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गांधी को पाकिस्तान कैसे याद करता है?

महात्मा गांधी दुनिया में इतने फेमस क्यों हैं?

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इस्लामाबाद में पाकिस्तान स्मारक संग्रहालय में महात्मा गांधी और जिन्ना की झांकी । फोटो: फेसबुक/पाकिस्तान स्मारक संग्रहालय
30 जनवरी 2023 (Updated: 30 जनवरी 2023, 19:44 IST)
Updated: 30 जनवरी 2023 19:44 IST
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दुनिया के महानतम वैज्ञानिकों में से एक अल्बर्ट आइंस्टीन महात्मा गांधी से उम्र में केवल 10 साल छोटे थे. उन्होंने 2 अक्टूबर, 1944 को महात्मा गांधी के 75वें जन्मदिन पर भेजे एक पत्र में लिखा,

'अपने लोगों का एक नेता, जिसकी सफलता तकनीकी उपकरणों और कलाबाजी पर निर्भर नहीं है, बल्कि उसके व्यक्तित्व की विश्वसनीय क्षमता पर निर्भर है. एक विजयी योद्धा जिसने ताकत के इस्तेमाल से हमेशा नफरत की है. एक बुद्धिमान और विनम्र इंसान, जो बार-बार सुलझे मस्तिष्क के साथ काम करता है, जिसने अपनी सारी ऊर्जा को अपने लोगों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया है, एक इंसान जिसने यूरोप की क्रूरता और निर्दयिता का साधारण मानव रहकर डटकर सामना किया है... भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था.'

आइंस्टीन की गांधीजी को ये पहली चिट्ठी नहीं थी. दोनों महान शख्सियतों की आपस में पत्रों के जरिए बात होती रहती थी. आइंस्टीन पर महात्मा गांधी गहरा प्रभाव था. उनके कमरे में केवल दो ही तस्वीरें लगी थीं. इनमें एक महान मानवतावादी अल्बर्ट श्वाइटज़र की और दूसरी महात्मा गांधी की.

यहां आइंस्टीन का जिक्र इसलिए किया कि उस समय राजनीति और आंदोलनों से दूर रहने वाला एक चर्चित व्यक्ति भी महात्मा गांधी से किस तरह प्रभावित था. उस समय गांधी जी दुनिया भर में इतना बड़ा प्रतीक बन गए थे कि जो उनकी राह पर चलता उसे भी 'गांधी' कहा जाने लगता. जैसे मार्टिन लूथर किंग को अमेरिकी गांधी, नेल्सन मंडेला को अफ्रीकी गांधी कहा जाने लगा था. इसी तरह पाकिस्तान में खान अब्दुल गफ्फार खान को फ्रंटियर यानी सीमांत गांधी कहा जाता था.

लेकिन, ये सभी बातें काफी पुरानी हैं. पांच दशक से भी ज्यादा पुरानी. ऐसे में आज 30 जनवरी को महात्मा गांधी की बरसी पर हम जानेंगे कि अब अमेरिका, यूरोप और पाकिस्तान में शांति के सबसे बड़े दूत को कैसे याद किया जाता है?

गांधी जी कभी अमेरिका नहीं गए. लेकिन कहा जाता है कि भारत के बाद उनके सबसे ज्यादा मुरीद यहीं पाए जाते हैं. इतिहासकार रामचंद्र गुहा के मुताबिक इसका सबसे ज्यादा क्रेडिट अमेरिकी प्रेस को जाना चाहिए. जब भारत में महात्मा गांधी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे. तब अमेरिकी प्रेस इसे बहुत सक्रियता से कवर कर रही थी. क्योंकि तब ब्रिटेन और अमेरिका की इतनी गहरी नजदीकियां नहीं थी कि अमेरिकी प्रेस को दबाया जा सकता. अमेरिकी प्रेस गांधी को इसलिए कवर करती थी क्योंकि गांधी के विचार अमेरिकियों विशेष तौर पर अश्वेतों को खासे पसंद आ रहे थे. आलम ये था कि कवर पेज पर गांधी की तस्वीर जिस दिन छपती थी, अखबार की कॉपियां कम पड़ जाती थीं.

1930 में जब गांधी जी ने दांडी मार्च निकाला, तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कई महीने के लिए जेल भेज दिया. जब उन्हें रिहा किया गया, तो उनके पास भारत के बाद अमेरिका से ही सबसे ज्यादा पत्र आए थे. इनमें एक पत्र उस समय खूब चर्चा में रहा था. इसे शिकागो के रहने वाले आर्थर सेवेल नाम के एक व्यक्ति ने लिखा था. इसमें लिखा था,

'अफ्रीकी-अमेरिकियों को भारत और भारतीयों के साथ सहानुभूति है. हम आपकी पीड़ा को हर रोज महसूस करते हैं. यहां अमेरिका में आये दिन न केवल हमारी संपत्ति लूटी जाती है. बल्कि हमें बगैर किसी जुर्म के जेलों में जेलों में ठूंस दिया जाता है. हम लोगों को इकट्ठा कर पीटा जाता है, लिंच तक किया जाता है. भगवान आपको आशीर्वाद दें कि आप अहिंसा के जरिए जो महान लड़ाई लड़ रहे हैं, उसे तब तक जारी रख सकें जब तक जीत हासिल नहीं कर लेते.'  

दो बार पर्सन ऑफ द ईयर

गांधी अमेरिका के श्वेत नागरिकों के बीच भी चर्चित थे. वो इसलिए क्योंकि उन्होंने कई मौकों पर साफ़ कर दिया था उन्हें व्यक्तिगत तौर पर अंग्रेजों या क्रिस्चयनों से नफरत नहीं है. बल्कि वे ब्रिटिश सरकार की नीतियों और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ हैं. उन्होंने कई साक्षात्कारों में ये भी बताया था कि उनके सबसे करीबी दोस्त एक ब्रिटिश पादरी सीएफ एंड्रयूज हैं. जिन्होंने अमेरिकी लोगों के लिए उन पर कई किताबें और कई लेख लिखे हैं.

अमेरिका के शिकागो स्थित पत्रिका क्रिश्चियन सेंचुरी ने तो कई बार गांधी के नाम को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया, हालांकि, ये सम्मान महात्मा गांधी को नहीं मिल सका. आजादी की लड़ाई के समय टाइम मैगजीन ने महात्मा गांधी का फोटो अपने कवर पेज पर दो बार छापा था. उसने गांधी जी को पहली बार जनवरी 1931 में और फिर जून 1947 में 'पर्सन ऑफ द ईयर' चुना था.

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अमेरिकियों के दिलों में गांधी जी के लिए जो जगह तब बनी थी, वही आज भी नजर आती है. 9 सितंबर, 2009 को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा वर्जीनिया के एक स्कूल में पहुंचे. यहां लिली नाम की एक छात्रा ने उनसे पूछ दिया कि यदि आपको मौका मिले तो आप किस जीवित या मृत व्यक्ति के साथ डिनर करना चाहेंगे?

ओबामा ने फट से जवाब दिया-

"मुझे लगता है कि मैं महात्मा गांधी के साथ डिनर करना चाहूंगा. वो मेरे सच्चे हीरो हैं. लेकिन शायद ये डिनर बहुत छोटा होगा, क्योंकि गांधी ज्यादा खाते नहीं थे".

अमेरिकी संसद में दिसंबर 2020 में एक बिल भी पारित हुआ. जिसका मकसद शिक्षण संस्थाओं में गांधी के विचारों को ज्यादा से ज्यादा शामिल किया जाना था. अब लगभग हर अमेरिकी कॉलेज और यूनिवर्सिटी के सिलेबस में गांधी के विचार मौजूद हैं. यहां होने वाली पर्यावरण और मानवाधिकारों की डिबेट में गांधी जीवंत होते हैं. अमेरिका के शहरों में भारत के बाद गांधी जी की सबसे ज्यादा मूर्तियां हैं. एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी जाइए, यहां सड़क पर ट्रैफिक कम करने के लिए भी गांधी के विचारों का सहारा लिया गया है. बड़ा-बड़ा लिखा है - 'गांधी भी पैदल चलते थे'.

गांधी को यूरोप कैसे याद करता है

मार्टिन कैंपेन, जर्मनी के मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हैं.

उन्होंने लिखा है,

'यूरोप में मैंने ऐसे कई शांतिपूर्ण प्रोटेस्ट देखे जो गांधी से प्रेरणा लेकर किए गए. पोलैंड को ही ले लीजिये. कुछ साल पहले ही गांधी की तरह यहां लेच वालेसा नाम का एक शख्स दृढ़ निश्चय करके शांतिपूर्ण विरोध करने लगा. उसने पूरे देश को हिला दिया, क्योंकि लोगों को उसमें एक गांधी दिखा और वे उसके पीछे बड़ी संख्या में एकजुट हो गए. साल 2020 में बेलारूस में भी तानाशाही के खिलाफ बड़ा आंदोलन शांतिपूर्ण चला.'

मार्टिन कैंपेन का मानना है कि 20वीं शताब्दी में यूरोप के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर महात्मा गांधी ने अकेले और सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव छोड़ा है. कोई अन्य भारतीय विचारक, भारतीय संत या स्वतंत्रता सेनानी यहां गांधी के बराबर प्रभावशाली नहीं रहा है.

जर्मनी की स्कूली किताबों में महात्मा गांधी पर बड़ी संख्या में निबंध लिखे गए हैं. इनमें गांधी की तुलना ईसा मसीह से की गई है. यहां के कई लेखक गांधी को ईसा मसीह जैसी शख्सियत की तरह ही देखते हैं. इनमें से कई का मानना है कि गांधी धरती पर ईसा मसीह के एक अवतार के रूप में आए थे. उन्होंने सारी जिंदगी ईसा मसीह के मानवता के सिद्धांत पर ही जोर दिया था.

पाकिस्तान में गांधी को कैसे याद किया जाता है?

महात्मा गांधी की यदि 30 जनवरी, 1948 को हत्या न हुई होती तो कुछ दिनों बाद वे पाकिस्तान जाने वाले थे. वे लाहौर, रावलपिंडी और कराची जाने की ख़्वाहिश रखते थे. गांधी जी पाकिस्तान की यात्रा इसलिए करना चाहते थे क्योंकि दोनों देशों में बंटवारे के बाद हुई भयंकर हिंसा के बाद सौहार्द का वातावरण बने. इरादा किया था कि पाकिस्तान जाएंगे. बिना वीजा और पासपोर्ट के. कहते थे, मेरा ही देश है.अपने देश जाने के लिए पासपोर्ट क्यों लूंगा? गांधी का क्या हश्र हुआ, ये सब इतिहास है.

पाकिस्तान ने अपनी इतिहास की किताबों में गांधी को जगह दी है. हिंदुओं के नेता के तौर पर. हिंदुत्व में गहरी आस्था रखने वाला. हिंदुओं का समर्थक. बंटवारे के लिए जिम्मेदार. अल्लाह के कानून की जगह हिंदुओं के कानून वाला देश बनाने का पक्षधर. ऐसा देश, जहां मुसलमानों को अछूत समझा जाता. जहां अंग्रेजों की गुलामी खत्म होने के बाद मुसलमानों को हिंदुओं का गुलाम बनना पड़ता. मुसलमानों की सच्ची आजादी का विरोधी. ऐसी आजादी का विरोधी, जहां मुसलमानों पर केवल मुसलमान ही राज करते. पाकिस्तानी इतिहास में गांधी को ऐसे ही 'खलनायक' की जगह दी गई है. जिन्होंने इतिहास के नाम पर केवल ऐसी ही कोर्स की किताबें पढ़ी हैं वहां, वो गांधी को ऐसे ही जानते हैं.

गांधी का नाम हटा दिया

गांधी जी 1934 में कराची गए थे. तब उन्होंने कराची चैंबर ऑफ़ कॉमर्स की इमारत का शिलान्यास किया था. उस मौके पर वहां एक शिलापट्ट भी लगा था जिस पर अंग्रेज़ी में लिखा था, ''महात्मा गांधी ने इस नींव के पत्थर को 8 जुलाई, 1934 को रखा.''

बीबीसी से जुड़े पत्रकार विवेक शुक्ल के मुताबिक उस शिलापट्ट को 2018 में चैंबर की इमारत के दोबारा बनाने के दौरान हटा दिया गया है.

कराची के एक पार्क का नाम भी गांधी गार्डन था. वहां पर राजनीतिक-सामाजिक कार्यक्रम होते थे. अब वहां से भी गांधी जी का नाम हट चुका है. इसके अलावा, कराची के जूलॉजिकल गार्डन का नाम भी पहले 'गांधी गार्डन' ही हुआ करता था. अब उसका भी नाम बदलकर 'कराची जूलॉजिकल गार्डन' कर दिया गया है.

रावलपिंडी के राजा बाज़ार इलाक़े में भी गांधी जी के नाम पर पार्क था. वहां से उनका नाम मिटा दिया गया.

कराची पार्क

हालांकि, सरहद पार कुछ गिने चुने लोग अभी भी ऐसे हैं जो जो गांधी और उनकी विचार धारा को आदर के साथ याद करते हैं.

मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने महात्मा गांधी पर काफी लिखा है. साल 2013 में वो गांधी पर लिखी एक किताब को प्रमोट करने अमेरिका गए थे. न्यूयॉर्क के एक होटल में रुके थे. उनकी लिखी बुक के कवर पेज पर गांधी की तस्वीर बनी थी, जिसमें गांधी वकीलों वाला कोट पहने खड़े थे और उनकी उम्र करीब 30 साल के आसपास होगी. यानी उन्हें एकदम पहचानना मुश्किल था.

किताब होटल के कमरे की मेज पर रखी थी. तभी कमरे में हाउस कीपिंग से एक लड़का आया. काम करते हुए उसकी नजर किताब पर गई और एकदम बोल उठा- 'ये तो यंग मिस्टर गांधी हैं'. आगे बोला- ‘मेरे देश में लोग इनके जबरदस्त फैन हैं, इनकी बहुत तारीफ की जाती है.’

गुहा ने उससे पूछा तुम किस देश से हो. वो बोला- 'डोमिनिकन रिपब्लिक'

यानी गांधी केवल भारत, यूरोप या अमेरिका के नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के हैं. उन्हें वहां भी याद किया जाता है, जहां हम सोच भी नहीं सकते. और साफ़ कहें तो गांधी हर उस जगह पर होंगे, जहां ईमानदारी, सच और सबसे बड़ी चीज 'अहिंसा' होगी.

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