लीबिया की लड़ाई कब जाकर खत्म होगी?
2012 में बेंग़ाज़ी हमले के बाद अमेरिका ने लीबिया से दूरी बना ली?
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फोटो: एएफपी
ये बात है 20 अक्टूबर, 2011 की. जगह थी, लीबिया का एक शहर- सर्ट. 75 हथियारबंद कारों का एक काफ़िला शहर से बाहर जाने वाले रास्ते पर तेज़ी से भाग रहा था. इस काफ़िले में था एक VIP टारगेट और उसके बचे-खुचे कुछ आख़िरी सपोर्टर्स. ये लोग जान बचाने के लिए किसी सेफ़हाउस पर पहुंचना चाहते थे. काफ़िला अपनी सीध में आगे बढ़ा जा रहा था कि तभी आसमान से एक हमला हुआ. एक पल में काफ़िले की करीब एक दर्ज़न कारें गेंद सी उछल गईं. एकाएक हुए हमले से बाकी काफ़िला भी अस्त-व्यस्त हो गया. कोई कहीं भागा, कोई कहीं. मगर काफ़िले में अब भी करीब 20 कारें ऐसी थीं, जो एक-दूसरे के साथ लगी थीं.मगर ये साथ भी कुछ ही मिनटों का था. ये लोग जिनसे बचकर भाग रहे थे, वो धमाके की आवाज़ का पीछा करते हुए जल्द ही इन गाड़ियों तक पहुंच गए. अब जान बचाने का एक ही तरीका था. ये तरीका कि कार में सवार VIP टारगेट अपने कुछ अंगरक्षकों के साथ चलती कार से नीचे कूद जाए और पैदल-पैदल कहीं भागने या छुपने की कोशिश करे. उसने ऐसा किया भी. नीचे कूदकर वो एक नाले के पास पहुंचा और यहां एक ड्रेनेज पाइप में छुपकर बैठ गया. लेकिन जान बचाने की उसकी ये युक्ति काम नहीं आई. कार से कूदने के चक्कर में वो जख़्मी हो गया था. वहां से नाले तक आते हुए वो ग़लती से खून की एक लकीर भी छोड़ता हुआ आया था. इसी खून को सूंघते-सूंघते उसके दुश्मन भी वहां पहुंच गए. उन्होंने उसे नाले से घसीटकर निकाला और मार डाला.

मुअम्मर गद्दाफ़ी (फोटो: एएफपी)
कौन था ये आदमी, जो नाले से घसीटकर मारा गया. ये वो आदमी था, जिसने 42 सालों से सत्ता को अपने हाथों में दबोच रखा था. ये वो आदमी था, जो ख़ुद को 'अफ्रीका के राजाओं का राजा' कहता था. इसका नाम था, मुअम्मर गद्दाफ़ी. उत्तरी अफ्रीका में बसे कच्चे तेल के बड़े भंडार वाले देश लीबिया का तानाशाह. गद्दाफ़ी का ये अंजाम कैसे हुआ? उसके मारे जाने के बाद लीबिया में क्या हुआ? और फिलहाल लीबिया किस हालत में है, आज के इस एपिसोड में हम यही सब बता रहे हैं आपको.
सफाई करते हुए गद्दाफ़ी का सफाया हो गया
लीबिया के सर्वेसर्वा रहे गद्दाफ़ी के अंत की शुरुआत हुई 2011 की अरब क्रांति से. ट्यूनीशिया से शुरू हुआ अरब स्प्रिंग लीबिया भी पहुंचा. गद्दाफ़ी ने कहा कि वो एक-एक गली, एक-एक घर में घुसकर लीबिया की सफ़ाई करेगा. सफ़ाई से उसका मतलब था विद्रोह को कुचलना, बाग़ियों का सफ़ाया करना. गद्दाफ़ी की ज़्यादतियों को देख रहे पश्चिमी देश दखलंदाजी करना चाहते थे. मगर इस चाहने में थोड़ा फ़र्क था. हर बार जहां अमेरिका अपने साथी देशों को किसी देश में घुसने के लिए राज़ी करता, वहीं इस बार ब्रिटेन और फ्रांस ने अमेरिका को लीबिया पर हमले के लिए मनाया. मार्च 2011 में NATO फोर्सेज़ ने लीबिया पर धावा बोल दिया. हमले में सबसे आगे था फ्रांस. उसके पीछे थे ब्रिटेन और अमेरिका.
ओबामा प्रशासन बैकफुट पर क्यों आई?
मगर फिर सितंबर 2012 में ऐसा कुछ हुआ कि लीबिया के अंदर अमेरिका की भूमिका पर एकदम से ब्रेक लग गया. क्या थी ये घटना? ये घटना थी 11 सितंबर, 2012 की. लीबिया के इस्लामिक कट्टरपंथियों ने 9/11 की पहली बरसी पर बेंग़ाज़ी स्थित अमेरिकी काउंसुलर के कंपाउंड पर हमला कर दिया. अमेरिकी ऐम्बेस्डर क्रिस्टोफ़र स्टीवन्स समेत चार अमेरिकियों की हत्या कर दी गई. इस घटना ने ओबामा प्रशासन को बैकफुट पर ला दिया. इतना प्रेशर बना सरकार पर कि उसने अमेरिका को लीबिया की जंग से बाहर निकाल लिया.

बेंग़ाज़ी स्थित अमेरिकी काउंसुलर के कंपाउंड पर इस्लामिक कट्टरपंथियों ने हमला कर दिया था. (फोटो: एएफपी)
पश्चिमी देशों के हमले के दो मकसद थे. पहला, गद्दाफ़ी को सत्ता से हटाना. दूसरा, लीबिया में नई व्यवस्था बनाकर उसे पटरी पर लाना. ताकि सद्दाम के बाद इराक में जैसी अराजकता फैली, वैसा लीबिया में न होने पाए. मगर जैसा कि गांधी कहते थे, मकसद और वहां तक पहुंचने का रास्ता, दोनों बहुत ज़रूरी हैं. गद्दाफ़ी का विरोध करने के लिए लीबिया में एक गठबंधन बना था. इसका नाम था- नैशनल ट्रांज़िशनल काउंसिल (NTC). ये बड़े आनन-फ़ानन में बना ग्रुप था. इसमें कई मिलिशिया संगठन थे. इनकी विचारधारा आपस में मेल नहीं खाती थीं. कुछ समूह जहां लोकतंत्र जैसे मूल्यों की बातें करते. वहीं कुछ इस्लामिक कट्टरपंथी समूह गद्दाफ़ी के बाद लीबिया में नया खलीफ़त बनाने के सपने देखते.
त्रिपोली किसका?
अगस्त 2011 में जब गद्दाफ़ी अपनी राजधानी त्रिपोली को छोड़कर भागा, तब तक स्पष्ट हो गया था कि गद्दाफ़ी के दिन पूरे हो गए हैं. ऐसे में NTC के अलग-अलग संगठनों ने त्रिपोली पर अपना-अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश तेज़ कर दी. इनमें दो ग्रुप सबसे आगे थे. एक, ज़िनतान शहर के चरमपंथी. दूसरा, मिसराता शहर के चरपमंथी. मिसराता वालों ने तोपें लूट लीं. ज़िनतान वालों ने एयरपोर्ट पर कब्ज़ा कर लिया. इन दोनों से जो बचा, उसे गठबंधन के बाकी सदस्यों ने अपने-अपने अधीन कर लिया. लीबिया में ज़्यादा-से-ज़्यादा प्रभाव बनाने के लिए उनके बीच होड़ शुरू हो गई.
एक तरफ जहां लीबिया में हज़ारों हथियारबंद मिलिशिया अपनी-अपनी चलाने की उधेड़बुन में थे. वहीं दूसरी तरफ आम लोगों ने उम्मीद लगाई लोकतंत्र से. जुलाई 2012 में 60 साल बाद लीबिया में चुनाव हुए. इस चुनाव का मकसद था एक अस्थायी संसद चुनना. इस संसद का नाम था- जनरल नैशनल कांग्रेस. प्रधानमंत्री चुने गए- अली ज़िदान.

प्रधानमंत्री अली ज़िदान. (फोटो: एएफपी)
क्या इस चुनाव ने लीबिया की दिक्कतें सुलझा दीं? नहीं. सरकार अपनी जिम्मेदारियां संभाल पाए, उससे पहले ही बंदरबांट शुरू हो गई. वो इस्लामिक कट्टरपंथी, जिन्हें लीबिया की जनता ने चुनाव में नकार दिया था, उन्होंने प्रेशर पॉलिटिक्स के सहारे अपने हित साधने शुरू किए. उन्होंने सोचा, अगर लीबिया की सत्ता से जुड़े पुराने लोगों को हटा दें, तो अपने लिए राह खुल जाएगी. ऐसे में कट्टरपंथियों ने दबाव देकर GNC, यानी संसद से ऐसा कानून पास करवा लिया जिसके तहत गद्दाफ़ी के समय किसी भी तरह के सरकारी पद पर रहे लोगों के लिए अब सत्ता में कोई जगह नहीं थी. ऐसा करके कट्टरपंथियों ने गद्दाफ़ी से बगावत करने वाले कई उदारवादी अधिकारियों को भी किनारे लगा दिया. जिस GNC को लीबिया की बेहतरी पर काम करना था, वो कट्टरपंथियों का अड्डा बन गई. वहां शरिया क़ानून प्रमोट किया जाने लगा.
जिसके सहारे गद्दाफ़ी ने सत्ता हासिल की उसे ही धोखा दिया
आपसी लड़ाई और सिविल वॉर के इसी माहौल में एंट्री हुई एक नए खिलाड़ी की. जिसका नाम था- जनरल खलीफ़ा हफ़्तार. हफ़्तार की कहानी बहुत दिलचस्प है. हफ़्तार दशकों तक गद्दाफ़ी के भरोसेमंद रहे. 1969 में जिस तख़्तापलट के सहारे गद्दाफ़ी ने सत्ता हासिल की, उसमें हफ़्तार ने भी साथ दिया था. बदले में गद्दाफ़ी ने उन्हें सेना में ऊंचा ओहदा दिया. 1969 से 1987 तक दोनों एक ही टीम में रहे. मगर फिर 1987 में हुआ एक विश्वासघात. क्या थी ये घटना? हुआ ये कि ज़मीन के एक हिस्से को लेकर लीबिया की लड़ाई हुई चाड रिपब्लिक से. उस लड़ाई में लीबिया की तरफ से जनरल हफ़्तार को कमांडिंग अफ़सर बनाकर भेजा गद्दाफ़ी ने. इस लड़ाई में लीबिया की ज़बरदस्त हार हुई. हज़ारों सैनिक मारे गए उसके. जनरल हफ़्तार समेत करीब 400 सैनिक अरेस्ट भी कर लिए गए. जब ये ख़बर गद्दाफ़ी के पास पहुंची, तो उसने सार्वजनिक तौर पर उन्हें डिसओन कर दिया.

जनरल खलीफ़ा हफ़्तार (फोटो: एएफपी)
हफ़्तार फिर से लीबिया लौटा
नाराज़ हफ़्तार ने गद्दाफ़ी के दुश्मन CIA से हाथ मिला लिया. CIA ने ही हफ़्तार को जेल से निकाला और अमेरिका ले आई. यहां हफ़्तार को अमेरिकी नागरिकता दिलवा दी गई. ख़ूब पैसा भी मिला. CIA की मदद से हफ़्तार अमेरिका स्थित उत्तरी वर्जिनिया में बस गए. अब वो यहीं से CIA के साथ मिलकर गद्दाफ़ी को हटाने के मिशन में लग गए. इन ऑपरेशन्स का कोई अंजाम नहीं निकला. फिर 2003 में अमेरिका के इराक हमले के बाद गद्दाफ़ी ने भी डरकर अमेरिका के साथ अपने रिश्ते सुधारने की कोशिश की. इसके बाद CIA के लिए हफ़्तार का कोई ख़ास काम रह नहीं गया था.
लो-प्रोफाइल रह रहे हफ़्तार को गद्दाफ़ी की मौत के बाद लीबिया में वापसी का मौका दिखा. हफ़्तार ने सोचा, इतनी मारकाट के बीच शायद मेरा भी कोई स्कोप निकल आए. यही सोचकर हफ़्तार लीबिया लौट आए. यहां उन्होंने अपनी एक सेना बनाई और इसका नाम रखा- लीबियन नैशनल आर्मी. मई 2014 में हफ़्तार और उनकी आर्मी ने लीबिया में अपना अभियान शुरू किया. इसका नाम रखा- ऑपरेशन डिगनिटी. हफ़्तार के मुताबिक, वो कट्टरपंथी इस्लामिक आतंकवादियों का सफ़ाया करना चाहते थे. हफ़्तार को जीत मिली और राजधानी त्रिपोली स्थित संसद बिल्डिंग उनके कब्ज़े में आ गई. अब त्रिपोली में दो पक्ष बन गए. एक हफ़्तार का ग्रुप. जिसमें गद्दाफ़ी के दौर के सैनिकों के अलावा पश्चिमी और दक्षिणी लीबिया के कबीलाई लड़ाके थे. इनका मुकाबला था हफ़्तार विरोधी गुट से. इस धड़े में सबसे प्रमुख था लीबिया डॉन. ये लीबिया डॉन कट्टर इस्लामिक मिलिशिया समूहों का एक गठबंधन है. इसको समझिए लीबिया की जनरल नैशनल कांग्रेस का हथियारबंद संगठन.

हफ़्तार के मुताबिक ऑपरेशन डिगनिटी के जरिए कट्टरपंथी इस्लामिक आतंकवादियों का सफ़ाया करना चाहते थे. (फोटो: एएफपी)
UN, GNA और LNA
2011 में गद्दाफ़ी की मौत के बाद शुरू हुआ ये गृह युद्ध अब तक चल रहा है. देश के दो हिस्से हो गए हैं अब. एक हिस्सा है पश्चिम का. जहां UN के समर्थन वाली सरकार है. इस सरकार का नाम है- गवर्नमेंट ऑफ़ नैशनल अकॉर्ड. शॉर्ट में, GNA.इसके मुखिया हैं प्रधानमंत्री फयाज़ अल-सराज. GNA के पास भले UN की बैकिंग हो, मगर इस धड़े में कट्टर इस्लामपंथियों की मौजूदगी गंभीर सवाल खड़े करती है. लीबिया में सत्ता का दूसरा सेंटर है पूर्वी हिस्से में. यहां जनरल हफ़्तार और उनकी लीबियन नैशनल आर्मी (LNA) पावर में है. इनको कहते हैं, तोबरुक अडमिनिस्ट्रेशन. GNA और LNA, दोनों ही ख़ुद को लीबिया की असली सरकार बताते हैं.
जिस तरह लीबिया बंटा हुआ है, उसी तरह लीबिया के सवाल पर पश्चिमी देश भी बंटे हुए हैं. लीबिया के कच्चे तेल पर नज़र गड़ाए बाहरी देश अपने-अपने उम्मीदवारों को जिताना चाहते हैं. रूस, UAE,मिस्र, सऊदी, जॉर्डन और फ्रांस हफ़्तार को सपोर्ट करते हैं. वहीं तुर्की GNA, यानी UN के समर्थन वाली सरकार का समर्थन करता है. दोनों ही धड़े अपने-अपने समर्थकों को हथियारों की सप्लाई करते हैं.
अमेरिका दोनों साइड से खेल रहा
और अमेरिका, वो किसको सपोर्ट करता है? इस सवाल के दो जवाब है. एक ऑफिशल. एक नॉन-ऑफिशल. आधिकारिक तौर पर अमेरिका जनरल हफ़्तार की आलोचना करता है. वहीं पीछे-पीछे वो हफ़्तार को सपोर्ट भी देता है. अमेरिका की कोई एक निश्चित नीति नहीं है लीबिया पर.
अब आप पूछेंगे कि लीबिया का ये बही-खाता हमने आज क्यों खोला है? इसलिए खोला है कि वहां एक बड़ी उठापटक हुई. रूस, UAE और मिस्र के समर्थन वाले जनरल हफ़्तार ने कहा है कि वो लड़ाई रोकने और बातचीत के रास्ते समाधान निकालने के लिए तैयार हैं. जनरल हफ़्तार और उनके गुट ने 8 जून से संघर्षविराम करने का प्रस्ताव भी दिया है. ये वही हफ़्तार हैं, जो कुछ समय पहले तक बातचीत के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे. ये वहीं हफ़्तार हैं, जिन्होंने युद्ध के रास्ते विवाद सुलझाने पर ज़ोर देते हुए अप्रैल 2019 में हफ़्तार ने त्रिपोली पर हमला किया था. उनकी मदद के लिए रूस ने न केवल जंगी विमान भेजे, बल्कि भाड़े के सैनिकों की भी सप्लाई की. मगर तब भी हफ़्तार को कामयाबी नहीं मिली. हफ़्तार की नाकामयाबी का श्रेय जाता है तुर्की को. वो तुर्की ही है, जिसने पश्चिमी लीबिया को जीतने की कगार पर खड़े हफ़्तार को हराया है.
शांति नहीं तेल चाहिए
ये हुआ कब? ये हुआ जनवरी 2020 में. जब तुर्की ने GNA के समर्थन में अपनी सेना और हथियारबंद ड्रोन्स को लीबिया रवाना करने का फैसला किया. तुर्की की एंट्री के बाद लीबिया का सारा खेल ही बदल गया. तुर्की और उसके समर्थक एक-के-बाद-एक अहम मोर्चे जीतते चले गए. स्थिति ये हो गई है कि अब लीबिया को तुर्की का लीबिया कहा जा रहा है.
कितने दिलचस्प समीकरण है देशों के. एक युद्ध में साथ लड़ने वाले किसी दूसरे युद्ध में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते हैं. अमेरिका का सहयोगी मिस्र लीबिया में रूस के साथ हो जाता है. अमेरिका और रूस, दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं. मगर दोनों ने एक ही उम्मीदवार पर अपना हाथ रखा. सभी पक्ष शांति की बातें करते हैं, लेकिन नज़र सबकी तेल पर है. रूस चाहता है, गद्दाफ़ी के समय जिस तरह लीबिया के साथ अरबों रुपये के कॉन्ट्रैक्ट थे. वही स्थिति हफ़्तार को सत्ता को वापस बिठाकर हासिल कर ली जाए. वहीं तुर्की, जो इतने समय से आइडियोलॉजिकल सपोर्ट दे रहा था, वो जंग में कूदने से एक महीना पहले GNA के साथ समझौता करता है. समझौते में तेल और बाकी प्राकृतिक संसाधनों को निकालने में अपना हिस्सा तय करता है. और तब उसकी मदद के लिए सेना भेजता है.
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