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'कोर्ट' वाले चैतन्य को मिला 'ग्रैविटी' वाला गुरु

भारत के 'भविष्य का शेर' चैतन्य तमाणे हो गया है, एल्फांजो क्यूरॉन का शागिर्द. क्रिएटिविटी के सुंदर ब्लास्ट की उम्मीद लगाई जा सकती है.

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चैतन्य, क्यूरॉन के साथ.
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गजेंद्र
9 जून 2016 (Updated: 9 जून 2016, 10:01 AM IST) कॉमेंट्स
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सिर्फ एक (लेकिन क्लासिक) फिल्म पुराने चैतन्य एक साल तक क्यूरॉन से मिलते रहेंगे और उनकी अगली फिल्म की शूटिंग पर भी जाएंगे. बहुत उत्साहजनक!
इस जानकारी को पाते हुए मन में रचनात्मकता का एक सुंदर विस्फोट सा होता है और चटख़, मुलायम रंग उड़ते हुए नीचे गिरते हैं. चैतन्य तम्हाणे को मेंटर करेंगे एल्फॉन्ज़ो क्यूरॉन! सच में!
चैतन्य कौन? 2014 में सितंबर के पहले हफ्ते में 71वें वेनिस इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में यह नाम पहली बार सशक्त रूप से सुनाई दिया था. अपनी पहली फीचर फिल्म ‘कोर्ट’ के लिए उन्होंने दुनिया के इस बेहद अहम और समझदार फिल्म महोत्सव में दो अहम और समझदार अवॉर्ड जीत लिए. इनमें से एक था ‘भविष्य का शेर’ पुरस्कार. उसके बाद प्रशंसाओं और पुरस्कारों का दौर अगले साल तक चलता रहा. कोर्ट ने 30 अवॉर्ड जीते.
इनमें बेस्ट फीचर फिल्म का नेशनल अवॉर्ड भी था. इसे भारत की आधिकारिक एंट्री के तौर पर अमेरिका के ऑस्कर पुरस्कार-2016 में भी भेजा गया.
इन पुरस्कारों से भी कहीं ज्यादा जरूरी है चैतन्य की फिल्म की विषय-वस्तु. हिम्मती, समझदार और स्पष्ट. जैसे ‘पीके’ और ‘आंखों देखी’ हमें समाज में बने ढर्रों और पूर्वाग्रहों को छोड़ने और खुद जानना शुरू करने के लिए प्रेरित करती हैं, ‘कोर्ट’ न्यायपालिका को केंद्र में रखकर बात करती है. जितने निर्लिप्त और निर्मल रूप से ये आगे बढ़ती है, हमें भरोसा नहीं होता कि कहानी यूं भी कही जा सकती है.
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कहानी को दो लाइन में ही सुनो, सुना दो तो ध्यान बंध जाए. एक दलित क्रांतिकारी कवि है जिस पर मुंबई के सत्र न्यायालय में केस चल रहा है कि उसने एक गटर साफ करने वाले को अपनी कविता के जरिए आत्महत्या करने के लिए उकसाया है!
लेकिन फिल्म उस कवि पर कम, उसका न्याय करने बैठे लोगों, बहस करने वाले वकीलों, उनके परिवारों, उनकी सोचों, उनकी अज्ञानता, आभासहीनता और दैनिक अमानवीयता पर ज्यादा जाती है. अंत तक ये भी समझ आता है (समझदार को) कि हम यदि एक न्यायधीश को परमेश्वर मानकर चलेंगे तो क्या भोलापन कर रहे होंगे. आप कभी नहीं भूलेंगे कि जज साहब अंत में टीशर्ट-बरमूडा पहन, रिजॉर्ट में वेकेशन मनाते हुए करीब खेल रहे बच्चे को थप्पड़ लगा देते हैं और वो रोने लगता है. याद रहेगा कि वे कभी भी रुला सकते हैं.
समझ पाएंगे कि पदों को पवित्र मानना छोड़ें. अकल लगाना शुरू करें. समाज में सबकुछ सामान्य है, आप उसका ज्ञान पाएं, तर्क करें, सुधारें. इसी तरह सिनेमाई और सामाजिक वर्जनाओं पर 2001 में मेक्सिकन फिल्म ‘वाई तू मामा तांबिएन’ आई थी. इसका निर्देशन अल्फॉन्ज़ो क्यूरॉन ने किया था.
वाई तू मामा
वाई तू मामा तांबिएन' का एक सीन

कुछ साल पहले से फिल्ममेकिंग में सक्रिय अल्फॉन्ज़ो को ‘वाई तू..’ से जगप्रसिद्धि मिली. इसने मैक्सिको के बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड कमाई की ये बात सबसे कम महत्व की है लेकिन अचरज है कि ऐसा भी था. प्रमुख रूप से तो ये ऐसी फिल्म थी जिसने अपनी प्रस्तुति से हैरान किया.
ये दो दोस्तों और एक लड़की की सड़क यात्रा की कहानी है. इनकी यौन क्रीड़ाओं, नशे के सेवन और नैतिक रूप से नर्वस करने वाले क्लाइमैक्स के दृश्य जब आते हैं तो अल्फॉन्ज़ो ये नहीं देखते कि दर्शक को झटका तो नहीं लगेगा. आप फिल्म देखेंगे तो पाएंगे कि कहने की कोशिश क्या है. यहां कोशिश ये भी है कि इन फिल्मों के बारे में जितना कम से कम खुलासा किया जा सके, आपके फिल्म देखने के अनुभव के लिए उतना ही मूल्यवान होगा.
ये कहानी मैक्सिको के 1999 के राजनीतिक हालातों को भी किनारे-किनारे दिखाती चलती है. समझने वाले के लिए इतना ही काफी होता है.
अल्फॉन्ज़ो वैसे जिन दो फिल्मों के लिए सबसे ज्यादा जाने जाते हैं वो हैं 2013 में प्रदर्शित हुई ‘ग्रैविटी’ जो हैरतअंगेज थी. इसकी भी अलग कहानी है जो फिर कभी. इनकी दूसरी सबसे हाई प्रोफाइल फिल्म है 2004 में प्रदर्शित ‘हैरी पॉटर एंड द प्रिज़नर ऑफ एज़कबान’. इसमें भी कोई आपत्ति नहीं. लेकिन ‘वाई तू..’ के अलावा अल्फॉन्ज़ो की सबसे उम्दा फिल्म है जो सर्वाधिक समय तक जीवित रहेगी – ‘चिल्ड्रन ऑफ मेन’.
ये साइंस फिक्शन फिल्म 2006 में रिलीज हुई थी. इसकी कहानी 2027 में स्थित होती है. जहां दुनिया में आखिरी कार्यकारी सरकार यूके में बची है. शरणार्थी यहां पहुंच रहे हैं. ह्रदयविदारक स्थिति है. दो दशकों से किसी बच्चे ने जन्म नहीं लिया है. मानवों की प्रजनन क्षमता खत्म हो चुकी है. इस काल्पनिक भविष्य को दिखाते हुए भी अलफॉन्ज़ो हैरान करते हैं.
यही अलफॉन्ज़ो अब चैतन्य की उस्तादी करने जा रहे हैं. घड़ियों की नामी कंपनी रोलेक्स 2002 से कला के क्षेत्र में एक पहल ‘मेंटर एंड प्रोटेजी आर्ट इनीशिएटिव’ करती आ रही है जिसमें हर साल दुनिया के कुछ सबसे टैलेंट वाले युवा कलाकारों को दुनिया के कुछ सबसे अनुभवी कलाकारों के साथ जोड़ा जाता है. वरिष्ठ आर्टिस्ट उन्हें मेंटर करते हैं, उन्हें बहुमूल्य ज्ञान देते हैं जो सिर्फ उन्हीं के पास है.
स्थापत्य, लेखन, संगीत, नृत्य, रंगमंच, विजुअल आर्ट और फिल्म क्षेत्र से वर्ष 2016-17 के लिए भी 7 प्रोटेजी चुने गए हैं. इनमें फिल्म क्षेत्र से चैतन्य का चयन हुआ. इस पहल में जाने का एक ही तरीका है कि आपको न्यौता दिया जाए और फिर आप आवेदन करें. चैतन्य उन 18 फिल्मकारों में से थे जिन्हें चुना गया था लेकिन अंत में वे सबसे आगे रहे.
एक महीने पहले चैतन्य ने अर्जी दी थी, फिर फोन पर इंटरव्यू हुआ था. उसमें पास होने पर वे लंदन गए और वहां दोपहर के भोजन पर अल्फॉन्ज़ो क्यूरॉन से मिले. अब आने वाले एक साल में दोनों कई बार मिलेंगे. आइडिया शेयर करेंगे, बातें करेंगे, सिनेमा पर अपनी-अपनी समझ का आदान-प्रदान करेंगे. चैतन्य अलफॉन्ज़ो की अगली फिल्म की शूटिंग में भी शरीक हो सकेंगे.
इस गुरुत्व को पाने के लिए चैतन्य भी बेताब थे. उनका कहना है कि उनका संवाद स्थापित होगा, एक रचनात्मक गठजोड़ होगा और क्यूरॉन की प्रक्रिया को अंदर से वे देख सकेंगे जो अब से पहले उन्होंने नहीं देखी है. वही क्यूरॉन का मानना है कि मेंटर बनना एक दो-तरफा गली है. यहां पारस्परिक रूप से दोनों ही व्यक्तियों को कुछ न कुछ हासिल होता है. वे कहते हैं, ‘मेरी कोई उम्मीदें नहीं हैं लेकिन जब ज्ञान बांटा जाता है तो कुछ हासिल ही होता है.’
चैतन्य ने एक इंटरव्यू में क्यूरॉन से मिलने के अनुभव के बारे में कहा है कि क्यूरॉन के भारत को लेकर ज्ञान ने उनका भेजा उड़ा डाला. कि 90 के दशक में क्यूरॉन महाराष्ट्र भी काफी घूमे थे और उन्हें 17वीं सदी के कवि और संत तुकाराम जैसे व्यक्तित्वों के बारे में भी जानकारी थी.
रचनात्मकता का ये सुंदर विस्फोट कैसी रचना सामने लाएगा ये बहुत उत्साहित करने वाला है. इन दोनों ही फिल्मकारों की अगली फिल्मों की घोषणा की प्रतीक्षा है.

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