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छत्तीसगढ़ नक्सली हमले में 10 जवानों की मौत की पूरी कहानी पता चल गई

जिस DRG के जवान मारे गए, उसमें नक्सली रहे युवाओं की भर्ती क्यों होती है?

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blast carried out by Naxalites in Chhattisgarh Dantewada
दंतेवाड़ा में हुआ नक्सली हमला. (फोटो: PTI)
26 अप्रैल 2023 (Updated: 27 अप्रैल 2023, 07:41 IST)
Updated: 27 अप्रैल 2023 07:41 IST
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छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा के अरनपुर गांव में 26 अप्रैल को माओवादी हमला (Chattisgarh Naxal Attack) हुआ. डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (DRG) के 10 जवानों और एक सिविलियन की IED धमाके में मौत हो गई. ये रिपोर्ट लिखे जाने तक कई अधिकारी मौके पर मौजूद थे. तफतीश और छानबीन की जा रही है. लेकिन जिस DRG के जवान मारे गए, उसकी कहानी क्या है और हमले के पीछे की कहानी क्या है?

DRG की कहानी

साल 2008 में बस्तर संभाग के कांकेर और नारायणपुर जिलों में नक्सल ऑपरेशन के लिए DRG की शुरुआत हुई. फिर 2013 में बीजापुर और बस्तर. 2014 में सुकमा और कोंडागांव. और 2015 में दंतेवाड़ा में इसकी शुरुआत हुई. DRG में मूलतः आत्मसमर्पण कर चुके नक्सली शामिल होते हैं. चूंकि बतौर नक्सली ये इन जंगलों में पहले भटक चुके हैं और आदिवासियों से परिचय भी है, ऐसे में ये एक बेहतर विकल्प साबित होते हैं.

इस बारे में छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं,

"हालिया दिनों में DRG तमाम नक्सल ऑपरेशन में महत्त्वपूर्ण भूमिका में आया है. राज्य की पुलिस से लेकर केंद्रीय बल भी इन पर भरोसा करते हैं. ऐसा क्यों? बीते कुछ समय पहले तक DRG के जवान नक्सलवादी थे. जो सरेंडर करके सशस्त्र बल में शामिल हुए. इसलिए वो नक्सलियों की आदतों, उस इलाके के टेरेन और ऑपरेशन की बारीकियां ज्यादा बेहतर समझते हैं. अमूमन DRG के जवान ही तमाम नक्सल ऑपरेशन से लेकर सर्चिंग तक की कार्रवाई में ही तमाम सुरक्षा बलों को लीड करते हैं."  

सूत्र आगे बताते हैं,

"नक्सली सरेंडर करने के बाद 1-2 साल बाद आब्जर्वेशन में रहते हैं. इस दौरान सुरक्षा बल उनकी एक्टिविटी को वॉच करते रहते हैं. इस दौरान ठीक रहने पर वो गाइड और गोपनीय सैनिक की भूमिका में आते हैं. नक्सल ऑपरेशन के पहले इनफॉर्मर की भूमिका में काम करते हैं. पुलिस फंड से उन्हें कुछ न कुछ पैसे दिए जाते रहते हैं. उनके परिवारों को नक्सल प्रभावित इलाकों से निकालकर सुरक्षित इलाकों में बसाया जाता है. जब सरेंडर किए गए नक्सली गाइड की भूमिका में सफल होते हैं तो उन्हें इंसास राइफल दी जाती है. फिर वो नक्सल ऑपरेशन में फाइट करने के लिए तैयार हो जाते हैं.

जहां सुरक्षा बल फाइट करने में फॉर्मैशन वगैरह का खयाल रखते हैं, DRG के जवान घुसकर फाइट करना जानते हैं. क्योंकि वो खुद पहले नक्सली रहे हैं. इसलिए वो इलाके के साथ-साथ गुरिल्ला युद्ध पद्धति को भी अच्छे से समझते हैं. ऑपरेशन के दौरान जिधर से फायर आ रहा है, DRG के जवान उधर ही घुसकर जवाबी फायरिंग करते हैं." 

यहां पर एक खतरा भी है. जो व्यक्ति कल बतौर नक्सली अपने साथियों के बगल में खड़े होकर फायरिंग कर रहा था, वही व्यक्ति अब बतौर DRG जवान सामने से नक्सलियों पर फायरिंग कर रहा है. इसलिए नक्सलियों के खिलाफ चल रहे युद्ध में वो सबसे अधिक खतरे पर हैं. पत्रकार इस भाषा में बात करते हैं कि पुलिस भी इन्हें गोली चलाने के लिए इनके पुराने साथियों के सामने खड़ा कर देती है. हर जगह से इनका ही नुकसान. हालांकि, अधिकारी इस बात को नकारते हैं. वो कहते हैं कि चूंकि DRG के लोग नक्सलियों का काम करने का तरीका जानते हैं, तो नक्सली इनसे डरते हैं. 

फरवरी से जून के महीने में होते हैं नक्सली हमले

छत्तीसगढ़ में नक्सलवादी हिंसा की बड़ी घटनाएं फरवरी से जून के महीने में ही दर्ज की गई हैं. 

अप्रैल 2010 - ताड़मेटला नक्सलवादी हमला - 76 CRPF जवानों की मौत.
मई 2013 - झीरम घाटी हमला - 30 कांग्रेसी नेताओं और सुरक्षाकर्मियों की मौत.
अप्रैल 2021 - सुकमा-बीजापुर हमला - 22 सुरक्षाबल जवानों की मौत.

और अब है दंतेवाड़ा के अरनपुर की ये घटना.

फरवरी से जून के महीने में ही ये बड़े हमले क्यों होते हैं?

सूत्र बताते हैं कि दरअसल नक्सलवादी हर साल फरवरी से जून तक TCOC यानी tactical counter-offensive campaign चलाते हैं. इस दौरान छापामार-गुरिल्ला टेकनीक से सशस्त्र बलों पर सबसे अधिक हमले किए जाते हैं. और इसी समय माओवादियों को फिर से जुटने का समय मिलता है. लेकिन ये फरवरी से जून के ही महीने में क्यों होता है? सूत्र बताते हैं कि दरअसल नक्सल प्रभावित जंगलों में इस मौसम के बाद पतझड़ की वजह से जंगल थोड़े साफ हो जाते हैं, तो नक्सलवादी ऑपरेशन के लिए मौसम मुफीद हो जाता है. 

दूसरा कारण ये है कि ये तेंदू पत्ते तोड़ने और बिक्री का समय होता है. तो माओवादी तेंदू पत्ते के ठेकेदारों से लेवी (जिसको हफ्ता कहते हैं) भी इसी मौसम में वसूलते हैं. मानसून आते ही जंगल में मूवमेंट करना और तेंदू पत्ता बटोरना माओवादियों के लिए असंभव हो जाता है. लेकिन जो पेड़ों पर नई पत्तियां आती हैं, उनकी आड़ में छिपकर नक्सली अगले मुफीद मौसम का इंतजार करते हैं.

वीडियो: छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले में पुलिस की एक टीम ने एक नक्सली को मार गिराने का दावा किया

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