जिस G7 का भारत मेंबर नहीं, उसमें पीएम मोदी को क्यों बुलाया?
G7 है क्या और ये दुनिया के लिए कितना अहम है?

एशिया से जापान.
यूरोप से फ़्रांस, इटली, जर्मनी और यूके.
नॉर्थ अमेरिका से अमेरिका और कनाडा.
टोटल सात देश.
कुल आबादी - दुनिया का 10 प्रतिशत.
कुल जीडीपी - दुनिया का 40 प्रतिशत.
यूएन सिक्योरिटी काउंसिल में परमानेंट मेंबर्स - तीन. अमेरिका, फ़्रांस और यूके.
अगर इन आंकड़ो और फ़ैक्ट्स को एक सूत्र में पिरोया जाए तो एक अंतरराष्ट्रीय संगठन का नाम निकलता है. G7. ये दुनिया के सात सबसे ताक़तवर और औद्योगिक नज़रिए से सबसे समृद्ध देशों का गुट है. ये देश प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से समूची दुनिया का चाल-चरित्र तय करते हैं. G7 नेटो, EU या UN की तरह कोई आधिकारिक संगठन नहीं है. इसका अपना हेडक़्वार्टर या कोई तय नियमावली भी नहीं है. इसके बावजूद G7 ने दुनिया की कई बड़ी समस्याओं को सुलझाने में मदद की है.
आज हम G7 की चर्चा क्यों कर रहे हैं?
दरअसल, 26 जून को जर्मनी के म्युनिख़ में G7 की सालाना बैठक शुरू हुई. 26 जून को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बैठक में हिस्सा लेने म्युनिख़ पहुंचे. भारत G7 का सदस्य नहीं है. इसके बावजूद पीएम मोदी को शामिल होने का न्यौता मिला था. क्यों? ये आगे बताएंगे.
साथ में जानेंगे,
G7 है क्या और ये दुनिया के लिए कितना अहम है?
और, G7 में इस बार का एजेंडा क्या रहने वाला है?
पहले बैकग्राउंड जान लेते हैं.
साल 1973. अमेरिका की राजनीति में भूचाल की आहट थी. वॉटरगेट स्कैंडल का भूत राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को परेशान कर रहा था. वियतनाम वॉर के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुका था. मिडिल-ईस्ट के देशों में भी सत्ता का रुख बदल रहा था. इसका असर तेल के आयात पर पड़ने वाला था. चूंकि अमेरिका, सोवियत संघ के ख़िलाफ़ कोल्ड वॉर को लीड कर रहा था. इसलिए, इस हलचल का असर अमेरिका के सहयोगियों पर भी पड़ रहा था.
साझा समस्या के लिए साझा समाधान की ज़रूरत होती है. इसी लाइन पर बात करने के लिए 25 मार्च 1973 को अमेरिका, यूके, फ़्रांस और वेस्ट जर्मनी के वित्तमंत्री वॉशिंगटन में इकट्ठा हुए. वेस्ट जर्मनी क्यों, पूरा जर्मनी क्यों नहीं? क्योंकि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विजेता देशों ने जर्मनी को चार हिस्सों में बांटा. जो हिस्सा अमेरिका, यूके और फ़्रांस को मिला, उसे जोड़कर वेस्ट जर्मनी बनाया गया. सोवियत संघ वाला हिस्सा ईस्ट जर्मनी कहलाया. ईस्ट जर्मनी में कम्युनिस्ट सरकार चलती थी. उनका अमेरिका से झगड़ा चल रहा था. इसी वजह से वॉशिंगटन वाली मीटिंग में सिर्फ़ वेस्ट जर्मनी को बुलावा भेजा गया था.
मार्च 1973 में अमेरिका के वित्तमंत्री थे, जॉर्ज शुल्ज़. उन्होंने बाकी वित्तमंत्रियों के साथ एक इन्फ़ॉर्मल मीटिंग की पेशकश की. इरादा ये था कि औपचारिकता की बजाय मुद्दों पर खुलकर बात की जाए. मीटिंग के लिए एक शांत और सुरक्षित जगह की ज़रूरत थी. तब राष्ट्रपति निक्सन सामने आए. उन्होंने कहा कि वाइट हाउस से बेहतर क्या हो सकता है. निक्सन की पहल पर चारों वित्तमंत्री वाइट हाउस की लाइब्रेरी में साथ बैठे. इस गुट को G4 या लाइब्रेरी ग्रुप का नाम दिया गया.
इस बैठक के कुछ महीने बाद जापान को भी हिस्सेदार बना दिया गया. इस तरह G4 का नाम बदलकर G5 हो गया.
फिर आया अक्टूबर 1973. महीने की छठी तारीख़ को सीरिया और ईजिप्ट ने मिलकर इज़रायल पर हमला कर दिया. लड़ाई के बीच में अमेरिका ने इज़रायल को लगभग 20 हज़ार करोड़ रुपये की सैन्य सहायता देने की घोषणा कर दी. इससे अरब देश नाराज़ हो गए. उन्होंने इज़रायल से दोस्ताना संबंध रखने वाले देशों पर एम्बार्गो लगा दिया. अरब देशों ने तेल की सप्लाई रोक दी. इसक चलते अमेरिका, यूरोप और जापान जैसे देशों में हाहाकार मच गया. वहां ईंधन की किल्लत होने लगी थी. अमेरिका में गैसोलिन के दाम डेढ़ गुणा तक हो गए थे. इसका प्रभाव बाकी सेवाओं पर भी पड़ रहा था.
अरब देशों का एम्बार्गो मार्च 1974 तक चला. अमेरिका के तत्कालीन विदेशमंत्री हेनरी किसिंजर ने अरब-इज़रायल का विवाद सुलझाने में मदद की. मई 1974 में युद्धविराम को लेकर समझौता हो गया. ये विवाद तो कुछ समय के लिए सुलझ गया था, लेकिन पश्चिमी देशों की उलझन खत्म नहीं हो रही थी. उन्हें डर था कि अरब देश फिर से कोई बहाना बनाकर तेल और गैस की सप्लाई रोक सकते हैं. उन्हें इसका रास्ता तलाशना था.
जिस समय G5 देश बाहरी आशंकाओं से जूझ रहे थे, उसी समय उनकी अंदरुनी राजनीति में अलग ही झमेला चल रहा था. 1974 में अमेरिका में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन, वेस्ट जर्मनी में चांसलर विली ब्रैंट और जापान में प्रधानमंत्री काकुई टनाका, तीनों को स्कैंडल के चलते इस्तीफ़ा देना पड़ा था. यूके में हुए चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. जबकि फ़्रांस में राष्ट्रपति जॉर्ज पोपिडू की अचानक मौत हो गई थी. यानी, पांचों देशों में कुर्सी पर नया निज़ाम बैठा था. भले ही निज़ाम नया था, लेकिन पुरानी समस्याएं बरकरार थीं.
नवंबर 1975 में जर्मनी और फ़्रांस ने मिलकर G5 की बैठक बुलाई. फ़्रांस का पड़ोसी होने के नाते इसमें इटली को भी आमंत्रित किया गया. इस तरह ग्रुप में छह देश हो गए. फिर इसे G6 कहा जाने लगा. G6 की पहली बैठक में सदस्य देशों की सरकार के मुखिया ने हिस्सा लिया था. इसलिए, G6 इन देशों का सबसे अहम गुट बन गया. 1976 में कनाडा को शामिल करने के बाद ये गुट G7 बन गया. कालांतर में G7 की बैठकों में यूरोपियन कमीशन और यूरोपियन काउंसिल को भी बुलाया जाने लगा. हालांकि, उन्हें कभी आधिकारिक तौर पर सदस्य का दर्ज़ा नहीं मिला.
1990 के दशक में G7 का स्वरूप बदलकर G8 हो गया. दरअसल, 1998 के साल में रूस को आधिकारिक तौर पर इस गुट का हिस्सा बनाया गया था. G7 के कई सदस्य देश अपने साथ रूस को बिठाने के पक्ष में नहीं थे. उनका मानना था कि रूस की अर्थव्यवस्था उनके आस-पास भी मौजूद नहीं थी. रूस में उदार लोकतंत्र नहीं था. इसके अलावा, रूस सोवियत दौर के प्रभाव से बाहर निकलने की कोशिश में जुटा था. इन कमियों के बावजूद रूस को गुट में शामिल किया गया. दरअसल, अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को लगा कि इस फ़ैसले से रूस पश्चिमी देशों के करीबा आ जाएगा. नेटो रूस की सीमा से लगे देशों पर भी डोरे डाल रहा था. अगर रूस उनके पाले में आता तो नेटो को अपना दायरा बढ़ाने में कोई विरोध नहीं झेलना पड़ता. रूस के पहले राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन पश्चिम के करीब आ भी रहे थे. लेकिन कुछ ही समय बाद उनकी सत्ता चली गई.
येल्तसिन के बाद व्लादिमीर पुतिन सत्ता में आए. उनके आते ही रूस की सत्ता का चरित्र बदलने लगा. पुतिन विदेश-नीति को लेकर आक्रामक थे. उनका लोकतंत्र में कतई भरोसा नहीं था. वो बाहरी लड़ाईयों में हिंसक दखल देने के लिए तैयार थे. वो रूस का गौरव लौटाने की बात कर रहे थे. इसी क्रम में मार्च 2014 में उन्होंने क्रीमिया पर हमले का आदेश दिया. रूस ने बड़ी आसानी से क्रीमिया पर क़ब्ज़ा कर लिया. G8 में शामिल बाकी देशों ने इस क़ब्ज़े की निंदा की. उन्होंने रूस से बाहर निकलने के लिए कहा. लेकिन पुतिन इसके लिए तैयार नहीं हुए. अंतत:, सदस्य देशों ने मिलकर रूस को G8 से बाहर का रास्ता दिखा दिया. रूस के निकलते ही G8 घटकर फिर से G7 बन गया. 2017 में रूस ने स्थायी तौर पर इस गुट की सदस्यता छोड़ दी.
ये तो हुआ G7 का इतिहास. अब इसकी अहमियत समझ लेते हैं.
- G7 एक ग्लोबल पॉलिसी फ़ोरम है. इसमें शामिल सातों देश मिलकर पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर चर्चा करते हैं.
- अर्थव्यवस्था की नज़र से दुनिया के 09 सबसे बड़े देशों में से सात G7 में हैं.
- प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया के 15 टॉप के देशों में से सात G7 के सदस्य हैं.
- G7 देश दुनिया के 10 सबसे बड़े निर्यातकों में शामिल हैं.
- इसके अलावा, G7 के सदस्य देश यूनाइटेड नेशंस को डोनेशन देने वाले टॉप-10 देशों की लिस्ट में भी हैं.
जैसा कि हमने शुरुआत में बताया, G7 कोई औपचारिक संगठन नहीं है. इसमें जिन मुद्दों पर सहमति बनती है, सदस्य देश उन्हें मानने के लिए बाध्य नहीं होते. ये उनके देश के कानून और उनकी निजी पसंद पर निर्भर करता है. G7 की अध्यक्षता हर साल रोटेट होती रहती है. जिस देश के पास अध्यक्ष की कुर्सी होती है, उसके पास एजेंडा तय करने का अधिकार होता है. सदस्य देश अंत में बैठक का पूरा सार पेश करते हैं. इसे लिखने की ज़िम्मेदारी भी मेजबान देश के पास होती है.
G7 ने अतीत में चेर्नोबिल न्युक्लियर डिजास्टर, एचआईवी एड्स और मलेरिया के लिए फ़ंड जुटाने, क्लाइमेट चेंज़ से निपटने और लैंगिक समानता हासिल करने में मदद की पहल की है.
इस बार की बैठक अहम क्यों है?
इस साल की बैठक जर्मनी के म्युनिख में हो रही है. जर्मनी इसका मेज़बान है. यानी, इस बार का एजेंडा तय करने की ज़िम्मेदारी उसी की है. जर्मनी में दिसंबर 2021 में सत्ता बदली है. जर्मनी के नए चांसलर ओलाफ़ शॉल्ज़ के सामने नेतृत्व-क्षमता साबित करने की चुनौती होगी. इस बार की बैठक में रूस-यूक्रेन युद्ध, पोस्ट-कोविड इकोनॉमी और क्लाइमेट चेंज़ जैसी समस्याओं पर सबसे अधिक ज़ोर रहेगा. रूस पर लगाए आर्थिक प्रतिबंधों का असर पश्चिमी देशों की ऊर्जा ज़रूरतों पर पड़ा है. इसके कारण पश्चिमी देशों में महंगाई बढ़ी है. G7 देशों के नेता इन मुद्दों पर भी चर्चा करेंगे.
वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना महामारी के कारण 10 करोड़ से अधिक लोग ग़रीबी रेखा से नीचे पहुंच गए हैं.
वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम की रिपोर्ट के अनुसार, साढ़े चार करोड़ लोग भुखमरी की कगार पर हैं.
यूनाइटेड नेशंस की रेफ़्यूजी एजेंसी के मुताबिक, पहली बार विस्थापितों की संख्या 10 करोड़ के पार पहुंच गई है. इनमें से एक बड़ा हिस्सा यूक्रेन के शरणार्थियों का है. इन तथ्यों ने G7 की अहमियत बढ़ा दी है.
G7 की बैठक को यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेन्स्की ने भी संबोधित किया. वो वीडियो लिंक के ज़रिए जुड़े थे. उन्होंने G7 से युद्ध खत्म कराने की अपील की.
अब सवाल आता है कि इस बार की बैठक में भारत को न्यौता क्यों दिया गया?
दरअसल, मेज़बान देश अपनी सहूलियत के हिसाब से कुछ अतिरिक्त देशों को इन्विटेशन भेजते हैं. पीएम मोदी मई 2022 में जर्मनी की यात्रा पर गए थे. उसी दौरान जर्मन चांसलर ओलाफ़ शॉल्ज़ ने पीएम मोदी को G7 में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था. जर्मनी ने भारत के अलावा अर्जेंटीना, साउथ अफ़्रीका, सेनेगल और इंडोनेशिया को भी बुलाया है.
जानकारों की मानें तो पश्चिमी देश भारत को रूस से दूर ले जाने की कोशिश में जुटे हैं. भारत ने अभी तक रूस के हमले की निंदा नहीं की है. उसने यूएन में रूस के ख़िलाफ़ वोटिंग में भी हिस्सा नहीं लिया. इसके अलावा, भारत ने रूस से तेल की खरीद भी जारी रखी है.
पीएम मोदी जी7 के दो फ़ोरम पर अपनी बात रखेंगे. वो एनर्जी, काउंटर-टेररिज़्म, खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण और लोकतंत्र जैसे मसलों पर चर्चा करेंगे. इसके अलावा, वो G7 के नेताओं के साथ अलग से भी मीटिंग करेंगे. 27 जून को पीएम मोदी का जर्मनी दौरा खत्म हो जाएगा. वहां से वो यूएई जाएंगे. यूएई में पीएम मोदी पूर्व राष्ट्रपति शेख़ खलीफ़ा बिन ज़ाएद अल नाह्यान को श्रद्धांजिल अर्पित करेंगे. अल नाह्यान की 13 मई को मौत हो गई थी. उन्हें भारत-यूएई संबंधों को विस्तार देने के लिए याद किया जाता है.
अब सुर्खियों की बारी.
पहली सुर्खी अमेरिका से है. 24 जून 2022 का दिन अमेरिका के लिए ऐतिहासिक रहा. उस दिन सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के गर्भपात के संवैधानिक अधिकार को समाप्त कर दिया. कोर्ट ने 1973 के चर्चित ‘रो बनाम वेड’ में सुनाए फैसले को पलट दिया. रो बनाम वेड में महिलाओं के गर्भपात के अधिकार को सुनिश्चित किया गया था. अदालत के फ़ैसले के बाद दुनियाभर से तीखी प्रतिक्रिया आई. अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन भी फ़ैसले से नाराज़ दिखे. उन्होंने कहा,
“आज देश के लिए दुखद दिन है, करीब 50 साल पहले ‘रो बनाम वेड’ का फैसला आआ था. आज सुप्रीम कोर्ट ने अमेरिकी नागरिकों से एक संवैधानिक अधिकार छीन लिया है. ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर ख़तरा है.”
पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ट्वीट किया,
“आज सुप्रीम कोर्ट ने न केवल लगभग 50 वर्षों की मिसाल को उलट दिया, बल्कि उसने कई राजनेताओं और विचारकों की सनक की वजह से लोगों के व्यक्तिगत निर्णय लेने के अधिकार को खत्म करवा दिया है. ये लाखों अमेरिकी नागिरकों की स्वतंत्रता पर हमला है.”
ये तो रही राजनेताओं की प्रतिक्रिया, अब इस मामले से जुडे ताज़ा अपडेट्स जान लेते हैं,
कोर्ट के फैसले के बाद वॉशिंगटन डीसी, न्यूयॉर्क, शिकागो, लॉस एंजिल्स, अटलांटा और ऑस्टिन समेत कई बड़े शहरों में इस फैसले को लेकर प्रदर्शन तेज़ हो गए हैं. इन प्रदर्शनों में एक नारा लगाया जा रहा है जो हर जगह सुनाई दे रहा है. नारा है ‘Not your uterus, not your choice’ माने ‘आपका गर्भाशय नहीं, तो आपकी चॉइस भी नहीं.’
दुनियाभर में इस समय प्राइड मंथ भी मनाया जा रहा है. जगह-जगह प्राइड परेड निकाली जा रही हैं. इन परेडों में भी लोग इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं. फिल्मों में काम करने वालीं ओरियाना सोड्डू ने गार्डियन से बात चीत के दौरान कहा हमारा गुस्सा राजनीतिक व्यवस्था के प्रति ही है. रिपब्लिकन के पास स्पष्ट रूप से एक बहुत मजबूत एजेंडा है, मेरा डर है कि ये अब समलैंगिक विवाह के ख़िलाफ़ कोई कानून लेकर आ जाएंगे. इस फैसले के आलोचकों का ये भी कहना है कि पिछले कुछ समय में अमेरिका की अदालतों में रिपब्लिकन्स का प्रभाव बढ़ गया है. जो न्यायपालिका के लिए सही नहीं है
जहां एक तरफ इस फैसले की तीखी आलोचना हो रही है वहीं दूसरी तरफ रिपब्लिकन्स पार्टी की तरफ से इस फैसले को सराहा भी जा रहा है. पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो इसे एक पीढ़ी के लिए सबसे बड़ी जीत बता दिया. उन्होंने इस फैसले के लिए अपनी पीठ भी थपथपाई. रो बनाम वेड का फ़ैसला पलटने वाले 05 में से 03 जजों की नियुक्ति ट्रम्प के कार्यकाल में हुई थी.
अमेरिका में गर्भपात हमेशा से एक बेहद संवेदनशील मुद्दा रहा है. महिलाओं के पास गर्भपात का अधिकार होना चाहिए या नहीं इसको लेकर अमेरिका में धार्मिक कारक भी भूमिका निभाते आए हैं. साथ ही ये मुद्दा रिपब्लिकन्स (कंजरवेटिव) और डेमोक्रेट्स (लिबरल्स) के बीच भी विवाद का का कारण बनता आया है. ये मसला 1973 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जिसे ‘रो वर्सेस वेड’ केस के नाम से भी जाना जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में अमेरिका के संविधान का हवाला देते हुए कहा था कि वो महिलाओं के गर्भपात के चुनाव के अधिकार की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है. लेकिन करीब 50 साल बाद अपने फैसले को पलटकर सुप्रीम कोर्ट ने एक नई और वैश्विक बहस को जन्म दे दिया है.
आज की दूसरी और अंतिम सुर्खी दक्षिण अफ़्रीका से है. दक्षिण अफ़्रीका के एक नाइटक्लब में 21 नौजवानों की मौत का रहस्य गहराता जा रहा है. 25 जून को ईस्ट लंदन शहर के एक क्लब से ये लाशें बरामद हुईं थी. मरनेवालों की उम्र 18 से 20 के बीच बताई जा रही है. शुरुआती जांच में उनकी मौत की वजह पता नहीं चल पाई है. अभी तक ये अनुमान लगाया जा रहा था कि क्लब में मची भगदड़ की वजह से इतने लोग मारे गए. पुलिस ने इस संभावना को पूरी तरह खारिज कर दिया है. पुलिस ने कहा कि किसी भी व्यक्ति के शरीर पर चोट के निशान नहीं मिले हैं.
स्थानीय अख़बारों का दावा है कि उनके रिपोर्टर्स ने लाशों को देखा है. रिपोर्टर्स ने बताया कि लाशों को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे नाइटक्लब में वे लोग अचानक नाचते हुए गिर गए, ऐसा लगता है उस दौरान वो कोई बात-चीत कर रहे थे. कई लाशें तो क्लब की कुर्सियों और टेबलों पर अजीब तरह से पड़ी हुई थीं. स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि, शवों का जल्द से जल्द पोस्टमार्टम कराए जाने की प्रक्रिया चल रही है जिससे मौत की असल वजह सामने आ सके.