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अफगानिस्तान में तालिबान के बनने-बिखरने और फिर से ताकतवर होने की पूरी कहानी

अफगानिस्तान में भारत ने 22 हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा की रकम इन्वेस्ट की थी.

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पिछली बार जब 1996 से 2001 के दौरान तालिबान का अफगानिस्तान में शासन था, तो देश के उत्तरी इलाकों में उसका वैसा नियंत्रण नहीं था, जैसा कि दक्षिणी इलाकों में. (प्रतीकात्मक फोटो: इंडिया टुडे )
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12 जुलाई 2021 (Updated: 12 जुलाई 2021, 06:09 PM IST) कॉमेंट्स
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24 दिसंबर, 1999. ये तारीख़ सुनकर कुछ याद आया? ये वही तारीख़ है, जिस रोज़ काठमांडू से नई दिल्ली आ रही इंडियन एयरलाइन्स की फ़्लाइट IC 814 को हाइज़ैक कर लिया गया था. हाइज़ैकर्स ने वो प्लेन भारत, पाकिस्तान और UAE से होता कंधार में लैंड कराया था. कंधार, अफ़गानिस्तान के दक्षिणी हिस्से में बसा है. जिस समय की ये घटना है, तब अफ़गानिस्तान में तालिबान की सरकार थी. भारत सरकार उसे मान्यता नहीं देती थी. मगर प्लेन हाइज़ैकिंग के चलते भारत सरकार को उसी तालिबानी हुकूमत की मदद लेनी पड़ी. तालिबान ने अपहरणकर्ताओं और भारत सरकार के बीच मध्यस्थता कराई. कहते हैं कि इसी मध्यस्थता के चलते हाइज़ैकर्स ने 36 आतंकियों को रिहा करने की अपनी डिमांड छोड़ दी थी. इसके बदले वो तीन आतंकियों की रिहाई पर सेटल हुए. भारत सरकार को हाइज़ैकर्स की मांगों के आगे झुकना पड़ा. भारत ने जिन तीन आतंकियों को छोड़ा, उनके नाम थे- ओमर शेख. मौलाना मसूद अजहर. और, मुश्ताक़ अहमद ज़रगार. कौन हैं ये आतंकी? ओमर शेख ने आगे चलकर 9/11 हमले के एक हाइज़ैकर की फ़ाइनैंसिंग की. उसी ने अमेरिकी पत्रकार डैनियल पर्ल की हत्या भी कराई. मौलाना मसूद अजहर ने आतंकी संगठन 'जैश-ए-मुहम्मद' बनाया. इसी संगठन ने 2001 में भारतीय संसद पर और 2016 में पठानकोट स्थित एयरफ़ोर्स बेस पर हमला करवाया था. तीसरा आतंकी, मुश्ताक़ अहमद ज़रगार आतंकी संगठन 'अल-उमर मुजाहिदीन' का कमांडर है. इसी संगठन ने मई 2019 में अनंतनाग में CRPF पर हुए आतंकी हमले की जिम्मेदारी ली थी. ये हाइज़ैकिंग प्रकरण भारत के सबसे विवश पलों में से एक है. इसी के चलते कंधार का नाम भी हमारे जेहन में एक कड़वी याद बनकर जम गया. अब इसी कंधार से भारत के साथ जुड़ी एक बड़ी ख़बर आई है. भारत सरकार को यहां स्थित अपने वाणिज्यिक दूतावास को खाली कराना है. इंडियन एयरफ़ोर्स के एक विशेष विमान को भेजकर भारत को वहां से अपने लोगों को वापस लाना पड़ा है. क्या है ये पूरा मामला? कंधार से तालिबान का क्या है ख़ास रिश्ता? विस्तार से बताते हैं. तालिबान की कहानी अफ़गानिस्तान में कुल 34 प्रांत हैं. इन्हीं में से एक है, कंधार. ये प्रांत 17 ज़िलों में बंटा है. इनमें से एक ज़िला है, ख़ाकरेज़. यहां 'चाह-ए-हिम्मती' नाम का एक गांव है. दशकों पहले की बात है. इस गांव में एक मौलवी रहते थे. नाम था, ग़ुलाम नबी अख़ूंद. वो गांव के बच्चों को क़ुरान पढ़ाते. बदले में ग्रामीण जो थोड़ी-बहुत मदद देते, उसी से घर चलता. ठीक-ठीक तो नहीं पता. मगर 1959 से 1962 के बीच का कोई साल रहा होगा, जब मौलवी अख़ूंद के यहां एक बेटा पैदा हुआ. उसका नाम रखा गया- ओमर. ओमर छोटा सा था, जब उसके अब्बू गुज़र गए. मां ने दूसरी शादी कर ली. ओमर के नए पिता भी मज़हबी तालीम से जुड़े थे. एक तो घर का माहौल. ऊपर से मजहबी तालीम. अपनी जवानी में दाखिल होने से पहले ही ओमर का दिमाग़ी रुझान धर्म की तरफ़ मुड़ चुका था. 70 के दशक की बात है. टीनएज़र ओमर गांव के मदरसे से निकलकर आगे की तालीम के लिए कंधार शहर पहुंचा. यहां उसकी दीनी तालीम के ही दौरान एक बड़ी घटना हुई. ये बात है 1979 की. इस बरस सोवियत संघ ने अफ़गानिस्तान पर हमला कर दिया. सोवियत से लड़ने के लिए अफ़गानिस्तान में मुजाहिदीनों की एक फ़ौज खड़ी हो गई. इस फ़ौज में कई अलग-अलग समूह थे. इन्हीं में से एक ग्रुप कंधार शहर के उन धार्मिक छात्रों का भी था, जिन्हें लोग 'तालिब' बुलाते थे. ओमर ने भी सोवियत के खिलाफ़ चल रही जंग में शिरक़त की. वो युद्ध में तीन बार जख़्मी हुआ. वो सबसे ज़्यादा घायल हुआ तीसरी बार. ये घटना है, कंधार की पश्चिमी दिशा में बसे एक गांव संगीसर की. यहां सोवियत सैनिकों और मुजाहिदीनों की लड़ाई चल रही थी. सोवियत सैनिकों ने ओमर और उसके साथियों पर ग्रेनेड्स फेंके. इनमें से एक ग्रेनेड से निकले छर्रे ओमर के चेहरे पर लगे और उसकी दाहिनी आंख बाहर आ गई. 1989 में सोवियत की वापसी के साथ इस युद्ध का एक पन्ना ख़त्म हो गया. कई मुजाहिदीन जंग के मैदान पर बने रहे और कई सामान्य जीवन में लौट आए. ओमर भी उसी संगीसर लौट आया, जहां उसने अपनी एक आंख खोई थी. अब वो यहां एक छोटी सी मस्जिद का इमाम बन गया. ओमर की ये इमाम वाली ज़िंदगी बहुत जल्द ख़त्म होने वाली थी. इसकी वजह थी, अफ़गानिस्तान के हालात. सोवियत जा चुका था. मगर उससे लड़ने के लिए खड़े हुए मुजाहिदीन लड़ाकों ने हथियार नहीं रखे थे. वो अब अफ़गानिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में वर्चस्व बनाने के लिए लड़ रहे थे. कंधार का भी यही हाल था. यहां भी सोवियत से युद्ध लड़ चुके कई कमांडर्स अपना इलाका बनाकर बैठ गए थे. इनके लोग आम नागरिकों पर भी जुल्म करते. इस अराजकता में सोवियत की लड़ाई लड़ चुके तालिब गुट को भी अपने लिए मौका दिखा. उन्होंने तय किया कि वो कंधार में हावी हो चुके गिरोहों से लड़ेंगे. इस तालिब ग्रुप को अपने लीडर की तलाश थी. इन्हें एक ऐसा शख्स चाहिए था, जिसका कोई राजनैतिक लिंक ना हो. ये तलाश ख़त्म हुई, ओमर के नाम पर. ओमर के नेतृत्व में इस संगठन ने अपना नाम रखा- तालिबान. अब तो आप समझ ही गए होंगे कि हम किस ओमर की बात कर रहे हैं. जी, हम तालिबान के पहले लीडर मुल्ला मुहम्मद ओमर की बात कर रहे हैं. तालिबान का गठन तालिबान का गठन हुआ, 1994 के पतझड़ में. गठन के तकरीबन साथ-ही-साथ हुई एक स्थानीय घटना ने इस ग्रुप को अपनी पहचान बनाने का बड़ा मौका भी दे दिया. हुआ ये कि संगीसर शहर के पास एक महिला की किडनैपिंग हुई. उसके साथ कई बार रेप किया गया. इस अपराध के पीछे हाथ था एक स्थानीय वॉरलॉर्ड का. ओमर और उसके ग्रुप ने आरोपी को पकड़ा, उसकी हत्या की और उसकी लाश को एक टैंक से लटका दिया. इस क्रूर घटना ने तालिबानी लड़ाकों को अगल-बगल के इलाकों में पहचान दिला दी. इसके बाद इस संगठन ने बड़े स्तर पर भर्ती शुरू की. इनके निशाने पर थे, दीनी तालीम ले रहे छात्र. ओमर इन छात्रों से कहता कि इस्लाम ख़तरे में है. लोग शैतानियत के साथ खड़े हो गए हैं. सरे बाज़ार लोगों की इज्ज़त उतारी जा रही है. जब इस्लाम ही ख़तरे में हो, तो केवल पढ़ाई करने से कुछ फ़ायदा नहीं होगा. इस्लाम के मुताबिक समाज बनाने के लिए इस्लाम के ही छात्रों को आगे आना होगा. ऐसे ही प्रॉपेगैंडा भाषणों के सहारे ओमर ने कई छात्रों का ब्रेनवॉश करके उन्हें तालिबान के साथ जोड़ लिया. ओमर को लड़ने के लिए लड़ाके मिल गए थे. अब उसे ज़रूरत थी हथियारों की. ये हथियार कहां से आए? कंधार प्रांत की सीमा पर बसा एक शहर है, स्पिन बुलदाक. सितंबर 1994 में मुल्ला ओमर के नेतृत्व में करीब 200 तालिबानी लड़ाकों ने स्पिन बुलदाक पर कब्ज़ा कर लिया. ये जीत तालिबान के लिए जीवनरेखा साबित हुई. कैसे? स्पिन बुलदाक शहर के पास कुछ पहाड़ी गुफ़ाएं हैं. इन गुफ़ाओं के भीतर सोवियत के जमाने का एक बड़ा हथियार डिपो था. तालिबान ने यहां रखे हथियार लूट लिए. इन लूटे हुए हथियारों की मदद से तालिबान ने कंधार पर हमला किया. 1994 का साल ख़त्म होते-होते तालिबान समूचे कंधार पर हुकूमत करने लगा. इसी कंधार में उसने 'अमीर उल-मोमिनीन' की पदवी धारण की. अमीर उल-मोमिनीन का मतलब होता है, इस्लाम में आस्था रखने वालों का लीडर. कंधार में मिली इस बड़ी जीत ने तालिबान के लिए आगे के रास्ते खोल दिए. वो पड़ोसी देश पाकिस्तान की भी नज़र में आया. पाकिस्तानी सेना और ISI अफ़गानिस्तान में अपने हित सुनिश्चित करने का ज़रिया खोज रही थी. उसे तालिबान में पोटेंशियल दिखा. पाकिस्तान को लगा कि अगर वो तालिबान की मदद करके उसे जिता दे, तो अफ़गानिस्तान में एक फ्रेंडली गवर्नमेंट आ जाएगी. तालिबान सत्ता में आकर पाकिस्तानी हितों का ध्यान रखेगा. साथ ही, भारत-विरोधी उसके अजेंडे को भी सपोर्ट करेगा. इसी मंशा से पाकिस्तानी आर्मी और ISI ने तालिबान को मदद देनी शुरू की. उसे पैसा दिया. हथियार दिए. और इसी मदद के सहारे सितंबर 1996 में तालिबान ने काबुल को भी जीत लिया. वो अफ़गानिस्तान का शासक बन गया. राजधानी काबुल सांकेतिक तौर पर भले ही इस हुकूमत की सर्वोच्च गद्दी हो. लेकिन असलियत में तालिबान का गढ़ था, कंधार. यहीं तालिबान और उसके लीडर मुल्ला ओमर का जन्म हुआ. यहीं पर तालिबान को पहचान मिली. यहीं पर तालिबानी शासन को वैधता मिली. इसी कंधार ने उसके लिए अफ़गानिस्तान फ़तह के रास्ते खोले. यही वजह है कि काबुल जीतने के बाद भी ओमर कंधार में ही रहता था. यही शहर तालिबानी सत्ता का केंद्र था. अब सवाल है कि हम ये इतिहास आज क्यों बता रहे हैं? इसकी वजह है, कंधार से आ रही हालिया ख़बरें. आप जानते हैं कि अमेरिकी सेना अफ़गानिस्तान से विदा हो रही है. इसी के मद्देनज़र 1 मई, 2021 से तालिबान ने अफ़गानिस्तान को दोबारा जीतने का अभियान तेज़ किया. दो महीने के भीतर तालिबान ने यहां सैकड़ों ज़िले जीत लिए हैं. तालिबान का फिर से कब्जा बीते दिनों इस लड़ाई के कंधार शहर पहुंचने की ख़बर आई. कंधार शहर, कंधार प्रांत की राजधानी है. तालिबान बीते कई हफ़्तों से ये प्रांत जीतने की कोशिश कर रहा है. उसने पहले कंधार प्रांत के बाहरी इलाके जीते. फिर ज़िलों और शहरों को जीतते हुए कंधार शहर की ओर बढ़ने लगा. 9 मई की देर रात उसे कंधार शहर के भीतर पहुंचने में कामयाबी भी मिल गई. कंधार में खुले वॉर फ्रंट से भारत से जुड़ी एक ख़बर भी आई. पता चला कि भारत ने कंधार स्थित अपना कॉन्सुलेट खाली करवा दिया है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, कंधार स्थित भारतीय वाणिज्यिक दूतावास में डिप्लोमैट्स और बाकी कर्मी मिलाकर भारत के कुल 50 लोग थे. 10 जुलाई को भारत ने इन्हें कंधार से निकाल लिया. इसके लिए भारतीय वायुसेना का एक विशेष विमान वहां भेजा गया था. इस बारे में जानकारी देते हुए 11 जुलाई को भारतीय विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी किया. इसमें लिखा था कि अफ़गानिस्तान के सुरक्षा हालात पर भारत लगातार नज़र रख रहा है. वहां तैनात हमारे लोगों की सुरक्षा सबसे ज़रूरी है. हमने कंधार स्थित भारतीय कॉन्सुलेट को बंद नहीं किया है. मगर कंधार शहर के पास चल रही ज़ोरदार लड़ाई को देखते हुए हम फिलहाल वहां तैनात अपने लोगों को वापस ले आए हैं. ये एक तात्कालिक कदम है. हमारे कॉन्सुलेट में अभी लोकल स्टाफ़ तैनात हैं. उनके माध्यम से कॉन्सुलेट अभी काम कर रहा है. हम काबुल स्थित अपने दूतावास के माध्यम से वीज़ा डिलिवरी और बाकी सेवाएं जारी रखने की व्यवस्था कर रहे हैं. अफ़गानिस्तान के मौजूदा हालात को देखते हुए काबुल स्थित भारतीय दूतावास ने पिछले हफ़्ते ही एक अडवाइज़री जारी की थी. इसमें अफ़गानिस्तान की सुरक्षा स्थिति को ख़तरनाक बताया गया था. कहा गया था कि आतंकवादी लगातार हमले कर रहे हैं. आम आबादी को भी निशाना बना रहे हैं. ऐसे में अगर बेहद अर्जेंट ना हो, तो भारत के लोग अफ़गानिस्तान जाने से बचें. इंडियन ऐम्बैसी ने ये भी कहा था कि अफ़गानिस्तान में भारतीय नागरिकों को किडनैप किए जाने की भी गंभीर आशंका है. अमेरिका की अफ़गानिस्तान से वापसी की प्रक्रिया 90 पर्सेंट तक पूरी हो चुकी है. अगस्त 2021 ख़त्म होते-होते ये प्रक्रिया भी पूरी हो जाएगी. तब केवल 600 के करीब सैनिक काबुल स्थित अमेरिकी दूतावास की सुरक्षा के लिए अफ़गानिस्तान में रह जाएंगे. अमेरिका की वापसी के समानांतर ही तालिबानी बढ़त भी जारी है. तालिबान का दावा है कि उसने देश के 85 फीसदी से ज़्यादा हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया है. आशंका है कि आने वाले दिनों में समूचा अफ़गानिस्तान एकबार फिर तालिबान के पास चला जाएगा. ऐसे में वहां किसी के सुरक्षित रहने की कोई गारंटी नहीं. तालिबान दावा करता है कि वो विदेशी दूतावासों को निशाना नहीं बनाएगा. लेकिन तालिबान का भरोसा नहीं किया जा सकता. उसपर यकीन करके जान-माल का रिस्क नहीं लिया जा सकता है. एक शांत, अमनपसंद, और लोकतांत्रिक अफ़गानिस्तान में सबका हित था. भारत ने भी इस हित में हाथ खोलकर निवेश किया. अफ़गानिस्तान के पुनर्निर्माण में मदद देते हुए भारत ने 22 हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा की रकम इन्वेस्ट की. मगर उसी अफ़गानिस्तान से अपने स्टाफ़ को हमें इस तरह रेस्क्यू करना पड़ा. समय रहते बरती गई ये सावधानी समझदार फ़ैसला तो थी. मगर अफ़गानिस्तान की स्थितियां बहुत निराश करने वाली हैं.

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