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BJP-कांग्रेस जिस कच्चातिवु द्वीप पर भिड़ रही हैं उसे श्रीलंका को क्यों दे दिया गया था?

Katchatheevu Island Row: क्या है इस कच्चातिवु द्वीप का इतिहास? क्यों ये द्वीप भारत और श्रीलंका के बीच विवाद का विषय है? जानिए इस द्वीप की पूरी कहानी.

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Katchatheevu Island
जून, 1974 में एक समझौते के तहत भारत ने कच्चातिवु द्वीप को श्रीलंका को दे दिया था. (फोटो: इंडिया टुडे)
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2 अप्रैल 2024
Updated: 2 अप्रैल 2024 22:27 IST
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लोकसभा चुनाव से पहले भारत के दक्षिण में स्थित कच्चातिवु द्वीप (Katchatheevu Island) को लेकर राजनीतिक विवाद चल रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के मंत्री कांग्रेस और DMK को इस मुद्दे को लेकर घेर रहे हैं. वे कह रहे हैं कि लोगों को ये जानने का अधिकार है कि कच्चातिवु द्वीप कैसे श्रीलंका को दे दिया गया. यहां हम बात करेंगे उसी कच्चातिवु द्वीप की, जिसे लेकर BJP कांग्रेस पर हमलावर है. क्या है इस द्वीप का इतिहास? क्यों ये द्वीप भारत और श्रीलंका के बीच विवाद का विषय है? 

कच्चातिवु का इतिहास

शुरुआत एक शब्द से, जलडमरूमध्य. महान दार्शनिक लुडविग विट्गेंस्टाइन ने भाषा को लेकर एक थ्योरी दी थी. भाषा वो है, जो शब्दों के माध्यम से आपके मन में एक तस्वीर बनाती है. इसलिए ऐसे शब्द जो साफ तस्वीर बना सके, सबसे अधिक उपयोगी होते हैं. जलडमरूमध्य एक ऐसा ही शब्द है. जल यानी पानी, मध्य यानी बीच में. और डमरु का मतलब तो हम सब जानते ही हैं. इस शब्द से आपके मन में एक तस्वीर बनती है. पानी के बीच में डमरू. कितना आसान है समझना.

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फिलहाल हम इस शब्द से शुरुआत इसलिए कर रहे हैं क्योंकि कच्चातिवु द्वीप की कहानी एक जलडमरूमध्य से शुरू होती है. जो हिन्द महासागर में भारत के दक्षिणी छोर और पड़ोसी देश श्रीलंका के बीच बनता है. इसका नाम है पाक जलडमरूमध्य. पानी के इस रास्ते पर कई द्वीप पड़ते हैं. इनमें से एक का नाम है कच्चातिवु द्वीप. इस द्वीप पर कोई रहता नहीं है. साफ पानी मुश्किल से मिलता है. और अक्सर मछुवारे यहां अपना जाल सुखाने आदि कामों के लिए रुकते हैं.

(फोटो: इंडिया टुडे)

285 एकड़ में बसा ये छोटा सा द्वीप भारत के दक्षिणी छोर, रामेश्वरम से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर है. 17वीं सदी में ये मदुरै के एक राजा रामनद की जमींदारी के कंट्रोल में आता था. उस दौर में यहां एक चर्च का निर्माण भी कराया गया था. भारत से हर साल हजारों लोग इस चर्च में प्रार्थना के लिए जाते रहे हैं. हालांकि इसके अलावा इस द्वीप पर ज्यादा बसाहट नहीं थी. तमिलनाडु और जाफना से मछुआरे जब इस क्षेत्र में मछली पकड़ने आते, तो यहां रुका करते थे.

भारत में ब्रिटिशों के शासन के दौरान जब मद्रास प्रेसीडेंसी की स्थापना हुई तो ये द्वीप अंग्रजों के कंट्रोल में आ गया. 1921 में इस द्वीप पर हक को लेकर पहली बार विवाद हुआ. चूंकि श्रीलंका जो तब सीलोन के नाम से जाना जाता था, वहां भी अंग्रेज़ों का कंट्रोल था. इसलिए ब्रिटिश सरकार ने इस द्वीप का सर्वे कराया और इस द्वीप को श्रीलंका का हिस्सा बताया. हालांकि, भारत की तरफ से इस पर विरोध दर्ज हुआ क्योंकि जैसा पहले बताया ऐतिहासिक रूप से ये एक भारतीय राजा के कंट्रोल में आता था. 1947 तक ये विवाद ज्यों का त्यों ही रहा. 1947 में सरकारी दस्तावेज़ों के हिसाब से इसे भारत का हिस्सा माना गया. लेकिन तब भी श्रीलंका ने इस पर अपना अधिकार छोड़ा नहीं.

कच्चातिवु को लेकर विवाद

1974 तक दोनों देश इस द्वीप का प्रशासन संभालते रहे. मुख्य रूप से ये द्वीप मछली पकड़ने की जगह था. इसलिए दोनों देश के मछुआरे इसे इस्तेमाल करते रहे. हालांकि इस बीच दोनों देशों के बीच एक-दूसरे की सीमा के उल्लंघन को लेकर कई बार तनाव भी हुआ. समुद्री सीमा रेखा विवाद को सुलझाने के लिए साल 1974 में दोनों देशों के बीच एक बैठक हुई. इस बैठक ने एक समझौते का रूप लिया. ये समझौता दो हिस्सों में हुआ था. 26 जून को कोलंबो में और 28 जून को दिल्ली में. इस समझौते के तहत एक खास चीज ये हुई कि भारत ने कच्चातिवु श्रीलंका को दे दिया.

हालांकि, समझौते में ये भी निहित था कि भारतीय मछुआरे इस द्वीप पर जा सकेंगे. लेकिन क्या वे लोग मछली पकड़ने का काम कर सकेंगे? इसका इस समझौते में साफ-साफ उल्लेख नहीं था. लिहाजा श्रीलंका सरकार ने माना कि भारतीय मछुआरे केवल जाल सुखाने और आराम करने जैसी गतिविधियों के लिए इस द्वीप का इस्तेमाल कर सकेंगे. इसके अलावा भारतीयों को इस द्वीप पर बने चर्च में भी बिना वीज़ा जाने की इजाजत थी. इस समझौते के बाद दक्षिण के राज्यों के तरफ से काफी हो-हल्ला मचा था. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करूणानिधि ने तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिख इस समझौते पर एतराज़ भी जताया था.

इंदिरा और भंडारनायके की दोस्ती

सरकार इस कदम से पीछे नहीं हटी. इसका एक कारण श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमंत्री सिरिमावो भंडारनायके (Srimavo Bandaranaike) और इंदिरा गांधी की दोस्ती को माना जाता है. ट्रिविया के लिए ये भी जान लीजिए कि सिरिमावो भंडारनायके दुनिया की पहली महिला थीं, जो किसी देश की प्रधानमंत्री मंत्री चुनी गई थीं. भंडारनायके भी इंदिरा की तरह एक ताकतवर नेता थीं. और इंदिरा की ही तरह उन्होंने भी अपने देश में आपातकाल लगाया था. साल 1980 की बात है. भंडारनायके और उनके बेटे अनुरा पर इमरजेंसी के दौरान सत्ता के दुरुपयोग की जांच चल रही थी. 1977 के चुनावों में भंडारनायके की विपक्षी पार्टी United National Party ने उनकी और इंदिरा की दोस्ती को एक बड़ा मुद्दा बनाते हुए नारा दिया था, आज भारत, कल श्रीलंका. यानी जैसे भारत में इंदिरा की हार हुई है, वैसी ही भंडारनायके की हार होगी.

इत्तेफाक से भंडारनायके के बेटे अनुरा की छवि भी एकदम इंदिरा के बेटे संजय गांधी जैसी थी. उन पर भी जमीन घोटाले को लेकर जांच चल रही थी. एक रोज़ सदन में विपक्षी नेता अनुरा पर हमला बोल रहे थे. गुस्से में अनुरा अपनी सीट पर खड़े हुए और मेज थपकाते हुए बोले,

“रुको, मिसेज़ गांधी के जीतने का इंतज़ार करो, तब तुम देखोगे..”

बहरहाल अपनी मेन स्टोरी पर लौटते हुए जानते हैं कच्चातिवु द्वीप विवाद पर आगे क्या हुआ. 1974 के बाद 1976 में दोनों देशों के बीच समुद्री सीमा को लेकर एक और समझौता हुआ. मुख्यतः ये समझौता मन्नार और बंगाल की खाड़ी में सीमा रेखा को लेकर हुआ था. लेकिन इसी समझौते में एक और चीज जुड़ी थी, जिससे कच्चातिवु का विवाद और भड़का.

समझौते में लिखा था,

“भारत के मछुआरे और मछली पकड़ने वाले जहाज श्रीलंका के एक्सक्लूसिव इकनोमिक ज़ोन में नहीं जाएंगे.”

एक्सक्लूसिव इकनोमिक ज़ोन यानी समंदर का वो हिस्सा जिस पर श्रीलंका का अधिकार है. इस हिस्से में कच्चातिवु द्वीप भी आता था. ये एक बड़ी दिक्कत थी क्योंकि इस समझौते से पहले भारतीय मछुआरे कच्चातिवु  द्वीप तक मछली पकड़ने जाते थे. एक और मसला ये था कि सरकार ने ये कदम तमिलनाडु की सरकार से मशवरा किए बिना उठाया था. ये इमरजेंसी का दौर था. और तमिलनाडु में सरकार भंग की जा चुकी थी. ये समझौता भारत और श्रीलंका के बीच सीमा विवाद सुलझाने में एक महत्वपूर्ण कदम तो साबित हुआ, लेकिन तमिलनाडु के मछुआरे इससे खासे नाराज थे. इसलिए ये मुद्दा तमिलनाडु की राजनीति में समय-समय पर भूकंप लाता रहा.

भारत-श्रीलंका जलसीमा विवाद

इसके लगभग डेढ़ दशक बाद, 1991 में तमिलनाडु की विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया. ये प्रस्ताव कच्चातिवु द्वीप को वापस भारत में मिलाने और मछुआरों के अधिकार फिर से हासिल करने की बात करता था. वहीं दूसरी तरफ श्रीलंका में गृह युद्ध की आग छिड़ी हुई थी. इसलिए उस समय तो श्रीलंका की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. लिट्टे से जूझ रही श्रीलंका की नौसेना के पास इस मुद्दे से निपटने का वक्त नहीं था. इसलिए लंबे वक्त तक भारतीय मछुआरे इस इलाके में मछली पकड़ने के लिए जाते रहे. 

कच्चातिवु द्वीप (फाइल फोटो: आजतक)

साल 2009 में लिट्टे का खात्मा होते ही इस मुद्दे ने तूल पकड़ना शुरू किया. श्रीलंका की नौसेना ने इस इलाके में सुरक्षा बढ़ा दी. इसके चलते भारतीय मछुवारे जैसे ही इस इलाके में जाते, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता. गिरफ्तारी की घटनाएं जैसे-जैसे बढ़ने लगी, मुद्दे ने राजनीति को भी हलकाना शुरू कर दिया.

तमिलनाडु के नेताओं पर लगातार दबाव पड़ रहा था कि वो इस मुद्दे को केंद्र सरकार के सामने उठाए. 2008 में AIADMK नेता जयललिता इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं. उनकी तरफ से दलील दी गई कि बिना संविधान संशोधन के सरकार ने भारत की जमीन किसी और देश को दे दी. 2011 में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने विधानसभा में इस बाबत एक प्रस्ताव भी पारित कराया.

2014 में इस मामले पर सरकार की तरफ से दलील देते हुए अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा,

“कच्चातिवु द्वीप एक समझौते के तहत श्रीलंका को दिया गया. और अब ये इंटरनेशनल बाउंड्री का हिस्सा है. आप इसे वापस कैसे लेंगे? कच्चातिवु वापस लेने के लिए आपको युद्ध लड़ना होगा.”

2015 में इस मामले में श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के एक बयान से काफी विवाद हुआ था. एक टीवी चैनल से बात करते हुए उन्होंने कहा था,

“अगर भारतीय मछुआरे इस इलाके में आएंगे तो उन्हें गोली मार दी जाएगी”.

तब दक्षिण के नेताओं की तरफ से इस बयान पर काफी तीखी प्रतिक्रिया भी आई थी.चूंकि ये मछुआरों की रोजी-रोटी का मुद्दा है, इसलिए समय-समय पर तमिलनाडु की राजनीति इसको लेकर गर्माती रहती है. कच्चातिवु द्वीप का मुद्दा दो देशों से जुड़ा है. इसलिए विदेश नीति भी इससे प्रभावित होती है.

चूंकि, चुनाव का मौसम है. इसलिए वर्तमान में ये राजनीति का मुद्दा भी बन गया है. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी इस मामले पर बयान दिया है. सोमवार, 1 अप्रैल को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा,

“पिछले 20 वर्षों में, 6184 भारतीय मछुआरों को श्रीलंका द्वारा हिरासत में लिया गया है और इसी समयकाल में 1175 भारतीय मछली पकड़ने वाली नौकाओं को श्रीलंका द्वारा जब्त किया गया है, पिछले पांच वर्षों में कच्चातिवु मुद्दा और मछुआरों का मुद्दा संसद में विभिन्न दलों द्वारा बार-बार उठाया गया है. तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मुझे कई बार पत्र लिखा है और मेरा रिकॉर्ड बताता है कि मौजूदा मुख्यमंत्री को मैं इस मुद्दे पर 21 बार जवाब दे चुका हूं.”

जयशंकर ने आगे कहा,  

"सच ये है कि आज हम वास्तव में न केवल ये जानते हैं कि ये किसने किया और किसने इसे छुपाया बल्कि ये भी जानते हैं कि 1974 के कच्चातिवु समझौते के लिए जिम्मेदार पार्टियां कौन थीं और 1976 में मछुआरों का अधिकार कैसे समाप्त किया गया."

वहीं कांग्रेस ने भी इस पर प्रतिक्रिया दी है. पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस के सीनियर नेता पी चिदंबरम ने X (पहले ट्विटर) पर लिखा,

"जैसे को तैसा करना पुराना हो गया. ट्वीट के बदले ट्वीट नया हथियार है. क्या विदेश मंत्री 27 जनवरी 2015 के RTI जवाब का जिक्र करेंगे. मुझे पूरा भरोसा है कि 27 जनवरी, 2015 को जयशंकर विदेश सचिव थे. RTI जवाब में उन परिस्थितियों को सही ठहराया गया था जिसके तहत भारत ने माना था कि एक छोटा सा द्वीप (कच्चातिवु) श्रीलंका का है. अब विदेश मंत्री और उनका मंत्रालय ऐसे क्यों बदल रहे हैं?"

कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने आरोपों के जवाब में कहा कि प्रधानमंत्री तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं. उन्होंने कहा कि ये द्वीप हमने दोस्ती के चलते दिया था. लेकिन ये द्वीप देते वक्त कन्याकुमारी में मछली पकड़ने का अधिकार हमने लिया. द्वीप देने के वक्त मछुआरों को और तीर्थयात्रियों के जाने पर कोई रोक नहीं लगी. पवन खेड़ा ने कहा कि जयशंकर ने विदेश सचिव रहते हुए एक RTI में बताया था कि ऐसी कोई डील नहीं हुई कि हमारी जमीन वहां चली गई है या उनसे हमने कोई जमीन ली हो.

लोकसभा चुनाव से पहले कच्चातिवु द्वीप का मुद्दा उठना. और इस पर प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के बयान से साफ है कि BJP इस मामले को बड़ा मुद्दा बनाना चाहती है. उम्मीद है कि अब आपको कच्चातिवु द्वीप का पूरा मुद्दा समझने में मदद मिली होगी.

वीडियो: तारीख: कहानी कच्चातिवु द्वीप की, जिसे इंदिरा गांधी सरकार ने श्रीलंका को दे दिया था?

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