ट्विटर पर #बायकॉटनिरमा (BoycottNirma) हैशटैग ट्रेंड कर रहा है. ये वॉशिंग पाउडर निरमा के एक ऐड की वजह से है जो अभी हाल में ही रिलीज हुआ है. इस ऐड में अक्षय कुमार एक मराठा योद्धा की पोशाक में नज़र आ रहे हैं. अपने साथी लड़ाकों के साथ.
ऐड में क्या है?
इस ऐड की शुरुआत में मराठा योद्धा युद्ध जीतकर वापस आते हैं. महल की महारानियां उनका स्वागत करती हैं. लेकिन तभी उन्हें योद्धाओं के गंदे कपड़े दिखते हैं और वो कहती हैं कि ये उन्हें ही धोने पड़ेंगे. अक्षय मराठा किंग हैं. वो कहते हैं- ‘महाराज की सेना दुश्मनों को धोना जानती है और अपने कपड़े भी’. इसके बाद अक्षय और बाकी कलाकार नाचते हुए कपड़े धोते नज़र आते हैं. निरमा से. आखिर में कपड़े एकदम चकाचक सफेद हो जाते हैं.
आप ऐड देख लीजिए:
इस पर विवाद क्यों हो रहा है?
सोशल मीडिया पर कुछ लोग इस ऐड को मराठा पहचान और संस्कृति के प्रति ऑफेन्सिव बता रहे हैं. यूजर्स लिख रहे हैं कि मराठा योद्धाओं ने जान देकर स्वराज्य बचाया है. वो इस तरह नाचा नहीं करते थे. कुछ लोगों का कहना है कि कैची ऐड बनाने के चक्कर में ‘निरमा’ ने संस्कृति के साथ खिलवाड़ किया है. लोग यहां तक लिख रहे हैं कि घर-घर में इस्तेमाल होने वाले ‘निरमा’ को इस गलती के लिए सबक सिखाया जाएगा. इसे बायकॉट करके.
लेकिन इस ऐड की जो दो बड़ी दिक्कतें है उस पर न किसी ने सवाल नहीं उठाया.
सबसे पहला. हमारी ये समझ कि कपड़े धोना मुख्यतः महिलाओं का काम है. गंदे कपड़े देखकर मुंह बिचकाती हैं, कि धोना तो हमें ही पड़ेगा. इस पर योद्धाओं की मर्दानगी जाग जाती है. तब वो कहते हैं कि हम दुश्मनों को धो सकते हैं तो कपड़े क्यों नहीं. इसे एक चैलेन्ज की तरह लिया जाता है. ज़िम्मेदारी की तरह नहीं. जो हर एक इंसान की होनी चाहिए. आपने पहने, आप धोएं.
लेकिन इस ऐड में जो दिखा, वो ईगो जैसा लगा.
बिना मर्दानगी को घुसाए सेंसिबल ऐड कैसे बनाते हैं, उसका उदाहरण इन ऐड्स में देखा जा सकता है:
# ये एरियल का ऐड जो पूरी दुनिया में वायरल हुआ. इसमें पति-पत्नी के बीच जिम्मेदारी बांटने की बात कही गई थी.
# इस ऐड में एक सिंगल पिता की ज़िम्मेदारी पर फ़ोकस किया गया है. जोकि अपने-आप में बेहद रिफ्रेशिंग है.
दूसरी दिक्कत. युद्ध को लेकर हमारे दिमाग में जो इमेजरी भरी गई है, उसमें कुछ शब्द हमेशा सुनाई देते हैं. शौर्य. पराक्रम. हिम्मत. बुलंदी. दुश्मनों को धो देना, रौंद देना. इस तरह की भाषा अक्सर इस्तेमाल की जाती है. आप क्रोनोलॉजी समझिये.
सालों तक युद्ध को एक ग्लोरियस चीज बताया जाएगा.
उसमें मरने वालों को अपनी-अपनी साइड के हिसाब से हीरो और विलेन बनाया जाएगा.
इससे जुड़ी बातों को रोजमर्रा की बातचीत में इस्तेमाल किया जाएगा.
धीरे धीरे लोगों की संवेदनशीलता और सोच सकने की क्षमता को परे किया जाएगा.
उसके बाद स्टेट ऑफ वॉर, द न्यू नॉर्मल बन जाएगा.
उस पर ऐड बनेंगे. इसी तरह के.
और हमें उसमें कोई दिक्कत नज़र नहीं आएगी.
ख़ास बात ये है, कि हम इस क्रोनोलॉजी के आखिरी दौर में पहुंच चुके हैं. और हमें इस बात का एहसास भी शायद अब तक हुआ नहीं है. युद्ध की परिकल्पना हमारे लिए वीडियो गेम सरीखी हो चुकी है. जाओ और मारो. असल में युद्ध कैसा हो सकता है, इसके बारे में हम सोचते भी नहीं.
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