है' वाले स्टीरियोटाइप इन किताबों में दिखते हैं. जैसे एक चैप्टर में कुछ लड़के-लड़कियों का समूह बैठा दिखता है. उसमें एक लड़की बताती है कि उसने खाने में क्या बनाया, एक लड़का बताता है उसने लंगर में खाया, और बाकी सब बताते हैं कि उनकी मां ने क्या बनाया था. ये साफतौर पर ये दिखाता है कि खाना बनाना मांओं का काम है. एक और किताब में विभाजन के बाद भारत आए एक व्यक्ति की कहानी बताई गई है. जिसमें वो बताते हैं कि पहले उनकी पत्नी कैसे खाना बनाती थीं और अब बहुएं कैसे बनाती हैं. एक किताब में घर के पुरुष लेटे हुए, लड़का टीवी देखते हुए दिख रहा है. जबकि घर की औरत खाना बनाती और छोटी लड़कियां उसकी मदद करती दिख रही हैं. जबकि उसी चैप्टर में ये बताया गया है कि पुरुष और महिला दोनों ही काम करने बाहर जाते हैं.

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 NCERT की किताबों में जेंडर ईशूज़ पर चर्चा करने के एक्सरसाइज़ भी दिए गए हैं. इस तस्वीर में देखिए दो परिवार दिख रहे हैं, एक में सभी लोग मिलबांटकर काम कर रहे हैं, वहीं दूसरे में औरत खाना पकाती, लड़की खाना परोसती दिख रही है. फोटो- NCERT की वेबसाइट पर उपलब्ध ईबुक से ली गई है.


साल 2016 में NCERT के जेंडर स्टडीज़ विभाग ने NCERT समेत अलग-अलग राज्यों के टेक्स्ट बुक्स का एनालीसिस किया था. इस एनालिसिस में NCERT की किताब को लेकर ये बातें सामने आई थी-

# महिलाओं और पुरुषों को वैसे ही दिखाया गया जैसे हम उन्हें अपने आसपास देखते हैं. पुरुषों को बहुत सारे प्रोफेशंस में दिखाया गया. वहीं औरतों को होम मेकर, डॉक्टर, नर्स और टीचर तक सीमित कर दिया गया.
# कुछ जगहों पर महिलाओं को नए और उभरते प्रोफेशंस में काम करते दिखाया गया.
# महिला रोल मॉडल्स के बारे में भी किताबों में छापा गया.
# कुछ किताबों में दिखाया गया कि पुरुष/लड़के भावुक होते हैं और घर के काम भी करते हैं. और ये भी दिखाया गया कि औरतों को संपत्ति में अधिकार मिलता है.
# मैथ और साइंस की किताबों में इस बात का खास ध्यान दिया गया है कि उन्हें जेंडर इन्क्लूसिव बनाया जाए. साथ ही ऐसे मिथकों को तोड़ने की कोशिश की गई है जिनमें लड़कियों को मैथ और साइंस में कमज़ोर बताया जाता था.
# घर के काम को लेकर औरतों को स्टीरियोटाइप करने वाले कॉन्टेंट कुछ जगहों पर दिखे.

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 ये NCERT की किताब का एक पेज है. इसमें आप स्कूटी चलाती, कार चलाती, सामान बेचती, सफाई करती और कंट्रक्शन के काम में जुटी महिलाओं के देख सकते हैं. हालांकि इसमें चायवाले, जूती बनाने वाले और ट्रैफिक पुलिस के रोल में केवल पुरुषों को दिखाया गया है. फोटो NCERT की वेबसाइट पर उपलब्ध ई बुक से ली गई है.
ये तो हुई NCERT किताबों की बात, स्टेट बोर्ड्स की किताबों में क्या हाल है?

जेंडर स्टडीज़ विभाग ने NCERT के साथ-साथ जिन राज्यों की किताबों का एनालीसिस किया था वो हैं- असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, मणिपुर और राजस्थान. इन राज्यों की किताबों में जेंडर के नज़रिए से जो कमियां इस एनालिसिस में पाई गई थीं, वो इस प्रकार हैं-

# ज्यादातर राज्यों की किताबों में NCERT की तरह ही महिलाओं को लिमिटेड प्रोफेशंस में दिखाया गया. होम मेकर, डॉक्टर, नर्स, टीचर, डांसर, ब्यूटी पार्लर चलाने वाली के तौर पर दिखाया गया. कम ही किताबों में उन्हें साइंटिस्ट, फ्रीडम फाइटर और सोशल रिफॉर्मर की जगह दिखाया गया.
# असम की सोशल साइंस की किताबों में मैन, मैनकाइंड जैसे शब्दों का काफी इस्तेमाल किया गया. राजवंशों के इतिहास पर फोकस रहा, लेकिन इतिहास के अलग-अलग काल में महिलाओं की स्थिति क्या थी, इसका जिक्र नहीं था.
# बिहार की कुछ किताबों में घर के काम, सिलाई-कढ़ाई को महिलाओं के काम की तरह दिखाया गया है. घरेलू सहायक के तौर पर भी औरतों का जिक्र किया गया है.
# छत्तीसगढ़ की किताबों में वैज्ञानिकों, सोशल रिफॉर्मर्स के तौर पर पुरुषों को ही दिखाया गया है. अलग-अलग क्षेत्रों में महिलाओं के योगदान का कोई जिक्र नहीं है.
 

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क्लास 2 की प्राइवेट पब्लिशर की किताब में लड़कियों को घर के कामों में हाथ बंटाते दिखाया गया है, पर लड़के इस तरह की जिम्मेदारी निभाते नहीं दिखते हैं. फोटो- अमित/ The Lallantop

# हरियाणा की किताबों में जेंडर इन्क्लूसिविटी बहुत कम है. शब्दों और चित्रों दोनों में ही. महिला गणितज्ञों का कोई जिक्र नहीं. किताबों में पुरुषों को लीडरशिप और डिसीजन मेकिंग भूमिकाओं में दिखाया गया है. घर के कामों को लेकर स्टीरियोटाइप दिखाया गया है. औरतों को पैसे बचाने वाली के तौर पर दिखाया गया है. किसी भी फील्ड की महिला अचीवर्स का कोई जिक्र किताबों में नहीं है.
# हिमाचल प्रदेश में गणित की किताबों में पुरुषों के काम पर फोकस है. महिलाओं की भूमिका नहीं दिखाई गई है.
# जम्मू कश्मीर की किताबों में भाषा काफी हद तक जेंडर इन्क्लूसिव है. लेकिन क्राफ्ट मैन, फ्लाइंग मैन, सुपरमैन, पुलिस मैन, वर्क मैन जैसे शब्दों का इस्तेमाल काफी ज्यादा है. महिलाओं की तुलना में पुरुष किरदार किताब में  ज्यादा हैं.

CBSE स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली किताबों का हाल और खराब

इतना पढ़ने के बाद मोटा-मोटी ये कहा जा सकता है कि किताबें भाषा के स्तर पर कुछ हद तक तो जेंडर इंक्लूसिव हुई हैं, लेकिन महिलाओं के प्रोफेशन को लेकर, घर के काम को लेकर किताबों में अभी भी स्टीरियोटाइप परोसा जा रहा है. साल 2005 में सेंट्रल एडवाइज़री बोर्ड ऑफ एजुकेशन की एक कमिटी ने अलग-अलग राज्यों में पढ़ाए जाने वाले टेक्स्ट बुक्स और पैरलल टेक्स्ट बुक्स पर एक रिपोर्ट तैयार की थी. पैरलल टेक्स्टबुक प्राइवट पब्लिशरों द्वारा छापी जाने वाली उन किताबों को कहते हैं जो CBSE या स्टेट बोर्ट के सिलेबस के आधार पर तैयार की जाती हैं. इस रिपोर्ट में कई चौंकाने वाली बातें सामने आई थीं. एक नज़र डालिए-

# पश्चिम बंगाल की किताबों से महिलाओं का रिप्रेज़ेंटेशन गायब है.
# केरल की किताबों की तस्वीरों में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में बहुत कम है.
# प्राइवेट पब्लिकेशन की किताबों को देखने के बाद ये बेहद ज़रूरी लगता है कि पैट्रिआर्की के खिलाफ महिलाओं के लंबे संघर्ष पर छात्रों के बीच चर्चा करवाई जाए.
# कर्नाटक में एक मॉरल साइंस गाइड में लिखा है कि एक औरत को अपने पति की हिंसा बर्दाश्त करनी चाहिए, इस उम्मीद में कि जब उसका बेटा बड़ा होगा तो उसे सारे सुख देगा.
 

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 स्कूल की किताबों में इस तरह की बातें भी लिखी मिलती हैं कि महिला को अपने पति की हिंसा बर्दाश्त करनी चाहिए. सांकेतिक फोटो- Pixabay


# मदरसों के करिकुलम में लड़कियों को उनकी घरेलू जिम्मेदारियों के बारे में बताया जाता है, जबकि लड़कों की इस तरह की जिम्मेदारी का कोई जिक्र नहीं है.

क्या कहती है टेक्स्ट बुक राइटर्स के लिए बनी गाइडलाइन

NCERT द्वारा टेक्स्ट बुक्स के लिए जरी गाइडलाइन्स कहती हैं:

# ऐसे टॉपिक्स को चुना जाए जिनमें समाज में महिला और पुरुषों की बराबर भागीदारी दिखाई जाए. ऐसे चरित्रों को चुना जाए जो महिलाओं और पुरुषों की उपलब्धियों को समान रूप से दिखाएं.
# अलग-अलग क्षेत्रों में महिलाओं और पुरुषों की भूमिका से जुड़े किसी भी प्रकार के स्टीरियोटाइप से बचें.
# नैचुरल हैबिटेट से जुड़ी थीम्स में जेंडर न्यूट्रल भाषा का इस्तेमाल करें, उनमें मस्कुलिन या फेमिनिन भाषा के इस्तेमाल से बचें.
# ब्यूटिफुल गर्ल, स्ट्रॉन्ग गर्ल, सिली गर्ल, नॉटी बॉय जैसे विशेषणों से बचें.
 

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हमें लखनऊ की एक प्राइवेट स्कूल की टीचर ने बताया कि कई किताबों में सुंदर और बदसूरत के लिए क्रमशः गोरी और सांवली महिला की तस्वीरों का इस्तेमाल किया जाता है. जबकि सुंदर और बदसूरत जैसी चीज़ें बच्चों को पढ़ाई ही नहीं जानी चाहिए. फोटो- सोशल मीडिया

 # पुलिस मैन, चेयरमैन, बिजनेस मैन, फायरमैन, मैनपावर, मैनकाइंड जैसे शब्दों के इस्तेमाल से बचें. उनकी जगह क्रमशः पुलिस ऑफिसर, चेयर पर्सन, फायर पर्सन, ह्यूमन पावर, ह्यूमन काइंड जैसे शब्दों का इस्तेमाल करें.
# अगर बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसे रिवाज़ों का जिक्र करें तो बताएं कि ये समाज में कैसे आया, किन क्षेत्रों में फैला, इसका असर क्या होता है. इन रिवाज़ों पर आलोचनात्मक सवाल उठाएं. साथ ही इनके खिलाफ बने कानूनों के बारे में भी विस्तार में बताएं.
# मेल स्टीरियोटाइप्स को भी हाईलाइट करें.
# ट्रांसजेंडर्स के कंसर्न को भी हाईलाइट करें.
# किताबों में ऐसी तस्वीरों का इस्तेमाल हो जो जेंडर इंक्लूसिव हों. जेंडर सेंसिटिविटी को बढ़ावा देने वाले मैसेज़ को हाईलाइट करें.
# स्टीरियोटाइप कम करने के लिए ऐसे चित्रों का प्रयोग करने जिनमें महिलाएं नई भूमिकाओं में नज़र आएं. हाल के सालों में औरतें जिन नए क्षेत्रों में और जिन नई भूमकाओं में आगे बढ़ी हैं उन पर फोकस किया जाए. स्टीरियोटाइप्स को कम करने के लिए ज़रूरी है कि महिलाओं को गैर पारंपरिक भूमिकाओं में दिखाया जाए.

लेकिन क्या असल में ऐसा होता दिखता है?

जवाब है, नहीं. हमने NCERT की किताबें देखीं. उनमें काफी हद तक तस्वीरों और कॉन्टेंट में ये दिखता है कि महिलाओं से जुड़े स्टीरियोटाइप को कम करने की कोशिश की गई है. औरतें किताबों में दिखती है, हालांकि, घरेलू जिम्मेदारियों और गैर पारंपरिक भूमिकाओं को लेकर बनाए गए स्टीरियोटाइप को हटाने की ज़रूरत है. वहीं, प्राइवेट पब्लिशर्स की किताबों की बात करें तो उनमें बहुत ज्यादा सुधार की ज़रूरत है.

जेंडर रिप्रेज़ेंटेशन को लेकर हमने स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचर्स, जेंडर स्कॉलर और साइकोलॉजिस्ट से बात की. चलिए जानते हैं उन्होंने क्या कहा.
 

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 मधूलिका यूपी के बहराइच में प्रायमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. इसके साथ ही वो स्टूडेंट्स से जुड़े मुद्दों पर सोशल मीडिया पर लिखती भी हैं.

मधूलिका चौधरी. यूपी के बहराइच में सरकारी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. वो फेसबुक पर बच्चों की शिक्षा और दूसरे मुद्दों पर काफी लिखती भी हैं. उन्होंने फोन पर बातचीत में स्कूली किताबों और व्यवस्था को लेकर हमें काफी बातें बताईं. उन्होंने बताया,

"वैसे तो पहले की तुलना में अब जेंडर को लेकर सिलेबस बनाने वाले लोग ध्यान दे रहे हैं. लेकिन फिर भी कमियां दिखती हैं. जैसे महापुरुषों पर एक पूरा चैप्टर है पर उसमें एक भी महिला को जगह नहीं दी गई है. परिवार वाले चैप्टर में दिखाया गया है कि दादा जी बाज़ार जाते हैं, मां आंगन साफ करती हैं, लड़की घर में लोगों को पानी परोसती है, घर में कोई सामान न हो तो पिता जी उसे लेने जाएंगे. एक चैप्टर में पास-पड़ोस के बारे में बताया गया है, उसमें है- ईद में काकी की सेवइयां मज़ेदार, भाभी ने स्वादिष्ट खाना बनाया था, सरला दीदी के घर की गुझिया अच्छी बनती है...मतलब किचन का काम किसी में भी ऐसे नहीं दिखाया है जैसे घर के पुरुष ने किया हो. ये छोटी-छोटी चीज़ें हैं, पर बच्चे अपने घरों में यही देखते हैं, तो ये स्टीरियोटाइप बनता है. माइथोलॉजिकल कहानियां हैं, पर उनमें से किसी में भी कोई महिला लीड रोल में नहीं हैं."

मधूलिका बताती हैं कि प्राथमिक स्कूलों में जेंडर सेंसिटिविटी को लेकर ट्रेनिंग दी जाती है. बताया जाता है कि कैसे इस बात का ध्यान रखें कि कोई एक जेंडर दूसरे से ज्यादा महत्वपूर्ण न लगे. हालांकि, इसमें भी एक बड़ा स्टीरियोटाइप होता है, इसे लेकर वो बताती हैं,

"जूनियर हाई स्कूलों में एक मीना मंच चलता है. इसमें केवल लड़कियां शामिल होती हैं, एक लड़की इसकी लीडर होती है. और फिर ये लड़कियां आपस में पीरियड और लड़कियों से जुड़े दूसरे ईशूज़ पर बात करती हैं. स्टूडेंट्स से पहले टीचर्स की ट्रेनिंग होती है मीना मंच के लिए. उसके लिए स्कूलों से कहा जाता है कि महिला टीचर्स को ही भेजें क्योंकि इसमें लड़कियों के पीरियड्स, हाईजीन और सैनिटरी पैड्स वगैरह के बारे में बताया जाता है. अब जब नियम बनाने वाले ही इस स्टीरियोटाइप से नहीं निकल पा रहे हैं तो स्कूलों में क्या लागू होता होगा आप समझ सकते हैं. कई स्कूलों में महिला टीचर्स हैं ही नहीं, सारे पुरुष टीचर हैं. ऐसे में अगर पुरुष टीचर ट्रेन्ड नहीं होंगे और किसी बच्ची को स्कूल में ही पीरियड आ जाएगा तो वो क्या करेंगे? जूनियर हाई स्कूल के दौरान ही ज्यादातर लड़कियों के पीरियड्स शुरू होते हैं."

अनुराधा शंकर. लखनऊ के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हैं. वो एक लेखिका भी हैं. उन्होंने किताबों में जेंडर स्टीरियोटाइप और स्कूल टीचर्स को इसे लेकर मिलने वाली ट्रेनिंग पर मेरे साथी नीरज से बात की. उन्होंने बताया,

‘हमें जो ट्रेनिंग दी जाती है, उसमें इस बात पर खास फोकस किया जाता है कि हम लैंगिक संवेदनशीलता को बरतें और लैंगिक भेदभाव से बचें. हम इसका पूरा ध्यान रखते हैं कि हम बच्चों को ऐसी शिक्षा न दें जो लैंगिग भेदभाव को बढ़ावा देता है या जिससे उनकी मानसिकता पर गलत प्रभाव पड़े.’

Anuradha Shankar
 अनुराधा शंकर, लखनऊ के प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हैं और लेखिका हैं.

अनुराधा बताती हैं कि कई स्कूली किताबें रंगभेद और जातिगत भेदभाव से भी भरी हुई है. वो बताती हैं कि एक किताब में ‘सुंदर’ और ‘बदसूरत’ को दिखाने के लिए क्रमशः गोरी और काली लड़की के तस्वीर का इस्तेमाल किया गया है. वो बताती हैं कि पढ़ाते समय वो इस बात का ध्यान रखती हैं कि बच्चों को ये बार-बार बताएं कि किसी का रंग या शरीर की बनावट उसके अच्छे या बुरे होने का पैमाना नहीं है. और उसके आधार पर किसी का मज़ाक भी नहीं बनाना चाहिए.

मधूलिका और अनुराधा दोनों ने ही बताया कि स्कूलों में टीचर्स को जेंडर सेंसिटिविटी की ट्रेनिंग दी जाती है. लेकिन मधूलिका की बात से ये साफ है कि सरकारी सेटअप में अब भी जेंडर मुद्दों को केवल महिलाओं का मुद्दा माना जा रहा है. जबकि लिंगभेद से जुड़ी समस्या स्त्री और पुरुष दोनों की बराबर है.

किताबों में अगर जेंडर स्टीरियोटाइप देखते हैं, टीचर पढ़ाते हुए अगर बार-बार इस बात पर फोकस करते हैं कि बच्चों की मां उनके लिए खाना बनाती है, तो इसका लॉन्ग रन में उनकी मानसिकता पर क्या असर पड़ता है? इसे लेकर नीरज ने मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट डॉक्टर अखिल अग्रवाल से बात की. डॉक्टर अग्रवाल ने बताया,

“किताबों में सिलेबस कुछ इस तरह होना चाहिए कि एक लड़की ने हज़ारों बंधन तोड़कर कैसा मुकाम हासिल किया. गांव की लड़की ने सामाजिक कुरीतियों से लड़कर अफसर बनकर दिखाया. इससे बच्चों में मुश्किलों से लड़ने की सीख विकसित होगी. अगर हम जेंडर स्टीरियोटाइप दिखाएंगे और पढ़ाएंगे तो वो कहीं न कहीं ऐसी बच्चियों को हतोत्साहित कर सकता है जो कुछ करना चाहती हैं. आगे बढ़ना चाहती हैं.”

Dr Akhil Agrawal
 मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट डॉक्टर अखिल अग्रवाल.

डॉक्टर अग्रवाल आगे कहते हैं,

“बच्चा जो होता है वो कच्ची मिट्टी की तरह होता है. जिसे हम गढ़ते हैं प्राइमरी स्कूल में. वो एज जब बच्चा सपने देखना शुरू करता है. वो जानना और सीखना शुरू करता है. ऐसे में जब वो देखते हैं कि लड़कियों का काम रसोई में मदद करना है, मां का काम खाना पकाना- घर संभालना है, तो इसका सबसे नेगेटिव असर लड़कियों पर पड़ता है. उनके मन में ये भावना बन जाती है कि वो चाहे कहीं भी चली जाएं, कुछ भी बन जाएं उन्हें घर लौटकर चूल्हा-चौका करना है. जबकि होना ये चाहिए कि हम उन्हें किरण बेदी बताएं, कल्पना चावला बताएं. लड़कियां भी सेना में जा सकती हैं, अफसर बन सकती हैं, मेडल जीत सकती हैं. दूसरी तरफ लड़कों के दिमाग में भी ये सोच पैदा होती है कि उनका काम है कमाना और फीमेल का काम घर संभालना है. जबकि आज के वक्त में इसे बदलने की ज़रूरत है.”

इसके साथ ही हमने बात की जेंडर स्कॉलर और सोशल एक्टिविस्ट गीता यथार्थ से. उन्होंने बताया,

"जब हम संज्ञा सिखा रहे होते हैं. तो हमने इस तरह के सेंटेंस बहुत पढ़े होंगे कि राम स्कूल जाता है और सीता रोटी बनाती है, मम्मी की रोटी गोल-गोल, पापा का पैसा गोल गोल. इन सबमें हम क्या देखते हैं? कि मम्मी का रोल रोटी बनाने तक सीमित है. पापा का पैसा गोल गोल यानी पापा का रोल है पैसे कमाना है. लड़कों का काम पढ़ाई करना है, लड़कियों का काम रसोई में हाथ बंटाना है."

गीता ने UNESCO के EFA GMR यानी एजुकेशन फॉर ऑल ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट, 2015 का जिक्र करते हुए बताया कि जेंडर को लेकर स्टीरियोटाइप केवल भारत में नहीं, पूरी दुनिया के टेक्स्ट बुक्स में है. उन्होंने बताया,

“इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया के अलग-अलग देशों में किस तरह का करीकुलम पढ़ाया जाता है. अलग-अलग सब्जेक्ट्स का बताया गया है कि किस विषय की बुक में मेल और फीमेल का कितना रिप्रेज़ेंटेशन है. जैसे चीन में प्राइमरी एजुकेशन की किताबों में मेल रिप्रेजेंटेशन 61 प्रतिशत है, जबकि इंडिया में ये 94 परसेंट है. साथ में ये बताया गया है कि डॉक्टर, इंजीनियर, शॉपकीपर का उदाहरण देना है तो वहां पर पुरुष दिखते हैं. टीचर या टेलर के एग्जाम्पल आएंगे तो वहां पर महिला दिखाया जाता है.”

Geeta Yatharth
 जेंडर स्कॉलर और सोशल मीडिया एक्टिविस्ट गीता यथार्थ.

गीता बताती हैं कि उनका बेटा अभी केजी क्लास में जा रहा है. उसके लिए उन्होंने ऑक्यूपेशन का एक चार्ट खरीदा. उस चार्ट में अलग-अलग प्रोफेशन की 20 फोटोज़ हैं, और लगभग सारी फोटोज़ पुरुषों की. केवल एक नर्स की जगह महिला की फोटो है. वो कहती हैं,

“इस तरह का सिलेबस पढ़ाया जाना जिसमें जेंडर डिस्क्रिमिनेशन हो. जिसमें रंग भेद हो, मुझे लगता है कि इसको बदलने की बहुत ज्यादा ज़रूरत है.”

आखिर में सबसे ज़रूरी बात, जब भी हम जेंडर की बात करते हैं तो हम महिला-पुरुष के बारे में बात करके रुक जाते हैं. तीसरे जेंडर के बारे में बात नहीं होती. जितनी भी किताब हमने देखी उनमें से किसी में भी थर्ड जेंडर का रिप्रेज़ेंटेशन नहीं था. ऐसे में एक बड़ा कंसर्न ये है कि जब बच्चों को शुरुआत से ही ट्रांसजेंडर की उपस्थिति के बारे में नहीं बताया जाएगा, तब तक वो उसे एक्सेप्ट नहीं कर पाएंगे. और तब तक  ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों के साथ भेदभाव, उनका मज़ाक उड़ाने जैसी घटनाएं होती रहेंगी.

वीडियोः स्कूलों से लेकर सेंट्रल यूनिवर्सिटीज़ तक टीचर्स के कितने पद खाली हैं?

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