24 जून 2016 (Updated: 24 जून 2016, 02:00 PM IST) कॉमेंट्स
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बड़ी असहिष्णुता है भाई. कोई कुछ कहता भी नहीं. सिर्फ सहता है. पाकिस्तान का नाम आते ही तो हमारी देशभक्ति जाग जाती है. जागे भी क्यों नहीं ? हरकतें भी तो उसकी ऐसी होती हैं. वहां अल्पसंख्यकों के साथ क्या सलूक होता है. सबको पता रहता है. लेकिन क्या अफगानिस्तान के बारे में जानते हो. वही जो भारत का दोस्त है. उसी अफगानिस्तान में सिर्फ 220 हिंदू और सिख परिवार बचे हैं. 1992 तक 2 लाख 20 हजार हिंदू-सिख थे. तब तक वहां काबुल सरकार नहीं गिरी थी. पूरे अफगानिस्तान में हिंदू-सिख फैले हुए थे. नेशनल कौंसिल ऑफ हिंदू एंड सिख के चेयरमैन अवतार सिंह बताते है कि अब ये समुदाय सिर्फ पूर्वी प्रांतों नांगरहार, गजनी और काबुल तक सीमित है. एक वारदात सुन लीजिए. आपको खुद अंदाजा हो जाएगा क्या हाल है वहां अल्पसंख्यकों का.
काबुल शहर के ठीक बीचोंबीच. जगतार सिंह अपनी दुकान पर बैठे हैं. दिन का उजाला है. उनकी आयुर्वेदिक दुकान है. तेजी के साथ एक आदमी आता है. चाकू निकालता है और रख देता है जगतार की गर्दन पर. कहता है- इस्लाम कबूल करो नहीं तो गर्दन काट दी जाएगी. ये वारदात इस महीने की शुरुआत की है, लेकिन अल्पसंख्यकों की बदहाली को बयान करने के लिए काफी है. वारदात बताती है किस तरह देश कट्टरता की जंजीरों में जकड़ा है.
खौफ में ही गुजरता है दिन
जगतार बताते हैं कि पूरा दिन खौफ में गुजरता है. कब क्या हो जाए पता नहीं. अगर आप मुस्लिम नहीं हैं, तो कट्टरपंथियों की निगाह में इंसान नहीं हो. समझ नहीं आता क्या करें और कहां जाएं. आतंकवाद और कट्टरता की वजह से आर्थिक चुनौतियां दामन नहीं छोड़तीं.
अधिकार कागजों में मिले, हकीकत में नहीं
अफगानिस्तान में असहिष्णुता अपने चरम पर है. ये भेदभाव ही वजह थी जो अल्पसंख्यक देश छोड़ने को मजबूर हुए. 1992 में अफगान सरकार गिर गई. हिंदू-सिख समुदाय की हालत बदतर होने लगी.संख्या तेजी से घटी. अफगानिस्तान मुस्लिम देश है. 2001 में तालिबान खत्म हुआ. इसमें अमेरिका ने मदद की और उसी के नेतृत्व में यहां का संविधान बना. जिसमें अल्पसंख्यकों को अधिकार दिए गए. वो भी सिर्फ किताबी पन्नों में. हकीकत में कभी ये अधिकार जमीन पर नहीं उतरे. इसकी बानगी ये है कि ये लोग वहां अपनी धार्मिक गतिविधियां नहीं कर सकते. ये कैसे अधिकार हैं ? एक वेबसाइट को अवतार सिंह ने बताया- हमारी जमीन सरकार के सिपहसालारों ने ले ली. हमारा समुदाय हर रोज छोटा होता जा रहा है. तालिबान का दबदबा है. हेलमंड में हिंदुओं को तालिबानियों ने पत्र लिखा और हर महीने दो लाख अफगानी (2800 डॉलर) मांग डाले. इनके डर से कई लोग जगह छोड़कर चले गए.
चैन से अंतिम संस्कार भी नहीं करने देते
कुछ ही संख्या में सिख और हिंदू बचे. यहां पूजा-पाठ करने पर तो पाबंदी है ही. चैन से अंतिम संस्कार भी नहीं करने देते. ट्रांसपोर्ट का काम करने वाले मुकेश बताते हैं, जब अंतिम संस्कार करना होता है तो कहा जाता है, यहां नहीं करो बदबू आती है. अंतिम संस्कार के लिए जगह तलाश पाना मुश्किल होता है.