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'खुद मंदिर बनवाया 10 लाख रुपये देकर, पर दलित हूं, वहां पूजा नहीं कर सकती'

गुजरात के तीन मंदिरों का रियलिटी चेक.

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फोटो - thelallantop
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कुलदीप
3 अगस्त 2016 (Updated: 3 अगस्त 2016, 11:34 AM IST) कॉमेंट्स
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और फिर आप पूछते हैं कि दलित होने का दर्द क्या होता है? गुजरात के अहमदाबाद के पास एक गांव है, रहमलपुर. यहां की सरपंच जाति से दलित हैं. नाम, पिंटूबेन. उन्होंने अपनी कमाई से 10 लाख रुपये लगाकर गांव में एक शिव मंदिर बनवाया. लेकिन उन्हें खुद इस मंदिर में अंदर तक जाकर पूजा की इजाजत नहीं है. क्योंकि वो जाति के पायदान पर 'नीचे' हैं. जबकि संविधान की वजह से वो गांव के प्रधान के पद पर हैं. गुजरात में गोरक्षकों की गुंडागर्दी के बाद हाल में दलितों का बड़ा आंदोलन हुआ है. भारी भीड़ अहमदाबाद में जुड़ी. दलित समाज के लोगों ने मरे हुए पशुओं को उठाने से मना कर दिया. संसद तक इसके चर्चे हुए और प्रदेश और केंद्र सरकार दोनों सकते में आ गईं. ये शुरू हुआ था चार दलितों की अधनंगा करके की गई पिटाई से, क्योंकि वे एक मरी हुई गाय की खाल निकाल रहे थे.
दलितों पर अत्याचार या भेदभाव की इक्का-दुक्का घटनाएं अब राष्ट्रीय सुर्खियां बनने लगीं हैं, लेकिन कितना कुछ बदलना अभी बाकी है. समाज और इसकी धार्मिक इकाइयों में घुसकर देखें तो जातिगत भेदभाव की जड़ें बहुत मजबूत नजर आती हैं. मंदिरों पर कथित 'ऊंची जाति' वालों का कब्जा है. और उन्होंने पिछड़ों-दलितों के लिए पूजा-पाठ में भी बंदिशें तय कर रखी हैं.
रहमलपुर के गांव वाले मंदिर चाहते थे. गांव की दलित सरपंच ने पूरे मन से मदद की. पिंटूबेन का कहना है कि मंदिर के लिए उन्होंने करीब 10 लाख रुपये खर्च कर डाले. और ये पैसा उनका खुद का था, पंचायत का नहीं. पिंटूबेन के पास 35 बीघा जमीन है, जिस पर खेती से उनकी अच्छी आमदनी होती है.
एक टीवी चैनल के पत्रकार ने पिंटूबेन से पूछा, 'आप मंदिर पर इतना खर्च कर रही हैं. आपका अंदर जाकर पूजा नहीं करना चाहतीं?' इस पर वह बोलीं, 'बिल्कुल चाहती हूं. लेकिन लोग इसके खिलाफ हैं. हंगामा हो सकता है. सौ लोगों में कोई तो कह ही देगा कि मेरे आने से मंदिर अशुद्ध हो गया, भगवान अशुद्ध हो गए.'
पिंटूबेन को आप न सिर्फ गुजरात, बल्कि पूरे मुल्क में उस दलित समाज का प्रतिनिधि मान सकते हैं जिन्हें आज भी समाज में न इज्जत मिली है, न धार्मिक आज़ादी. और ये हाल आर्थिक तौर पर समृद्ध पिंटूबेन का है. जो गरीब दलित हैं, उनकी हालत सोचिए. 'इंडिया टुडे' ने एक रिपोर्ट की है. उनका रिपोर्टर गांधीनगर के कोठा गांव वाले काली मंदिर पहुंचा, कुछ दलितों को साथ. ये देखकर वहां पुजारी की भौंहे तन गईं. उन्होंने कहा, 'आप आना चाहो तो आ सकते हो. पर ये लोग (दलित) नहीं आ सकते.' पुजारी दलितों को छूने को भी तैयार नहीं थे. उनसे पूछा गया कि क्या वे उन्हें तिलक भी नहीं लगाते तो जवाब मिला, 'वो अपने हाथ से लगा लेते हैं. हम नहीं लगाते.'
इस मंदिर के दरवाजे और भगवान की मूर्ति के बीच एक दीवार है, जिसे दलित पार नहीं कर सकते. उन्हें दूसरे लोगों के साथ प्रसाद लेने की इजाजत भी नहीं है.
गांधीनगर के उनावा में मशहूर नाग मंदिर है. यहां भी दलितों के लिए एक सीमा तय की गई है. इस मंदिर का रखरखाव करने वाले एक शख्स ने कहा, 'उन्हें मना है. यही उनका कर्म है. ये हमारी नहीं, उसकी (ऊपर वाले की तरफ इशारा करके) लगाई रोक है.' काश, पिंटूबेन मंदिर खुलवाने की बजाय 10 लाख रुपयों से एक स्कूल खुलवा देतीं, हाशिए पर पड़े दलित परिवारों के बच्चों के लिए. इसीलिए अंबेडकर याद आते हैं. शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो. धर्म ने दलितों को दिया ही क्या है!

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