अभी महामारी का दौर चल ही रहा है. इस दौर में हमनें कई ऐसी चीज़ें देखीं जो शायद हम कभी सोच भी नहीं सकते थे. इसी में से एक था हममें से कई लोगों का महानगरों से अपने गांवों के खेत और खलिहानों की ओर पलायन. पलायन की कुछ कहानियां मजबूरी की थीं तो कुछ शौक की. मगर इनमें जो कॉन्स्टेंट रहा, वो था गांव. और जब गांव, खेतों और खलिहानों की बात हो रही है तो आज एक कविता रोज़ में आपको सुनाते हैं इसी गांव के खेत में काम आने वाले थ्रेसर की कविता. कविता का नाम भी थ्रेसर है और इसे लिखा है बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले गोलेन्द्र पटेल ने. देखिए वीडियो.