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स्पेशल रिपोर्ट, सीधे फ्रॉम अमेरिका, एक सांस में खींच जाओ

हिलेरी और ट्रंप में ज्यादा खतरनाक है कौन?

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20 अक्तूबर 2016 (Updated: 20 अक्तूबर 2016, 10:10 AM IST) कॉमेंट्स
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भूमिका जोशी


 भूमिका जोशी लखनऊ की रहने वाली हैं और अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी में पीएचडी कर रही हैं. भूमिरिका
की नई किस्त में वो बता रही हैं कि अमेरिका की तबीयत क्यों नासाज़ है. 



चुनावी राजनीति वह बला है जो नवरस की तरह लगभग सारी भावनाओं और मुद्राओं के सहयोग से अवतरित हो पाती है. चुनाव से पहले के माहौल की गहमा-गहमी की ऊर्जा ही कुछ ऐसी होती है कि हर घर-चौबारे चौपाल बन जाए. टी.वी और इंटरनेट के युग में हर टीवी और लैपटॉप स्क्रीन ही अदालत हो गई है - विचारों की, मतभेदों की, सवालों की. कुछ ऐसी भावनाओं का एहसास हो जाता है जिनका कोई ज्ञान न हो और जिन्हें नाम देना भी मुश्किल हो जाए - झुंझलाहट से आगे वाली थकावट, क्रोध से दांत भींचते-भींचते जबड़े का दर्द या फिर निराशा वाली मुस्कान से भरी चुटकुलाहट - दिल और दिमाग की ऐसी एक्सरसाइज कि पसीना और ठंड साथ-साथ आ पड़े.
अमरीकी आबो -हवा में यही नवरस घुल-घुल कर बह रहा है. टीवी सीरियल नुमा न्यूज़ और फिल्मनुमा प्रेसिडेंशियल डिबेट के आगे-पीछे कोई और बात करने की जैसे गुंजाइश ही नहीं रही. लांछन और काउंटर-लांछन के चक्रव्यूह में सच का वज़न अब खतरनाक के पैमाने से तय होने लगा है. जिस चिल्लमचिल्ली के बीच कोई भी बात सुनाई पड़ पा रही है, उस से यही तय हो पा रहा है कि चुनाव दो उम्मीदवारों और उनके दावों पर नहीं, इस बल पर तय होगा कि कौन कितना खतरनाक है. जो जितना कम खतरनाक, उतना ही वोट के लायक. हिलेरी क्लिंटन और डॉनल्ड ट्रम्प के बीच का मुक़ाबला उनके लायक-नालायक होने के बल पर नहीं, कौन कितना कम डरावना है, इस बात पर तय होगा.
Democratic U.S. presidential nominee Clinton listens as Republican U.S. presidential nominee Trump speaks during their third and final 2016 presidential campaign debate at UNLV in Las Vegas
प्रेसिडेंशियल डिबेट के दौरान हिलेरी


यही बात है जो चुनाव के एक महीने पहले तक यह नहीं तय कर पा रही है कि डर भांपे तो कैसे ? ये तो साफ़ है कि पहली और दूसरी प्रेसिडेंशियल डिबेट के बीच ट्रम्प के बारे में टेप पर खुलासे हुए कि कैसे विगत वर्षों में ट्रम्प ने औरतों को मॉलेस्ट किया है? उसने कई के डर को एक नाम दे दिया - ट्रम्प का नाम, उसकी बेशर्मी का नाम और उसकी हीनता का नाम. टेप के द्वारा खुलासे के बाद तो खुलासों की कतार सी लग गई. जब ट्रम्प ने दूसरी डिबेट के दौरान इन दावों को नकार डाला तो एक दिन के अंदर ही अंदर आठ महिलाओं ने ट्रम्प द्वारा उनके साथ की गयी हिंसा का ब्यौरा टीवी पर दे डाला - ट्रम्प को झूठा साबित करने के लिए. भले ही ट्रम्प समर्थकों ने टी वी पर आकर और ट्रम्प ने ट्वीट कर करके इन दावों को झूठा, मनगढ़ंत और राजनैतिक साज़िश का हिस्सा करार करने का भरसक प्रयास किया हो, इतना तो तय हो गया है कि बेशर्मी और खतरनाक होने के बीच अगर कोई लकीर है, तो ट्रम्प ने वो मिटा डाली है.
Republican U.S. presidential nominee Trump speaks during the third and final debate with Democratic nominee Clinton in Las Vegas
प्रेसिडेंशियल डिबेट में बोलते डोनल्ड ट्रंप


पर शायद यही वो लकीर है जो कई वोटरों ने खुद भी मिटा डाली है. चुनावी राजनीति ज़्यादातर गुटों के बल पर संचालित होती है, और हिलेरी और ट्रम्प के अपने अपने गुट बहुत पहले से ही तय हो चुकें हैं. जो तय नहीं कर पाएं हैं, उन्हीं के लिए इस डर की धार को दूसरी तरफ से तेज़ किया जा रहा है. ट्रम्प ने भले ही हिलेरी का काम आसान कर दिया हो, उसे अभी भी खारिज नहीं किया जा सकता. अगर ट्रम्प का बेशर्म स्वरूप इस चुनावी मौसम में कई बार उभर-उभर कर सामने आया हो, इसी ट्रम्प ने अमरीकी चुनाव के इतिहास के एक और डर को फिर से पनपाने की कवायद शुरू कर दी है.
2000 के अमरीकी प्रेसिडेंशियल चुनाव के दौरान जॉर्ज बुश और एल गोर की टक्कर की यादें बहुत पुरानी नहीं हैं. फ्लोरिडा में वोटों की गिनती फिर शुरू करा कर परंतु पूरी होने से पहले रोक कर, अमरीकी सुप्रीम कोर्ट ने बुश को राष्ट्रपति घोषित कर दिया था. आज भी अमरीका में अटकलें लगती हैं कि अगर गिनती पूरी होने देते तो क्या पता - शायद डेमोक्रेट उम्मीदवार एल गोर ही राष्ट्रपति बन जाते. जो हुआ सो हुआ पर ट्रम्प ने हार के डर से ये डर फैलाना शुरू कर दिया है कि चुनावी मशीन जबरन ही हिलेरी को जिता सकती है, कि ट्रम्प समर्थकों को मतदान के दिन सतर्क रहना चाहिए - ऐसे मतदाताओं के प्रति जो मतदान के दौरान बेईमानी कर और करवा सकतें हैं. चुनावी विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे कथन द्वारा ट्रम्प शायद ऐसा डर फैलाना चाहते हैं जिस कारण कुछ मतदाता वोट करने ही न निकलें - इस डर से कि कहीं ट्रम्प समर्थक चुनाव के दिन और दौरान किसी प्रकार की हिंसा न उत्तेजित कर दें.
चुनावी कैम्पैन के दौरान ट्रम्प की रैलियों में कई दफा हिंसात्मक घटनाएं हो चुकी हैं , ये डर बेवजह नहीं है. और भले ही अमरीकी चुनाव कर्ता ये सफाई दे डालें कि अमरीका में चुनाव 'रिग' यानी भ्रष्ट नहीं होते, कोई भी इस डर को पूरी तरह से भगा भी नहीं पा रहा है. और अगर ट्रम्प ने इस डर को हवा दे देकर इसे और बड़ा बना डाला तो आश्चर्य नहीं होगा कि ट्रम्प का डरावनापन इस डर के पीछे कहीं छुप जाए. आखिरी प्रेसिडेंशियल डिबेट में ट्रम्प ने यह कह ही डाला कि वो चुनावी नतीजों के बारे में अपनी प्रतिक्रिया 'सस्पेंस' ही रखेंगे.
Chelsea Clinton and her father, former U.S. president Bill Clinton, arrive for the third and final debate between Republican U.S. presidential nominee Donald Trump and Democratic nominee Hillary Clinton in Las Vegas
हिलेरी को सुनने उनकी बेटी चेल्सिया और पति बिल क्लिंटन भी पहुंचे, फोटो - रायटर्स


ट्रम्प के डरावनेपन के साथ साथ उसके समर्थकों के डरावनेपन ने भी कुछ ऐसा रूप ले लिया है कि लगभग हर न्यूज़ चैनेल ने कभी न कभी अमरीका के पिछड़े और पिछड़ते हुए शहरों में बसे 'व्हाइट वर्किंग क्लास' को उसका नमूना बना डाला है. उनकी धारणा में यही वह तबका है जो ट्रम्प के डरावनेपन की ओट में अपने बेबुनियाद डर को हवा दे रहा है. कुछ ऐसी ही धारणा कई समय से ब्रिटेन में भी पनप रही है, किस प्रकार से समाज का वो तबका - जो 'व्हाइट' है पर आर्थिक सफलता से कोसों दूर है, जो सरकारी सब्सिडी के भरोसे रहता है - जिसे गरियाते हुए 'चैव' कहा जाता है - वही सारी समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार है - भले ही वह इस्लामोफोबिया हो या फिर रेसिस्म.
इस अजब कॉकटेल में निवेशक और व्यवसायी के रूप में भी ट्रम्प को इसी 'व्हाइट वर्किंग क्लास' का मसीहा भी मान लिया जाता है, कुछ वैसे ही जैसे ब्रिटेन में लेबर पार्टी की असफलताओं के चलते दक्षिणपंथी टोरी पार्टी अनायास ही तथाकथित 'चैव्स' की प्रतिनिधि बनती नज़र आ रही थी. इस खिचड़ी में मध्यम वर्ग की दानवता का कोई खाता ही नहीं है, भले ही कई मायनों में पब्लिक यह भी जानती है कि ज़्यादातर ट्रम्प समर्थक इसी तबके से आते हैं.
जो अमरीकी राष्ट्रपति चुनावों को कई सालों से देख परख रहें हैं, वो यह जानते हैं कि डॉनल्ड ट्रम्प अपना कैम्पैन अमरीका के भूतपूर्व रिपब्लिकन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के एजेंडे की परछाई में रच रहें हैं. रिचर्ड निक्सन ने 1960 के दशक में चुनाव डर की राजनीति बुन के जीता, ये बात अब कोई भी नहीं नकारता है. निक्सन ने चुनाव एक ऐसे माहौल में जीता था जब राजनैतिक एवं अधिकारों का दायरा अमरीका में हाशिए पर बसी हुई आबादी तक पहुंचने लगा था, जब लिबरल राजनीति परचम पर चढ़ने लगी थी और लोगों को विश्वास होने लगा था कि सामाजिक संगठन और आंदोलन की शक्ति से कुछ बदलाव हो सकता है.
उस समय भी वर्किंग क्लास वाले तबके को दोषी ठहरा मध्यम वर्गीय अमरीकियों नें निक्सन की डर की राजनीति को खूब हवा दी थी. आज भी जब 'ब्लैक लाइव्स मैटर' जैसे सशक्त आंदोलन अमरीका के शहरों में गूंजने लगे है, जब बरनी सैंडर्स के छोटे पर हावी कैम्पैन ने छात्र राजनीति को एक नया रुख दिया है, जब इमीग्रेशन से जुड़े मुद्दों पर सफाई से बात करना ज़रूरी हो गया है - ट्रम्प की डर की राजनीति तो निक्सन जैसे थोड़ी बहुत ढंकी-संभली भी नहीं है. डर के आगे जीत हो न हो, इस डर के पीछे इतनी साज़िशें हैं कि डर खुद ही मामूली दिखने लगा है. देखना यह है कि दूध का दूध और पानी का पानी होगा या नहीं.


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