सरदार पटेल क्यों नहीं चाहते थे कश्मीर भारत में मिले?
कहा जाता था कि पटेल नेहरू की कश्मीर नीति से इत्तेफाक नहीं रखते थे. उनकी पुण्यतिथि पर पढ़िए क्या वाकई ऐसा था?
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देसी रियासतों के भारत में विलय का पूरा मामला सरदार पटेल संभाल रहे थे. वो इस डिपार्टमेंट के हीरो थे. मगर कश्मीर का नाम आते ही कई लोग कहते हैं कि वहां नेहरू ने अपनी मनमानी की. कहते हैं कि अगर पटेल की चली होती, तो कश्मीर समस्या उसी समय सुलझ गई होती. मगर क्या ये दावे सच हैं?
आज 15 दिसंबर है. 1950 में इसी तारीख को सरदार पटेल गुजर गए थे. तब वो भारत के गृह मंत्री थे. ऐसा नहीं कि मरने के बाद उनका जिक्र खत्म हो गया हो. इन दिनों पटेल का जिक्र बढ़ा है. और पटेल का नाम आता है तो नेहरू का ज़िक्र उसमें नत्थी रहता है. और ये कोई संयोग नहीं. न ही इसकी वजह ये है कि नेहरू और पटेल, दोनों समकालीन थे. दोनों गांधी के सिपाही. आजादी की लड़ाई के हीरो. और आजाद मुल्क के शुरुआती सालों में हुई सबसे अहम चीजों के कर्ता-धर्ता.असल में नेहरू और पटेल को एक-दूसरे के सामने खड़ा करके उनके बीच 'बनाम' की स्थिति बना दी गई है. ये साबित करने की कोशिश की जा रही है कि पटेल के साथ अन्याय हुआ. हमें ये भी बताया जा रहा है कि अगर पटेल भारत के प्रधानमंत्री बनते, तो देश कहीं ज्यादा तरक्की करता. कुछ अहम परेशानियां, जिनसे हम आज जूझ रहे हैं, वो तब ही सुलझ गई होती. जैसे कश्मीर. कि जिस ताकत से उन्होंने हैदराबाद और जूनागढ़ को भारत में मिलाया, वैसे ही कश्मीर समस्या भी हमेशा-हमेशा के लिए सुलझ जाती. खुद PM मोदी लोकसभा में कह चुके हैं-
अगर सरदार वल्लभ भाई पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री होते, तो मेरे कश्मीर का एक हिस्सा आज पाकिस्तान के पास न होता.मोदी ने जो कहा, वैसा ही उनकी पार्टी BJP भी कहती है. मगर क्या इतिहास प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के बयान की गवाही देता है? क्या ये सच है कि पटेल वो गलतियां नहीं करते जो नेहरू ने कीं? आखिर वो गलतियां थीं कौन सीं?
इतिहास अगर और मगर की भाषा में लिखा जाता है. इसलिए इन सवालों के आसान जवाब मौजूद नहीं हैं. लेकिन एक काम किया जा सकता है. बीते हुए वक्त को रीवाइंड किया जा सकता है. जैसे एक फिल्म पीछे करके दोबारा देखी जाए. ऐसे अगर और मगर की कहानी में 'क्यों' के जवाब मिलने की संभावना पैदा होती है. इसीलिए हम पटेल की कहानी को रीवाइंड करेंगे. खास ध्यान दो पहलुओं पर - नेहरू और कश्मीर. पढ़िए. जानिए. समझिए.
इतिहास में क्या है कहानी? गांधी और नेहरू, दोनों चाहते थे कि कश्मीर भारत के साथ आए. मगर पटेल क्या चाहते थे? माउंटबेटन के राजनैतिक सलाहकार थे वी पी मेनन. इनकी लिखी एक किताब है- द स्टोरी ऑफ द इन्टिग्रेशन ऑफ द इंडियन स्टेट्स. इसमें विस्तार से लिखा है उन्होंने कि बंटवारे के समय जिन देसी रियासतों को भारत में मिलाया गया, उसके पीछे की कहानी क्या है. जूनागढ़ और हैदराबाद की तरह एक पूरा चैप्टर कश्मीर पर भी है. इसके पेज नंबर 393 के आखिरी पैराग्राफ से लेकर पेज नंबर 394 तक जो लिखा है, वो आपको पढ़ना चाहिए-Those who tendentiously harp on an alleged Patel/Nehru rivalry should read Rajmohan Gandhi’s magnificent biography of the Sardar. As Rajmohan’s equally wise brother Gopalkrishna puts it, it is because the post Nehru Congress "disowned Patel" that Modi's BJP has "misowned Patel". https://t.co/eeuDDJ8atv
— Ramachandra Guha (@Ram_Guha) October 28, 2018
मैं पहले ही बता चुका हूं कि स्टेट्स ऑफ मिनिस्ट्री के गठन के बाद हम लोग भौगोलिक तौर पर भारत के साथ मिली हुई रियासतों के राजाओं और उनके प्रतिनिधियों के साथ भारत में मिलने की उनकी संभावनाओं पर बात कर रहे थे. 3rd जून (1947) प्लान के ऐलान के बाद जब माउंटबेटन रियासतों के भारत और पाकिस्तान में मिलने की पॉलिसी पर बात कर रहे थे, तब वो कश्मीर को लेकर ज्यादा परेशान थे. इलाके के हिसाब से कश्मीर सबसे बड़ी रियासत थी. वहां की आबादी में बहुसंख्यक मुसलमान थे, जिनके ऊपर एक हिंदू राजा का शासन था. माउंटबेटन राजा हरि सिंह को अच्छी तरह जानते थे. जून के तीसरे हफ्ते में माउंटबेटन कश्मीर पहुंचे. वहां चार दिन रहकर उन्होंने सारी स्थितियों, विकल्पों पर महाराजा से बात की. माउंटबेटन ने राजा से कहा कि उनके मुताबिक जम्मू-कश्मीर का आजाद रहना व्यावहारिक नहीं होगा. ये भी बताया कि ब्रिटिश सरकार जम्मू-कश्मीर को अपने डोमिनियन स्टेट का दर्जा नहीं दे सकती है. माउंटबेटन ने महाराजा को आश्वासन दिया. कि अगर 15 अगस्त, 1947 के पहले या फिर इस तारीख तक वो भारत या पाकिस्तान, दोनों में से किसी एक के साथ मिलने का फैसला कर लेते हैं, तो कोई परेशानी नहीं आएगी. कि वो जिस किसी में भी मिलने का फैसला करेंगे, वो देश जम्मू-कश्मीर को अपना भूभाग मानकर उसकी हिफाजत करेगा. माउंटबेटन ने महाराजा से ये तक कहा कि अगर वो पाकिस्तान में मिलते हैं, तो भारत इससे कतई नाराज नहीं होगा. महाराजा को ये आश्वासन देते हुए माउंटबेटन ने ये कहा कि खुद सरदार पटेल ने उन्हें ये भरोसा दिया है. जम्मू-कश्मीर रियासत की आबादी को ध्यान में रखते हुए माउंटबेटन ने राजा से कहा कि जनता की मर्जी जानना बहुत अहम है.
माउंटबेटन की बात का मतलब क्या था? विलय के मुद्दे पर नेहरू से ज्यादा पटेल का प्रभाव था. ऐसे में माउंटबेटन का पटेल के नाम से राजा हरि सिंह को आश्वासन देना साफ बताता है कि इस मसले में पटेल की राय और उनका वादा ज्यादा अहमियत रखता है. शुरुआत में पटेल कश्मीर को भारत में मिलाने के बहुत इच्छुक नहीं थे. इसकी एक बड़ी वजह वहां की आबादी में मुसलमानों का बहुसंख्यक होना भी था. क्योंकि बंटवारे की शर्तों में सबसे जरूरी बात 'टू नेशन थिअरी' ही थी. मुसलमानों के लिए पाकिस्तान, हिंदुओं के लिए हिंदुस्तान. सारे मुसलमान नहीं, वो जो पाकिस्तान को चुनना चाहें. इसीलिए जम्मू-कश्मीर को भारत में मिलना है या नहीं, इसका फैसला पटेल वहां के राजा हरि सिंह पर छोड़ना चाहते थे. वो इसमें किसी तरह की जबरदस्ती किसी जाने के पक्ष में नहीं थे. उनका मानना था कि राजा ही तय करे कि भारत और पाकिस्तान, दोनों में से कौन से देश के साथ जाना उसके और उसकी आबादी के लिए सही रहेगा. पटेल की ज्यादा दिलचस्पी हैदराबाद में थी. वो हैदराबाद को किसी भी कीमत पर पाकिस्तान में नहीं जाने देना चाहते थे. वैसे वी के मेनन की इस किताब का पीडीएफ आपको बीजेपी की ऑनलाइन लाइब्रेरी पर भी मिल जाएगा.

वी पी मेनन की ये किताब बीजेपी की ऑनलाइन लाइब्रेरी पर भी मौजूद है. जिस हिस्से को हाइलाइट किया है, उसमें लिखा है कि माउंटबेटन ने पटेल के नाम से राजा हरि सिंह को आश्वासन दिया था. कि अगर वो पाकिस्तान के साथ जाते हैं, तो भारत को कोई दिक्कत नहीं है.
पटेल का रुख कब बदला? जम्मू-कश्मीर को लेकर पटेल का रुख बदलने के पीछे एक दूसरी रियासत वजह बनी. समंदर के किनारे बसा जूनागढ़. यहां की तस्वीर जम्मू-कश्मीर से एकदम उलट थी. नवाब महाबत खान मुसलमान थे और उनकी बहुसंख्यक आबादी हिंदू थी. सोमनाथ का वो मंदिर, जिसे महमूद गजनवी ने तोड़ा और लूटा था, वो भी इसी जूनागढ़ की हद में आता था. महाबत खान के यहां हो गई बगावत. सिंध इलाके में मुस्लिम लीग के एक नेता थे- शाह नवाज भुट्टो. ये बन गए जूनागढ़ के दीवान. असली ताकत नवाब के पास नहीं रही, भुट्टो के पास आ गई. भुट्टो थे जिन्ना के करीबी. जिन्ना की 'टू नेशन थिअरी' के हिसाब से जूनागढ़ को भारत में मिलना चाहिए था. क्योंकि आबादी में 80 फीसद लोग हिंदू थे. मगर जिन्ना ने खेल किया. उन्होंने भुट्टो को सलाह दी कि बंटवारे की तारीख तक चुपचाप बैठो. भुट्टो ने ऐसा ही किया. जैसे ही 15 अगस्त की तारीख आई, भुट्टो ने ऐलान किया कि जूनागढ़ पाकिस्तान के साथ जाएगा.

नवाब महाबत खान शायद भारत में मिलना मंजूर करते. मगर उनकी चल नहीं रही थी. असली ताकत दीवान शाह नवाज भुट्टो को मिल गई थी. भुट्टो मुस्लिम लीग के नेता थे. वो जिन्ना के कहे पर खेल रहे थे.
जूनागढ़ के बहाने जिन्ना कश्मीर का खेल रच रहे थे पटेल को खबर मिली. शुरू में उन्हें लगा कि जूनागढ़ के इस फैसले को पाकिस्तान नहीं मानेगा. मगर ऐसा हुआ नहीं. 13 सितंबर, 1947 को एक टेलिग्राम भेजकर पाकिस्तान ने ऐलान किया कि वो जूनागढ़ के फैसले को मंजूर करता है. शायद इसके पीछे जिन्ना की एक प्लानिंग ये थी कि भारत ऐतराज जताए. कहे कि राजा नहीं, उसकी आबादी फैसला करेगी कि उसे भारत के साथ जाना है कि पाकिस्तान के साथ. अगर भारत ये तर्क देता, तो जिन्ना इसका इस्तेमाल कश्मीर हासिल करने में करते. क्योंकि उन्हें लगता था कि कश्मीर की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी पाकिस्तान के साथ आना चाहेगी. जूनागढ़ के साथ डील करने का जिम्मा नेहरू ने पटेल को सौंपा. जूनागढ़ की सीमाओं पर भारतीय फौज भेज दी गई. जूनागढ़ के कुछ लोगों ने बंबई में एक प्रोविजनल सरकार का गठन कर दिया.

ये हैं जूनागढ़ के पाकिस्तान में विलय के कागजात. इनके ऊपर नवाब महाबत खान के दस्तखत थे. पटेल को उम्मीद थी कि जिस 'टू नेशन थिअरी' के नाम पर जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग ने भारत का बंटवारा कराया, वो हिंदू मेजॉरिटी वाले जूनागढ़ को पाकिस्तान में नहीं मिलाएगी. मगर ऐसा हुआ नहीं (फोटो: sardarpatel.nvli.in)
जनमत संग्रह की बात कश्मीर से पहले यहां उठी थी ये चीजें हो रही थीं कि 30 सितंबर को नेहरू ने पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा कि भारत को जूनागढ़ के नवाब द्वारा लिए गए फैसले पर आपत्ति है. साथ में नेहरू ने ये भी कहा कि अगर ऐसी पसोपेश में फैसला होना ही है, तो चुनाव या जनमत संग्रह जैसा कुछ कराया जाए. नेहरू की इस बात पर माउंटबेटन ने कहा कि अगर जरूरत पड़ी, तो वो बाकी रियासतों के मामले में भी यही रुख अपनाएंगे. पटेल ने पाकिस्तान को काफी टाइम दिया. कि या तो वो जूनागढ़ को मिलाने का अपना फैसला बदले या फिर जनमत संग्रह के लिए राजी हो. पाकिस्तान दोनों के लिए राजी नहीं हुआ. काफी इंतजार करने के बाद पटेल ने सेना भेजी. जूनागढ़ को भारत में मिला लिया. नवाब अपना खजाना, अपने कुत्तों और परिवार समेत पाकिस्तान भाग गए. पटेल जूनागढ़ पहुंचे. भारी भीड़ जुटी. पटेल (जो कि ऑरिजनली जनमत संग्रह के पक्ष में नहीं थे) ने भीड़ से पूछा कि वो दोनों मुल्कों में से किसके साथ जाना चाहते हैं. हजारों लोगों ने हाथ उठाकर एक आवाज में कहा- भारत. इसके बाद 20 फरवरी, 1948 को वहां एक आधिकारिक जनमत संग्रह हुआ. 2,01,457 रजिस्टर्ड वोटर्स में से बस 91 ने पाकिस्तान के साथ जाने को वोट दिया. ये बातें इसलिए बता रहे हैं आपको कि आप समझ सकें कि कश्मीर में जनमत संग्रह की बात एकाएक नहीं उठी थी. इसका एक जरूरी संदर्भ-प्रसंग था.

जूनागढ़ एपिसोड के बाद सरदार पटेल का कश्मीर को लेकर मन बदला. उनका आधार साफ था. कि जब जूनागढ़ में पाकिस्तान शासक के फैसले को आधार मानकर उसका विलय कर सकता है, तो कश्मीर में यही चीज भारत क्यों नहीं कर सकता?
जूनागढ़ में पाकिस्तान की हरकत देखकर पटेल का मन बदला पाकिस्तान ने जूनागढ़ में जो चालाकी दिखाई, उसकी वजह से ही कश्मीर को लेकर पटेल सख्त हुए. मुस्लिम नवाब के फैसले पर हिंदू आबादी वाली रियासत को मिलाने के लिए पाकिस्तान राजी हो गया था. तो फिर कश्मीर में हिंदू राजा के कहने पर मुस्लिम मेजॉरिटी वाली आबादी को खुद में मिलाने से भारत को क्यों ऐतराज हो? पटेल लोकतांत्रिक तरीके से ये मसला सुलझाना चाहते थे. उनकी नजर हैदराबाद पर थी. अगर पाकिस्तान हैदराबाद भारत को देने पर राजी होता, तो पटेल कश्मीर उसे सौंपने को तैयार थे. मगर पाकिस्तान ने ऐसा किया नहीं. फिर पटेल ने मन बना लिया. कि पाकिस्तान अपनी सहूलियत देखकर पॉलिसी तय नहीं कर सकता. कि वो जूनागढ़ में राजा की बात को तवज्जो दे और कश्मीर में लोगों की इच्छा की बात करे, ये दोनों चीजें एक साथ मुमकिन नहीं है. कश्मीर का घटनाक्रम 22 अक्टूबर, 1947. 200 से 300 लॉरी में भरकर आए पाकिस्तानी कबीलाइयों ने जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया. वो श्रीनगर की तरफ बढ़ रहे थे. राजा की फौज के मुस्लिम हमलावरों के साथ हो लिए थे. इन्होंने ऐलान किया कि 26 अक्टूबर को वो श्रीनगर फतह करके वहां की मस्जिद में ईद का जश्न मनाएंगे. 24 अक्टूबर की रात महाराजा ने भारत सरकार से मदद मांगी. 25 अक्टूबर की सुबह माउंटबेटन की अध्यक्षता में डिफेंस कमिटी की बैठक हुई. वी के मेनन गए. 26 अक्टूबर को वो दिल्ली लौटे. उनके लौटते ही तुरंत डिफेंस कमिटी की बैठक हुई. माउंटबेटन ने सलाह दी कि जब तक राजा हरि सिंह भारत में विलय न करें, तब तक भारत को अपनी फौज जम्मू-कश्मीर नहीं भेजनी चाहिए. फिर ये बात भी हुई कि हमलावरों को भगाने के बाद वहां भी जूनागढ़ की तरह जनमत संग्रह हो.

बीच में कोट पहने बैठे हैं माउंटबेटन. बाईं तरफ नेहरू हैं और दाहिनी तरफ जिन्ना. ये बंटवारे से पहले की तस्वीर है (फोटो: Getty)
जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा कैसे बना? मीटिंग के बाद फिर मेनन जम्मू पहुंचे, राजा से मिलने. राजा विलय के लिए तैयार थे. उन्होंने विलय के कागजों पर दस्तखत किया. फिर मदद की अपील करते हुए गवर्नर जनरल को चिट्ठी लिखी. इसमें लिखा कि वो तत्काल एक अंतरिम सरकार का गठन करना चाहते हैं. इसमें शासन की जिम्मेदारी निभाएंगे नैशनल कॉन्फ्रेंस के शेख अब्दुल्ला (जो कि नेहरू के दोस्त थे और भारत में विलय के सपोर्टर) और रियासत के वजीर मेहर चंदर महाजन. दोनों चीजें लेकर मेनन दिल्ली लौटे. फिर से डिफेंस कमिटी की मीटिंग हुई. नेहरू का कहना था कि अगर भारत ने फौज नहीं भेजी, तो जम्मू-कश्मीर में भयंकर मारकाट होगी. तय हुआ कि विलय की अपील मंजूर की जाए. ये भी तय हुआ कि जब वहां कानून-व्यवस्था की हालत सामान्य हो जाएगी, तो जनमत संग्रह करवाया जाएगा. 27 अक्टूबर को भारतीय सेना हवाई रास्ते से वहां जाने लगी.

जिन्ना चाहते थे कि नेहरू और माउंटबेटन कश्मीर के विवाद को सुलझाने लाहौर आएं. नेहरू का कहना था कि बातचीत के रास्ते समस्या सुलझाने की कोशिश करने में हर्ज ही क्या है. मगर पटेल राजी नहीं थे. उनका कहना था कि गलती पाकिस्तान ने की है, तो उसे ही आना चाहिए (फोटो: Getty)
गिलगित में पाकिस्तान का धोखा जिन्ना ने माउंटबेटन और नेहरू को लाहौर बुलाया. मगर पटेल राजी नहीं थे. उन्होंने कहा कि हमला पाकिस्तान ने कराया है. भारत को वहां नहीं जाना चाहिए. अगर जिन्ना बात करना ही चाहते हैं, तो वो दिल्ली आएं. नेहरू शांति से बात करके समस्या सुलझा लेना चाहते थे. चूंकि नेहरू और पटेल की राय अलग थी, सो मामला पहुंचा गांधी के पास. बिड़ला हाउस में गांधी ने दोनों को बुलाया. गांधी ने मेनन को भी वहां बुलाया. पूछा, लाहौर जाना चाहिए कि नहीं. मेनन ने कहा, नहीं. नेहरू को तेज बुखार था. ऐसे में उनका जाना कतई मुमकिन नहीं था. यूं लाहौर जाने की बात खारिज हो गई. इस बीच गिलगित में बगावत हो गई. महाराजा के प्रतिनिधि गवर्नर को कैद करके वहां प्रोविजनल सरकार बना दी गई. इन लोगों ने पाकिस्तान का झंडा भी फहरा दिया. नवंबर जाते-जाते पाकिस्तान ने वहां अपना पॉलिटिकल एजेंट भी तैनात कर दिया. चूंकि गिलगित जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था और महाराजा भारत में विलय कर चुके थे, इसलिए ये अवैध था.

कश्मीर विवाद को UN ले जाने की सलाह माउंटबेटन ने दी थी. उनका मानना था कि दोनों देशों के बीच इस मसले पर जंग छिड़ सकती है. ऐसी नौबत न आए, इसके लिए UN का सहारा लिया जा सकता है. नेहरू शुरू में इसके लिए तैयार नहीं थे. बाद में वो मान गए (फोटो: नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी)
UN का जिक्र कैसे आया? नवंबर में ही माउंटबेटन जिन्ना से बात करने पाकिस्तान पहुंचे. जिन्ना ने कहा, दोनों पक्ष एक साथ पीछे हटें. माउंटबेटन ने पूछा कि कबीलाई हमलावरों की गारंटी पाकिस्तान कैसे दे सकता है. इसपर जिन्ना ने कहा, अगर भारत पीछे हटेगा तो मैं उनको भी पीछे हटवा दूंगा. जाहिर था, पाकिस्तान ने ही हमला कराया था. माउंटबेटन ने कहा, जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह से फैसला होगा. जिन्ना ने आपत्ति जताई. कहा, भारतीय सेनाओं की मौजूदगी और शेख अब्दुल्ला के सत्ता में रहते रियासत के लोग पाकिस्तान के पक्ष में वोट करने से डरेंगे. बातचीत बेनतीजा रही. 2 नवंबर को नेहरू ने अपने भाषण में कहा कि कश्मीर में जो हुआ, वो हमलावरों के खिलाफ आम कश्मीरियों का संघर्ष है. इसी भाषण में नेहरू ने कहा कि हालात सामान्य हो जाने के बाद वो संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में जनमत संग्रह कराए जाने के लिए तैयार हैं. 3 दिन बाद पटेल ने UN जाने का समर्थन किया था उधर कश्मीर में भारतीय सेना हमलावरों को पीछे धकेलती जा रही थी. भारत और पाकिस्तान के बीच लाहौर में हुई प्रधानमंत्री स्तर की बातचीत भी बेनतीजा रही. इसी मीटिंग में माउंटबेटन ने दोनों देशों को ये मसला UN ले जाने की सलाह दी थी. मगर तब नेहरू ने ये प्रस्ताव मंजूर नहीं किया. माउंटबेटन का मानना था कि अब ये विवाद दोनों देशों की आपसी बातचीत से नहीं सुलझने वाला. उन्हें डर था कि दोनों मुल्कों में जंग की स्थिति आ सकती है. वो युद्ध की संभावना को किसी भी कीमत पर खत्म करना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने गांधी और नेहरू को सलाह दी कि वो UN पर भरोसा करें. नेहरू शुरू में इसके लिए तैयार नहीं थे. मगर बाद में कोई राह न देखकर वो मान गए. पटेल को इसपर आपत्ति थी. आखिरकार 31 दिसंबर, 1947 को भारत सरकार ने आधिकारिक तौर पर इस मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्र में अपील कर दी. दिसंबर 1948 में UN के सदस्य भारत और पाकिस्तान आए. 1 जनवरी, 1949 की आधी रात से भारत-पाकिस्तान के बीच सीज़फायर हुआ. जो जहां था, वहीं रह गया. और इस तरह कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा (जिसे हम PoK कहते हैं) पाकिस्तान के पास चला गया. जनमत संग्रह करवाने के पीछे भारत की शर्त थी कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर से पूरी तरह निकल जाए. ऐसा हुआ नहीं, सो जनमत संग्रह भी नहीं हुआ. 3 जनवरी, 1948 को कलकत्ता में भाषण देते हुए पटेल ने UN में जाने के फैसले का समर्थन किया. वो बोले-
कश्मीर को लेकर हमारा ये मानना है कि दबी-छुपी जंग से बेहतर है खुलकर आमने-सामने लड़ना. इसीलिए हम UN में गए. अगर कश्मीर को तलवार के जोर पर बचाया जा सकता है, तो जनमत संग्रह का विकल्प ही कहां बचता है? हमें कश्मीर की जमीन का एक इंच भी नहीं छोड़ना चाहिए.

गांधी का भी मानना था कि कश्मीर में भारतीय सेना भेजने का फैसला सही था. कबीलाई हमलावरों ने कश्मीर में अल्पसंख्यकों से साथ जैसी मार-काट की, उनपर जो अत्याचार किया, उससे गांधी काफी दुखी थे (फोटो: AP)
पटेल किन बातों पर असहमत थे? ये सच है कि पटेल नेहरू के किए जनमत संग्रह के वादे से खुश नहीं थे. ये भी सच है कि वो नेहरू के UN जाने से भी खुश नहीं थे. संघर्षविराम को मान लेने की वजह से जम्मू-कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के पास चला गया था. इससे भी पटेल खुश नहीं थे. मगर ये भी सच है कि जब ये सब हो रहा था, तब पटेल नेहरू के ही साथ थे. जनमत संग्रह की बात उस समय की स्थितियों के हिसाब से गलत नहीं थी. भारत तो लोगों के फैसले को तवज्जो देने की बात शुरुआत से कर रहा था. जूनागढ़ में भी, कश्मीर में भी. एक बार पटेल ने माउंटबेटन से कहा था कि दिसंबर 1947 में कश्मीर को बांटने की उनकी सलाह शायद सही थी. शायद ऐसा करके इस समस्या को सुलझाया जा सकता था. क्या कहते हैं गांधी के पोते पटेल के बारे में? राजमोहन गांधी ने पटेल की बायोग्रफी लिखी है. उनका कहना है कि पटेल ने कश्मीर को लेकर लगातार अलग-अलग तरह की बातें कहीं. कई बार विरोधाभासी बातें भी कह गए. कभी नेहरू के साथ सहमति जताई. कभी कहा कि कश्मीर समस्या सुलझने वाली नहीं है. गांधी शायद सही ही लिखते हैं कि कश्मीर पर नेहरू ने जो भी किया, वो पटेल ने उन्हें करने दिया. UN जाना भी ऐसा ही मामला था.
Patel to Nehru, 5/2/48: "We have been lifelong comrades… The paramount interests of our country and our mutual love and regard, transcending such differences of outlook and temperament as existed, have held us together." https://t.co/6186QlygUI
— Ramachandra Guha (@Ram_Guha) October 28, 2018
पटेल की कश्मीर नीति में भी अच्छा खासा विरोधाभास था
पटेल की बातों में विरोधाभास मिलता है. कहीं वो कहते हैं कि उनका नेहरू से कोई मतभेद नहीं. कहीं कहते हैं कि कश्मीर पर जो भी बस में था, वो बाकी नहीं रखा गया. फिर कभी वही पटेल कहते हैं कि कश्मीर समस्या सुलझ जाती, मगर नेहरू के कारण नहीं सुलझ सकी. कभी वो UN में जाने के फैसले पर असहमति जताते हैं, तो कभी उसका बचाव करते हैं. कभी कहते हैं कि संघर्षविराम ठीक नहीं था. कि सेना को बनिहाल से पुंछ की ओर न भेजा होता, तो तभी चीजें सुलझ गई होतीं. फिर मानते हैं कि शायद कश्मीर के बंटवारे पर राज़ी हो जाना सही रहता. जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि पटेल का दिमाग पढ़ना बहुत मुश्किल था. वो कश्मीर पर क्या सोचते थे, ये सही सही जान पाना और बता पाना बहुत मुश्किल था.
एक बात 'पटेल वर्सेज़ नेहरू क्लब' से
नेहरू ने पटेल को कभी अलग नहीं किया. और न पटेल ने नेहरू का साथ छोड़ा. विदेश मंत्रालय नेहरू के पास था, गृह मंत्रालय पटेल के पास. इतिहास इनके बीच कश्मीर को लेकर ऐसे किसी मतभेद के बारे में नहीं बताता, जिसको लेकर दोनों में ठन गई हो या राहें अलग हो गई हों. ये सही है कि नेहरू और पटेल के बीच कई बातों पर असहमति थी. लेकिन ये वैसी ही थीं जैसी साथ काम करने वालों में अमूमन होती हैं. मतभेद जो थे भी, मनभेद नहीं बने.
इसीलिए विलय की सफल कोशिशों के लिए जब पटेल की तारीफ होती है, तो कश्मीर समस्या का ठीकरा अकेले नेहरू के सिर मढ़ना गलत है. UN में जाने से कश्मीर के मुद्दे में अंतरराष्ट्रीय दखल की राह खुल गई. ये बात सच है. लेकिन उतना ही सच ये भी है कि ये मलाल UN जाने के बाद उन सालों में इकट्ठा हुआ है, जिनमें मसला ए कश्मीर सुलझाया नहीं जा सका. इनमें नेहरू और उनकी बेटी के साल भी हैं. और वाजपेयी और उनके राजनीतिक वंशज मोदी के भी.
क्लियोपेट्रा की नाक और रोमन सभ्यता का किस्सा आपने सुना होगा. कि उसकी नाक एक इंच लंबी या छोटी होती तो रोमन सभ्यता बची रहती. लेकिन मितरों क्लियोपेट्रा की नाक ज़्यादा-कम नहीं थी. और रोमन सभ्यता भी खत्म हुई ही. इसीलिए ऐतिहासिक नायकों के कंधे पर बंदूक रखकर राजनीति से बचना चाहिए. क्योंकि 50 साल बाद आज का इतिहास लिखा जाएगा तब आप भी अगर और मगर के शिकार हो सकते हैं.
वीडियो देखेंः वीपी सिंह के लिए चंद्रशेखर को क्यों और कैसे धोखा दिया देवीलाल ने?