महात्मा गांधी की अहिंसा, प्रेम ने ली थी कस्तूरबा की जान
आज पढ़िए कस्तूरबा के त्याग के किस्से.
कहा जाता है कि हर सफल आदमी के पीछे किसी औरत का हाथ होता है. इस बात को ऐसे भी कहा जा सकता है कि किसी के महान बनने की कीमत अक्सर उसका जीवनसाथी चुकाता है. इस बात से महात्मा गांधी भी अछूते नहीं थे. उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी भी इससे अछूती नहीं थीं.
11 अप्रैल 1869 को पैदा हुई कस्तूरबा गांधी की मृत्यु 22 फरवरी 1944 हुई थी, पर ये सामान्य मृत्यु नहीं थी. आइए पढ़ते हैं कैसे कस्तूरबा अपनी जिंदगी से अपनी मौत के करीब पहुंचीं.
14 साल की कस्तूर कपाड़िया की शादी 13 साल के मोहन से हुई थी. मोहन दास बैरिस्टर बने, विलायत गए. किसी आम पत्नी की तरह कस्तूर भी खुश हुई होंगी. पर मोहन धीरे-धीरे गांधी बन गए. वो कस्तूर से कस्तूर बाई और फिर कस्तूरबा बन गईं. फिर गांधी महात्मा, बापू और गांधी बाबा बन गए. इसके साथ इन चीजों को निभाने की उनकी जिद भी बढ़ती गई. ये उनकी मजबूरियां भी हो सकती थीं. इन सबके बीच बा चुपचाप गांधी के साथ बनी रहीं.
कस्तूरबा और गांधी की शादीशुदा ज़िंदगी में ऐसे कई मौके आए जब महात्मा गांधी तो जीत गए मगर पति गांधी अपनी ज़िम्मेदारियां पूरी नहीं कर पाए.
पति के सत्याग्रह के चलते बेटे को खोया
कटनी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में गांधी और बा बैठे थे. भीड़ उमड़ रही थी. एक फटेहाल आदमी जैसे तैसे ट्रेन की खिड़की तक पहुंचा. उसने कस्तूरबा को एक मौसमी तोहफे में दी, पर गांधी की तरफ घृणा भरी निगाहों से देखा, ज़ोर दिया कि गांधी न खाएं और चला गया. ये आदमी महात्मा गांधी का सबसे बड़ा बेटा हरिलाल गांधी था.
हरिलाल ने बचपन में गांधी का अमीरी वाला दौर देखा था. मगर कुछ ही सालों में गांधी सत्याग्रह के रास्ते पर चल पड़े. हरिलाल का स्कूल छुड़वाकर उन्हें घर पर ही पढ़ाया जाने लगा. हरिलाल को ब्रिटेन जाकर पढ़ने के लिए स्कॉलरशिप मिली. गांधी ने मना कर दिया. कहा गांधी के लड़के की जगह किसी ज़रूरतमंद को मिले ये जगह. इसके अलावा एक और बात हुई थी. बा अफ्रीका में रहना चाहती थीं और गांधी भारत आना चाहते थे. ज़ाहिर है कि गांधी की ही चली और बा को मन मारना पड़ा. इन दो घटनाओं के बाद हरीलाल और गांधी के बीच की दूरी बढ़ती चली गई, जो कभी खत्म नहीं हुई. कस्तूरबा इसके बीच में पिसती रहीं.
गांधी इतना नाराज़ और किसी पर नहीं हुए
गांधी समाज की वर्जनाओं को तोड़ना चाहते थे. जाति के भेद-भाव को खत्म करना चाहते थे. कस्तूरबा इनके साथ रहीं मगर कई जगहों पर दोनों में मतभेद हो जाते थे. गांधी उड़ीसा के दौरे पर थे. गांधी के सचिव महादेव देसाई की पत्नी का प्लान था कि पुरी जगन्नाथ मंदिर जाएंगे. उस ज़माने में पुरी के मंदिर में दलितों के प्रवेश पर रोक थी. गांधी का स्पष्ट मत था कि वो ऐसी किसी भी जगह नहीं जाएंगे जहां जाति का भेद-भाव होता हो. महादेव देसाई को लगता था कि कस्तूरबा उनकी पत्नी को मंदिर जाने से रोक लेंगी. मगर कस्तूरबा, महादेव की पत्नी और एक और महिला के साथ मंदिर चली गईं.
गांधी को बहुत बुरा लगा. उन्होंने खुद कहा कि उन्हें सदमा पहुंचा. बाकी लोगों ने गांधी को समझाने की कोशिश की तो गांधी और भड़क गए. कुछ जगहों पर लिखा मिलता है कि गांधी कस्तूरबा पर इतना गुस्सा हुए कि उन्होंने हाथ भी उठा दिया.
इस मामले में हम दोनों को गलत नहीं ठहरा सकते. गांधी जिस धारणा को तोड़ना चाहते थे वो ज़रूरी था. दूसरी तरफ बा के मन में अगर मंदिर देखने की इच्छा जाग गई तो इसमें भी कुछ अनोखा नहीं था. महादेव भाई के ही शब्दों में, "गांधी का सचिव होना मुश्किल है मगर गांधी की पत्नी होना दुनिया में सबसे मुश्किल."
गांधी की ज़िद में कस्तूरबा का नहीं हुआ इलाज
भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था. उसी दौरान गिरफ्तार हुए महादेव देसाई की 15 अगस्त 1942 को दिल के दौरे से आगा खां महल में मौत हो गई. बा को इससे बड़ा सदमा पहुंचा. वो देसाई की समाधि पर रोज़ जा कर दिया जलाती थीं. कहती रहतीं, “जाना तो मुझे था महादेव कैसे चला गया”. कस्तूरबा को ब्रॉन्काइटिस की शिकायत थी. फिर उन्हें दो दिल के दौरे पड़े और इसके बाद निमोनिया हो गया. इन तीन बीमारियों के चलते बा की हालत बहुत खराब हो गई.
डॉक्टर चाहते थे बा को पेंसिलिन का इंजेक्शन दिया जाए. गांधी इसके खिलाफ थे. गांधी इलाज के इस तरीके को हिंसा मानते थे और प्राकृतिक तरीकों पर ही भरोसा करते थे. बा ने कहा कि अगर बापू कह दें तो वो इंजेक्शन ले लेंगी. गांधी ने कहा कि वो नहीं कहेंगे, अगर बा चाहें तो अपनी मर्ज़ी से इलाज ले सकती हैं. गांधी के बेटे देवदास गांधी भी इलाज के पक्ष में थे वो पेंसिलिन का इंजेक्शन लेकर भी आए. तब बा बेहोश थीं और गांधी ने उनकी मर्ज़ी के बिना इंजेक्शन लगाने से मना कर दिया. एक समय के बाद गांधी ने सारी चीज़ें ऊपरवाले पर छोड़ दीं. 22 फरवरी 1944 को महाशिवरात्रि के दिन कस्तूरबा गांधी इस दुनिया से चली गईं.
प्रोफेसर स्टेनले वोलपार्ट ने अपनी किताब में लिखा है कि गांधी बा की मौत के बाद काफी टूट गए थे. लगभग अवसाद की स्थिति में गांधी बीच-बीच में खुद को थप्पड़ मारते और कहते ‘‘मैं महात्मा नहीं हूं...मैं तुम सब की तरह सामान्य व्यक्ति हूं और मैं बड़ी मुश्किल से अहिंसा को अपनाने की कोशिश कर रहा हूं.’’
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