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जजों की नियुक्ति करने वाले कोलेजियम सिस्टम पर विवाद क्यों?

कैसे होती है सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति?

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Supreme Court
सुप्रीम कोर्ट (फोटो: आजतक)
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12 दिसंबर 2022 (Updated: 12 दिसंबर 2022, 17:39 IST)
Updated: 12 दिसंबर 2022 17:39 IST
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भारत संघ के उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़. राज्यसभा के पदेन सभापति की हैसियत से पहले दिन संसद पहुंचते हैं. तारीख 7 दिसंबर 2022. जैसी कि परंपरा है, देश के प्रधानमंत्री, राज्यसभा के उप सभापति, विपक्ष के नेता और सदन के नेता उनका स्वागत करते हैं. और तमाम औपचारिकताओं के बाद धनखड़ राज्यसभा के आसन से अपना पहला भाषण देते हैं. हर लिहाज़ से ये घटना अगले दिन के अखबारों के पहले पन्ने पर अंकित होने लायक थी. लेकिन उपराष्ट्रपति का पहला भाषण उसी दिन चर्चा का विषय बन जाता है. और इसका कारण संसद या सरकार को लेकर कही उनकी बात नहीं थी. बल्कि भाषण का वो हिस्सा, जिसे न्यायपालिका पर एक हमले की तरह माना गया.

उप राष्ट्रपति के शब्दों में लोगों के जनादेश के बाद देश की संप्रभु संसद ने एक कानून बनाया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया. ये कानून जुड़ा था हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति से. धनखड़ ने जिस घटना का उल्लेख किया, वो 2015 की है. लेकिन बीते कुछ दिनों से लगातार इस बात ज़िक्र अलग अलग तरह से किया जा रहा है. खुद धनखड़ ने 2 दिसंबर को कमोबेश यही कहा था. और हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए प्रस्तावित नेशनल ज्यूडीशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन के न बनने का दुख अकेले उन्हें ही नहीं है. 4 नवंबर को इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू आए थे. NJAC के अभाव में जजों की नियुक्तियां कोलेजियम सिस्टम के तहत हो रही हैं. इसे लेकर कानून मंत्री रिजिजू ने 25 नवंबर के रोज़ एक निजी समाचार चैनल के कार्यक्रम में बोलते हुए कहा,

''अगर आप सरकार से ये अपेक्षा करते हैं कि वो किसी जज के नाम को सिर्फ इसलिए स्वीकर कर ले क्योंकि कोलेजियम ने उसकी अनुशंसा की है, तो फिर सरकार की भूमिका कहां बचेगी?...ये नहीं कहा जाना चाहिए कि सरकार (कोलेजियम द्वारा भेजे गए नामों की) फाइल पर बैठी रहती है. आप फाइलें सरकार को भेज ही क्यों रहे हैं, आप खुद ही नियुक्ति कर लीजीए. सिस्टम इस तरह काम नहीं कर सकता.''

कानून मंत्री के इस बयान के बाद तो बात इतनी बढ़ गई थी कि आम तौर पर किसी व्यक्ति के बयान पर टिप्पणी न करने वाले जज साहिबान तक ने आपत्ति ले ली थी. 28 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट असोसिएशन बेंगलुरु की तरफ से लगाई गई एक कंटेम्प्ट पिटीशन पर सुनवाई चल रही थी. माने ऐसी याचिका, जिसके तहत अवमानना की कार्रवाई की मांग की गई हो. अवमानना किसकी? सुप्रीम कोर्ट के हुक्म की. और इल्ज़ाम लगाया गया था भारत सरकार पर. इस याचिका में कहा गया कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम द्वारा भेजे गए 11 नामों को स्वीकार न करके सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश की अवहेलना की है, जिसमें कहा गया था कि सरकार को कोलेजियम द्वारा भेजे गए नामों पर 3 से 4 हफ्तों के भीतर कार्यवाही पूरी करनी होगी.

सुनवाई के दौरान जस्टिस संजय कौल ने भारत सरकार के सबसे बड़े वकील अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी से कहा,

''ऐसा नहीं होना चाहिए था. मिस्टर अटॉर्नी जनरल, हमने तमाम मीडिया रिपोर्ट्स को अनदेखा किया, लेकिन ये टिप्पणी एक ऊंचे पद पर आसीन शख्स की ओर से आई है. हम इससे ज़्यादा कुछ नहीं कहना चाहते.''

इस सब के बाद वरिष्ठ वकील हरीष साल्वे, जो कई बार सुप्रीम कोर्ट में सरकार की तरफ से पेश हो चुके हैं, उन्होंने भी कह दिया था कि मंत्री जी को लक्ष्मण रेखा का सम्मान करना चाहिए था. फिर शीत सत्र के पहले दिन उप राष्ट्रपति के बयान में NJAC के मुद्दे पर इतनी सख्त टिप्पणी क्यों आई? इसी का जवाब टटोलेंगे दिन की बड़ी खबर में. सुर्खियां भी होंगी, हिमाचल-गुजरात का हाल भी लेंगे. लेकिन पहले, सुप्रीम कोर्ट और भारत सरकार के बीच चल रही खींचतान की बात कर लेते हैं.

न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता जजों के निजी अधिकार हैं या फिर ये जनता के अधिकार हैं? न्यायपालिका स्वतंत्र रहे, इसकी चिंता किसे ज्यादा होनी चाहिए, जज या फिर जनता? ये सवाल इस समय बहुत जरूरी हो गया है क्योंकि भारतीय लोकतंत्र के दो सबसे प्रमुख अंग न्यायपालिका और विधायिका- जजों की नियुक्ति पर आमने सामने हैं. दोनों एक ही तरह की बातें कर रहे हैं. कि लोगों का भला होना चाहिए. संवैधानिक मर्यादा का पालन होना चाहिए. लेकिन फिर भी एक अंतर है जो पूरा नहीं हो रहा.

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि संविधान के तहत किसी कानूनी की व्याख्या करने वाली वो अंतिम संस्था है, इसलिए कॉलेजियम जिन जजों की नियुक्ति के लिए सिफारिश करता है, सरकार को उसे स्वीकार करना ही होगा. ऐसा कहते हुए 8 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एसके कौल ने किसी का नाम तो नहीं लिया, लेकिन उन्होंने अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमनी से कहा कि वे कॉलेजियम की आलोचना करने वाले केंद्रीय मंत्रियों को सलाह दें कि उन्हें थोड़ा नियंत्रण के साथ चलना चाहिए. माने अदालत ने अपनी बात दोहरा दी थी. ऐसा क्यों हो रहा है कि अदालत को बात दोहरानी पड़ रही है? आइए शुरू से शुरू करें.

सबसे पहले जजों की नियुक्ति का इतिहास समझना होगा. भारत के संविधान का एक बेहद महत्वपूर्ण अनुच्छेद है 124. इसके तहत देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट का गठन किया गया है और इसी के एक प्रावधान के अनुरूप जजों की नियुक्ति होती है. अनुच्छेद 124(2) में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के साथ सलाह-मशविरा करने के बाद राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति करेंगे. हालांकि ये पूरी प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है, जैसा आपको सुनने में लग रहा होगा. इस प्रावधान में एक शब्द है 'Consultation'. ये कोई मामूली शब्द नहीं है. इस समय सरकार और न्यायपालिका के बीच जो तकरार खड़ी हुई है, उसकी वजह ही ये एक शब्द है. और इसी शब्द से कॉलेजियम का उदय भी हुआ है.

यदि हिंदी में आप इसका अर्थ देखेंगे तो इसका मतलब निकलेगा- परामर्श, विचार-विमर्श, मशविरा, मंत्रणा, मशवरा, सम्मति लेना वगैरह-वगैरह. लेकिन इनमें से कौन सा अर्थ सही है, कौन सा अर्थ हमारे संविधान के अनुरूप है या संविधान निर्माताओं ने किस मकसद से इस शब्द को इस अनुच्छेद में डाला था, इसी का फैसला करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को कई बार कई घंटों, हफ्तों और महीनों तक सुनवाई करनी पड़ी है.

आजादी के बाद करीब चार दशकों तक जजों की नियुक्ति करना सरकार के लिए आसान रहा था. उस समय इसमें कार्यपालिका की ही चलती थी. इस दौरान कई निष्पक्ष जजों की भी नियुक्ति हुई और कई बार सरकार पर ये सवाल भी उठे कि वे जजों की नियुक्ति करने में मनमानी कर रहे हैं. योग्य जजों को नजरअंदाज कर अयोग्य लोगों को कोर्ट में बिठाया जा रहा है. आपातकाल के समय इस तरह के कई गंभीर सवाल उठे थे. पुरानी व्यवस्था में सरकार और जजों की राय के बीच मतभेद उत्पन्न होने पर सरकार की राय को प्राथमिकता दी जाती थी. क्योंकि Consultation शब्द का ये अर्थ माना जाता था कि इसका मतलब सिर्फ ‘परामर्श’ है. इसलिए ये जरूरी नहीं है कि राष्ट्रपति को जजों की राय माननी ही पड़े.

इसके खिलाफ साल 1981 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई, जिसे फर्स्ट जजेज केस (First Judges Case) कहा जाता है. इसमें मांग उठी की ‘परामर्श’ शब्द का अर्थ ‘सहमति’ निकाला जाना चाहिए. यानी कि राष्ट्रपति जजों के साथ सिर्फ सलाह-मशविरा ही नहीं कर सकते हैं, बल्कि उन्हें जजों की राय माननी ही पड़ेगी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की पीठ ने इस मांग को खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच मतभेद और असहमति की स्थिति में कार्यपालिका यानी कि राष्ट्रपति राय मानी जाएगी. इससे सरकार को जरूर राहत मिल गई. लेकिन ये ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया. इसके सिर्फ 6 साल बाद ही 1987 में याचिका दायर कर फैसले को चुनौती दी गई. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया, इसी से कॉलेजियम का जन्म हुआ.

6 अक्टूबर 1993 को सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की पीठ ने पिछले फैसले को पलट दिया और कहा कि जजों की नियुक्ति वाले संविधान के अनुच्छेद 124(2) में लिखा शब्द Consultation का मतलब 'concurrence'. यानी कि इस पूरी प्रक्रिया में जजों की राय सिर्फ 'परामर्श' ही नहीं, बल्कि वाकई में 'सहमति' है. इसे सेकंड जजेज केस (Second Judges Case) कहा जाता है. कोर्ट ने इसी फैसले में यह भी कहा कि मुख्य न्यायाधीश जज अपनी राय देते हैं तो वो उनकी निजी राय नहीं होती है, बल्कि वो एक संस्था की राय होती है. इस फैसले के तहत सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम बनाया, जिसमें सीजेआई के अलावा सुप्रीम कोर्ट के दो सबसे वरिष्ठ जजों को सदस्य बनाया गया था. हालांकि साल 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले के जरिये इस सिस्टम में बदलाव किया और कॉलेजियम में सीजेआई के अलावा 4 वरिष्ठतम जजों को सदस्य बनाया गया. इसे थर्ड जजेज केस (Third Judges Case) कहते हैं.

तब से यही व्यवस्था चल रही है. कॉलेजियम की सिफारिश के आधार पर राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति करते हैं. नियम के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट द्वारा भेजी गई सिफारिश को एक बार सरकार वापस कर सकती है और उस पर पुनर्विचार करने की गुजारिश कर सकती है. लेकिन यदि सुप्रीम कोर्ट अपनी सिफारिश को दोहरा देता है तो सरकार के पास कोई विकल्प नहीं बचता है और उसे सिफारिश किए गए नामों को जज नियुक्त करना ही पड़ता है. लेकिन हाल के दिनों में ये देखा गया है कि सरकार ऐसे नामों को भी वापस कर रही है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है. दूसरी तरफ सरकार के मंत्री कॉलेजियम पर सवाल उठा रहे हैं.

अब NJAC की चर्चा कर ली जाए. साल 2014 में नरेंद्र मोदी की सत्ता आने के बाद जो पहला बड़ा संविधान संशोधन विधेयक पारित हुआ था, उसका मकसद जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम को हटाकर एक नई संस्था बनाना था. इसका नाम था राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी). इसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के दो अन्य वरिष्ठतम जज और केंद्रीय कानून मंत्री के साथ-साथ दो ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति को शामिल करना था जिनका चुनाव प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता की दो-सदस्यीय समिति करती.

इस विधेयक को पुरजोर समर्थन मिला था. संविधान के दोनों सदनों ने सर्वसम्मति से इसे मंजूरी दी थी. विपक्ष ने भी इसमें साथ दिया. सिर्फ एक ही शख्स इसके खिलाफ थे- मशहूर वकील राम जेठमलानी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की टेस्ट में ये कानून फेल हो गया. कोर्ट ने 4-1 से इस विधेयक को रद्द कर दिया था. कोर्ट ने कहा था कि यह संशोधन संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है, इसलिए इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है. कोर्ट ने यह भी कहा था कि इस नई व्यवस्था में राजनीतिक दखलअंदाजी हो सकती है, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता में अवरोध उत्पन्न हो जाएगा.

वैसे तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार ने फिर कभी NJAC कानून को सदन में पेश नहीं है. मौजूदा शीतकालीन सत्र में एक सवाल के जवाब में सरकार ने बताया भी कि इस कानून को दोबारा पेश करने की उनकी कोई योजना नहीं है. लेकिन इस समय पुरजोर मांग उठने लगी है कि कॉलेजियम सिस्टम की जगह कोई और व्यवस्था लानी चाहिए, जो कि पारदर्शी और जवाबदेह हो. वहीं कानूनी जानकारों का कहना है कि कॉलेजियम में जरूर कई समस्याएं हैं, लेकिन जब तक ये कानून है उसका पालन होना चाहिए. और यदि इसकी जगह पर कोई व्यवस्था बनाई जाती है तो उसमें कोई भी ऐसा प्रावधान स्वीकार नहीं किया जा सकता है जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाए.

बात सिर्फ नियुक्ति की भी नहीं है. कौन ''कब'' नियुक्त हो रहा है, इसकी भी है. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय मंत्री की कॉलेजियम वाली आपत्तियों को खारिज करते हुए सवाल उठाया है कि आखिर क्यों सरकार समय पर नियुक्ति नहीं कर रही  है. कल 8 दिसंबर को हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल ने कहा कि कॉलेजियम जितनी सिफारिशें भेजती है उसमें से करीब 50 फीसदी को ही स्वीकृति दी जा रही है. इसलिए ये नहीं कहा जा सकता है कि सरकार के पक्ष को सुना नहीं जा रहा है. उन्होंने कहा,

"आप (सरकार) दो बार, तीन बार नामों को लौटा रहे हैं. कितनी बार आप ऐसा करना चाहते हैं? इसका मतलब ये हुआ कि यदि आपको कोई नाम अच्छे नहीं लगते हैं, तो उस व्यक्ति को नियुक्त नहीं करेंगे, कोर्ट के फैसले के उलट."

जस्टिस कौल ने यह भी कहा कि सरकार बिना कोई कारण बताए नामों को नहीं लौटा सकती है, सिफारिश वापस भेजने का कोई कारण होना चाहिए. और ये सिर्फ एक बार किया जा सकता है.

अगला सवाल वेकेंसी का है. जी हां. देश की सबसे बड़ी अदालत में आने वाली वेकेंसी. सुप्रीम कोर्ट में सीजेआई को मिलाकर कुल 34 जजों के लिए पद स्वीकृत हैं. इसमें से अभी 7 पद खाली हैं और 27 पद भरे हुए हैं. कॉलेजियम ने 1 जज नियुक्त करने के लिए सिफारिश भेजी है, जो कि सरकार के पास लंबित है.

इसी तरह देशभर के हाईकोर्ट्स में जजों के लिए कुल 1 हज़ार 108 पद स्वीकृत हैं. इसमें से 330 पद खाली हैं और 778 पदों पर जज नियुक्त हैं. 8 दिसंबर 2022 को कानूनी मंत्री किरेन रिजिजु ने संसद में एक लिखित जवाब देकर बताया सुप्रीम कोर्ट के 1 जज और हाईकोर्ट के 8 जजों को नियुक्त करने का प्रस्ताव सरकार के पास लंबित है. वहीं हाईकोर्ट के 11 जजों और एक मुख्य न्यायाधीश को ट्रांसफर करने और एक हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करने का प्रस्ताव सरकार के पास लंबित है. रिजिजू ने यह भी बताया कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की सिफारिश पर पिछले 5 सालों में सरकार ने हाईकोर्ट से जुड़े 256 नियुक्ति प्रस्तावों को स्वीकार किया है. वहीं 5 दिसंबर तक हाईकोर्ट कॉलेजियम के 146 प्रस्ताव सरकार एवं सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न स्तरों पर लंबित हैं. वहीं 184 नियुक्तियों के प्रस्ताव हाईकोर्ट से सरकार के पास भेजे जाने हैं.

तो कोलेजियम की बहस को सिर्फ सरकार और कोर्ट के बीच जजों की नियुक्ति पर मची लड़ाई की तरह देखना भूल होगी. ये भारत में न्याय की डिलिवरी से जुड़ा मुद्दा भी है. हमने आपके सामने तथ्यों को रख दिया. अब इस मुद्दे पर लल्लनटॉप ने दो दशक से सुप्रीम कोर्ट को कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार संजय शर्मा से बात की. संजय शर्मा का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों का कहना है कि कोलेजियम सिस्टम काफी अच्छा है. हालांकि अगर सरकार किसी मुद्दे से सहमत नहीं है तो कोलेजियम को सुझाव भेज सकती है. सुप्रीम कोर्ट सरकार के सुझावों पर ध्यान भी देता है. सरकार के सुझावों पर कोर्ट ने कई सारे बदलाव भी किये हैं और कई बदलाव खुद कोर्ट ने किये हैं. कोर्ट का ये कहना है कि सरकार सिर्फ सुझाव भेज सकती है उस पर एक्शन लेना है या नहीं ये फैसला कोर्ट का होगा सरकार का नहीं.   

वीडियो: सुप्रीम कोर्ट और नरेंद्र मोदी सरकार के बीच कोलेजियम पर बहस में कौन सही, कौन गलत?

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